रायपुर- छत्तीसगढ़ बीजेपी संगठन के भीतर चल रही हलचल बहुत कुछ संकेत दे रही है. संकेत नेतृत्व में बड़े बदलाव को लेकर है. इस वक्त चर्चा सतह पर नहीं है, लेकिन कुछ चुनिंदा नेता इस उधेड़बुन में जुटे हुए हैं कि संगठन के भीतर व्यापक पैमाने पर बदलाव कर दिया जाए. इस अहम मुद्दे को लेकर आला नेताओं के बीच कई दौर की बातचीत होने की जानकारी मिली है. संगठन के उच्च पदस्थ सूत्र इस बात की तस्दीक करते हैं. कहा जा रहा है कि छत्तीसगढ़ में बीजेपी कार्यकारी अध्यक्ष का फार्मूला लागू कर सकती है. इधर नेता प्रतिपक्ष बदले जाने की भी सुगबुगाहटें हैं. इसे लेकर भी रायशुमारी किए जाने की खबर है. हालांकि संगठन अब तक किसी नतीजे पर नहीं पहुंचा है, लेकिन बदलाव की संभावना को दरकिनार नहीं किया गया है. बीजेपी में बदलाव की यह चर्चा भूपेश सरकार के खिलाफ आक्रामक लड़ाई की रणनीति के तौर पर देखा जा रहा है.

आखिर क्या वजह है कि संगठन में शीर्ष स्तर पर बदलाव की अटकलें तेज हो रही हैं? बीजेपी में फिलहाल इस वक्त इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं है. सब कुछ पर्दे के पीछे गोपनीय तरीके से चल रहा है. तमाम समीकरणों पर मंथन किया जा रहा है. चर्चा कहती है कि प्रदेश प्रभारियों ने बीते महीनों में संगठन के कामकाज, नेताओं की गुटबाजी, राज्य की जातिगत व्यवस्था, भूपेश सरकार के खिलाफ विपक्ष की लड़ाई की रणनीति, संगठनात्मक स्तर पर नेतृत्व की स्वीकार्यता जैसे तमाम पहलूओं पर समीक्षा की और रिपोर्ट दिल्ली आलाकमान को भेजा, जिसके बाद आलाकमान ने संगठन को मजबूत किये जाने के कड़े निर्देश दिए.

तो क्या लागू होगा कार्यकारी अध्यक्ष का फार्मूला?

सबसे अहम चर्चा प्रदेश बीजेपी संगठन में कार्यकारी अध्यक्ष का फार्मूला लागू किए जाने को लेकर है. इसे लेकर पार्टी में कुछ खिचड़ी जरूर पक रही है. पूर्व केंद्रीय मंत्री विष्णुदेव साय को प्रदेश अध्यक्ष बनाए जाने के पीछे की सबसे बड़ी वजह आदिवासी वर्ग को साधने की थी. साय सरल-सहज छवि के नेता है. जाहिर है उनकी राजनीति में आक्रामकता की कोई जगह नहीं है. भूपेश सरकार के खिलाफ आक्रामक लड़ाई के वह सेनापति नहीं बन सकते. ऐसे में बीजेपी के सामने यह चुनौती बनी हुई है कि आदिवासी वर्ग को साधने के साथ-साथ सत्ता के खिलाफ आक्रामक लड़ाई कैसे लड़ी जाए? साय के नेतृत्व में चल रहे संगठन में उस आक्रामकता की दरकार है, जिसकी मौजूदा वक्त में जरूरत है. संगठन के जानकार कहते हैं कि प्रदेश अध्यक्ष को बदले जाने का संदेश पार्टी हित में नहीं होगा, लिहाजा कार्यकारी अध्यक्ष के फार्मूले पर आगे बढ़ा जा सकता है. संगठन सूत्र बताते हैं कि कार्यकारी अध्यक्ष अनुभवी नेता को बनाने पर विचार किया जा रहा है. चर्चा में यह भी सुनाई पड़ रहा है कि सामान्य वर्ग से कार्यकारी अध्यक्ष बनाये जाने का प्रस्ताव है. भीतरखाने के सूत्र बताते हैं कि जिन नामों पर विचार किया गया उनमें एक नाम पूर्व मंत्री बृजमोहन अग्रवाल का भी रहा है.

नेता प्रतिपक्ष को लेकर भी सुगबुगाहट

सबसे दिलचस्प चर्चा नेता प्रतिपक्ष धरमलाल कौशिक को लेकर हो रही है. पर्दे के पीछे चल रही रायशुमारी से यह चौंकाने वाली जानकारी मिली है. कौशिक ओबीसी वर्ग से आते हैं और इस वक्त राज्य की राजनीति में ओबीसी सबसे महत्वपूर्ण फैक्टर बना हुआ है. मुख्यमंत्री भूपेश बघेल इसी वर्ग से हैं. कौशिक को जब नेता प्रतिपक्ष बनाया गया, तब पार्टी ने भी यही समीकरण बिठाया था कि ओबीसी चेहरे के जवाब में ओबीसी वर्ग से ही नेता प्रतिपक्ष बनाया जाए. धरमलाल कौशिक का पलड़ा भारी रहा और उनकी ताजपोशी कर दी गई. पार्टी सूत्र बताते हैं कि आला नेताओं के बीच हुई चर्चा में ये मुद्दा भी उठा कि तेजतर्रार नेता प्रतिपक्ष बनाया जाए. इसके लिए कुछ लोगों ने ओबीसी वर्ग से ही आने वाले पूर्व मंत्री और सदन में मुखर विधायक अजय चंद्राकर का नाम आगे बढ़ाया. हालांकि कहा जा रहा है कि बाद में कुछ नेताओं ने नारायण चंदेल के नाम पर भी विचार किये जाने का प्रस्ताव दिया. ऐसा नहीं है कि धरमलाल कौशिक का प्रदर्शन विधानसभा में बेहतर नहीं रहा है. उनका विधायकों से बेहतर तालमेल और सामंजस्य है, बावजूद इसके नेता प्रतिपक्ष के नाम को लेकर पर्दे के पीछे चल रही चर्चा चौकाती है.

पूर्व मुख्यमंत्री डाॅ.रमन सिंह की भूमिका पर जिक्र जरूरी

बीजेपी के प्रदेश संगठन की कप्तानी कोई भी करे, लेकिन कमान पूर्व मुख्यमंत्री डाॅक्टर रमन सिंह के हाथों ही रही है. रमन 15 सालों तक मुख्यमंत्री रहे हैं, जाहिर है उनकी भूमिका तब तक मजबूत बनी रहेगी, जब तक आलाकमान उनकी दूसरी जिम्मेदारी सुनिश्चित नहीं कर देता. पिछले दिनों केंद्रीय मंत्रिमंडल के विस्तार में उन्हें लिये जाने की जमकर चर्चा थी. दिल्ली के सूत्र बताते हैं कि पीएमओ की पहली सूची में उनका नाम शामिल था, लेकिन सूची जारी होने के ठीक एक दिन पहले देर रात हुई बैठक में उनके नाम को काट दिया गया. कहा गया कि राज्य संगठन में फिलहाल इस वक्त डाॅ.रमन सिंह से बड़ा कोई चेहरा नहीं है. हालांकि सूत्र बताते हैं कि केंद्रीय मंत्रिमंडल में फेरबदेल के पहले आलाकमान ने बतौर राज्यपाल उनकी भूमिका तय की थी. उन्हें पंजाब या महाराष्ट्र की जिम्मेदारी दिए जाने का प्रस्ताव था, इस पर बात आगे नहीं बनी. इधर छत्तीसगढ़ में तस्वीर थोड़ी बदली नजर आ रही है. पिछले दिनों राष्ट्रीय सह संगठन महामंत्री शिवप्रकाश, प्रदेश प्रभारी डी पुरंदेश्वरी और सह प्रभारी नितिन नवीन ने अपने हालिया दौरे में मोर्चा-प्रकोष्ठों की समीक्षा बैठक में डाॅ.रमन सिंह को नहीं बुलाया. ऐसा पहली बार हुआ है जब किसी महत्वपूर्ण रणनीतिक बैठक में रमन सिंह शामिल नहीं हुए. ऐसे में संगठन के भीतर यह चर्चा आम रही कि इसके जरिए संगठन आखिर क्या संदेश देना चाहता है?