दिनेश कुमार द्विवेदी, मनेन्द्रगढ़. पति-पत्नी ने सात जन्मो तक साथ रहने की कसमें खाई थी… शादी के बाद संतान के लिए कई मन्नतें मांगी… लेकिन बेटे के जन्म के बाद होनी को कुछ और ही मंजूर था और 6 महीने बाद ही मासूम की मां की मौत हो गई. पिता पर मानो दुखों का पहाड़ टूट गया. करीब 1 साल बाद पता चला कि मासूम विकलांग है. इन सबके बावजूद इस पिता ने हार नहीं मानी और अपने बेटे को इस काबिल बनाया कि आज बेटा प्रधान पाठक बन अपना और पूरे परिवार का नाम रौशन कर रहा है.

हम बात कर रहे हैं छत्तीसगढ़ के मनेन्द्रगढ़ के हृदेश प्रसाद दुबे और उनके बेटे पवन की. इनकी कहानी न केवल प्रेरणादायक है बल्कि पिता के अदम्य साहस और ममता का मिसाल भी है. पवन के जन्म के छह महीने बाद ही उनकी मां, सावित्री देवी, का पीलिया के कारण निधन हो गया. इस दुखद घटना के बाद, हृदेश ने न केवल पिता, बल्कि मां की भूमिका भी निभाई.

पवन के एक साल का होने पर पता चला कि वह पैरों से दिव्यांग है. उसकी हड्डियां 18 बार टूट चुकी थीं, लेकिन हृदेश का हौसला कभी नहीं टूटा. पवन के तीन साल का होने पर, हृदेश ने उसे कंधे पर बैठाकर स्कूल लाना-ले जाना शुरू किया. धीरे-धीरे पवन बड़ा हुआ और कंधे पर ले जाना संभव नहीं रहा. आर्थिक संकट के कारण स्कूल बस की फीस भर पाना भी मुश्किल था, इसलिए हृदेश ने पवन के लिए एक रिक्शा का इंतजाम किया. पवन ने इस रिक्शे में बैठकर सरस्वती शिशु मंदिर मनेन्द्रगढ़ से 12वीं की पढ़ाई पूरी की और बाद में शासकीय विवेकानंद महाविद्यालय से स्नातक की डिग्री प्राप्त की.

आज पवन चैनपुर ग्राम पंचायत स्थित प्राथमिक शाला में प्रधान पाठक के पद पर कार्यरत हैं और ज्ञान का प्रकाश फैला रहे हैं. उनके पिता हृदेश प्रसाद दुबे, जो अब 74 वर्ष के हो चुके हैं, की दिन-रात सेवा करने में पवन कोई कसर नहीं छोड़ते.

लल्लूराम डॉट कॉम की टीम जब हेड मास्टर पवन दुबे से बातचीत के लिए उनके घर पहुंची, तो पवन के बचपन की तस्वीरें दिखाते हुए पिता हृदेश की आंखें भर आईं. उन्होंने रुंधे गले से बताया, “जब पवन छह माह का था, तो पत्नी का निधन हो गया. मैंने ही पिता के साथ-साथ मां की जिम्मेदारी निभाई. आज पढ़-लिखकर पवन शिक्षक बन गया है, अपने स्कूल का प्रधान पाठक है और मेरा इकलौता सहारा है. जैसे मैंने उस वक्त शिक्षा का महत्व समझते हुए उसे कंधे पर बैठाकर पढ़ाया, आज वह ग्रामीण बच्चों को शिक्षा की मुख्य धारा से जोड़ रहा है. इस बात की मुझे बेहद खुशी है.”

हृदेश प्रसाद दुबे पंडिताई का काम करते थे. आर्थिक तंगी के बावजूद उन्होंने अपने बेटे पवन को निजी स्कूल में शिक्षा दिलवाई. पत्नी के निधन के बाद हृदेश को बच्चे की देखभाल के लिए अधिक समय घर पर बिताना पड़ता था, जिससे वह कई काम के अवसर गंवा बैठते थे और आर्थिक संकट का सामना करते थे. फिर भी, उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और पवन को एक उज्ज्वल भविष्य देने में सफल रहे.

पवन दुबे और उनके पिता हृदेश प्रसाद दुबे की यह कहानी पिता के प्रेम, त्याग और अदम्य हिम्मत की अद्वितीय मिसाल है, जो हर किसी को प्रेरित करती है.