रायपुर। उम्र 16 वर्ष, शिक्षा 9वीं, उद्देश्य जन कल्याण और जीवन वैरागी. ये कहानी है नक्सल प्रभावित इलाका दंतेवाड़ा जिले के रहने वाले राहुल बुरड़ की. राहुल सपन्न परिवार से है. पिता प्रकाश चंद बुरड़ और माता ममता देवी का पुत्र राहुल घर का बड़ा लड़का है. राहुल ने जिस किशोर अवस्था में घर और संसार का मोह छोड़ने का फैसला लिया है, उस उम्र में बच्चे पढ़ने, घूमने-फिरने, अच्छा भविष्य बनाने के सपने देखते रहते हैं. लेकिन राहुल इस उम्र के आते-आते तक कुछ और ही देखने लगा था. वह देखता था सबकुछ छोड़ सन्यास जीवन जीने का सपना. वह देखता था मोह के बंधनों से मुक्त होने का सपना, वह देखता था खुद को वैरागी की तरह. और आज उसका यह सपना सच हो रहा है. राहुल अब सन्यास जीवन में प्रवेश कर रहा है. राहुल के वैरागी हो जाने का चुनाव उसके स्वयं का है. इस चुनाव को लेकर हमने राहुल से विस्तार से बात की.
पढ़िए राहुल के ही जुबानी, राहुल की कहानी….
बचपन से ही मैं वैराग्य जीवन की ओर आकर्षित होते रहा हूँ. मेरे मन में सन्यास भाव उत्पन्न होते रहते. लगता था जैसे जल्द से जल्द घर छोड़ दूँ, संसार के सभी मोह त्याग दूँ. और देखिए आज मैं सब त्याग रहा हूँ. यह मेरे जीवन का सबसे यादगर क्षण है. आज मुझे जीवन की सबसे बड़ी खुशी प्राप्त हो रही है. मैं अब सन्यासी हो रहा हूँ.
मुझे गुरुदेवों के सानिध्य में रहना खूब अच्छा लगता था. मैं अक्सर रहता भी था. यहाँ तक मैंने हैदराबाद में डॉ. रजनीश कुमार जी भी अध्ययन प्राप्त किया. स्कूली शिक्षा के दौरान ही मेरी रुचि वैराग्य की ओर रही. मैं किसी और क्षेत्र में जाने के बारे में सोचता ही नहीं था, मेरे मन में बस यही विचार आते कि मुझे सांसरिक जीवन को छोड़ देना है.
सच कहूँ मेरे इन विचारों को बल तब और भी मिला जब मुझसे पहले ही मेरे छोटे भाई ने दीक्षा प्राप्त कर सन्यास जीवन को ग्रहण कर लिया था. जिस समय मेरे भाई ने वैराग्य धारण किया था, उस समय उसकी उम्र 10 साल की थी. भाई के वैरागी हो जाने के बाद मैं भी अंदर ही अंदर वैराग्य को ग्रहण करने लगा था. मेरे भाई से पहले ही परिवार के 8 सदस्य भी सन्यास ग्रहण कर चुके थे. मुझे लगता था कि जन कल्याण के लिए सबसे अच्छा मार्ग सन्यास ही है. और मैंने भी यह दृढ़ निश्चय कर लिया कि अब सन्यासी ही बनूँगा.
मैं यह मानता हूँ कि मेरे माता-पिता बहुत भाग्यशाली हैं, जिनके दोनों ही पुत्रों ने साधू जीवन अपना लिया है. मम्मी कहती थि कि एक बेटे ने तो दीक्षा ले लिया और अब तुम भी…? मैं मुस्कुरा देता था. धीरे-धीरे परिवार के सभी लोगों ने मान लिया कि मेरे लिए सबसे उचित मार्ग वैराग्य ही है. वे मुझे दीक्षा दिलाने की ओर आगे बढ़े.
मेरा मानना है कि संसार की मोहमाया ऐसी है कि जिसमें आप डूबते चले जाओगे उसकी गहराई का कोई अंत नहीं है. इस जीवन को अपनाने में मुझे दु:ख नहीं हो रहा. मैं अपनी आत्मा का कल्याण करूंगा. गुरुदेव जैसा कहेंगे वैसा करूंगा. यह सब वैराग से ही होगा. हमारे आचार्य महाश्रमण के निर्देश है कि सद्भावना, नैतिकता नशा मुक्ति का संदेश लेते हुए. सबके प्रति हिंसा का भाव रखे. सभी से प्रेम से बात करें. सिगरेट, शराब आदि का सेवन ना करें. मैं तो यही कहूँगा कि आप किसी न किसी चीज का त्याग करें. त्याग का पद सबसे ऊंचा होता है.
देखिए वीडियो :
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