जयपुर। कचौरी की महक और उसकी अनेक वैरायटी आपको राजस्थान में मिलेगी, कहीं और नहीं. बात चाहे हींग कचौरी, खस्ता कचौरी, दाल कचौरी, कोटा कचौरी, कढ़ी कचौरी, प्यास या आलू कचौरी की हो राजस्थान के हर शहर में इनका स्वाद लिया जाता सकता है. लेकिन इन सबसे हटकर है शाही मावा कचौरी, जो जोधपुर को स्वाद में मामले में एक अगल पहचान दिलाता है.

कैसे बनी सबसे पहले ये शाही कचौरी

जोधपुर के 128 साल पुराने त्रिपोलिया बाजार जोधपुर शहर की सबसे पुरानी दुकान से इस मावा कचौरी को इजात किया गया. जो वल्र्ड फेमस जायका बन गई. छोटी सी दुकान से शुरू हुआ यह कारोबार करोड़ों तक पहुंच गया है. शाही मावे की कचौरी सबसे पहले किसने और कैसे बनाई, ये कहानी भी रोचक है.

बात है करीब 1920 की… जयरामदास (दुकान के मालिक) जब 12 साल के थे, तो परिवार के साथ जाजीवाल से जोधपुर शहर आ गए. यहां त्रिपोलिया के कंदोई बाजार में रावतजी की मिठाई की दुकान हुआ करती थी, जयरामदास ने जोधपुर आते ही रावत जी की दुकान पर कंदोई की नौकरी की. यहां उन्हें 6 रुपए सैलरी मिलती थी. जयरामदास के पोते जुगल किशोर ने बताया कि उनके दादा कचौरी समेत अन्य नमकीन बनाते थे.

इसी दुकान पर बैठे-बैठे उन्होंने मैदे की रोटी में तीखा मसाला की जगह मीठा मावा डाल दिया और घी में फ्राई किया. जब इसे दुकान मालिक और खुद ने टेस्ट किया तो स्वाद अच्छा लगा. इसके बाद इसका टेस्ट बढ़ाने के लिए रावत जी और जयरामदास जी ने शक्कर और केसर से चाशनी तैयार की. इसके बाद इसे चाशनी में डालकर जब परोसा तो टेस्ट बढ़ने लगा. दोनों ने यह तय किया कि क्यों न इस मावे में कुछ चीजें ऐड कर इसकी स्टफिंग तैयार की जाए. इन तीनों आइडिया को मिलाकर जब इसे तैयार किया तो शाही मावा कचौरी का फॉर्मूला निकला….

1955 में वे अलग हो गए और त्रिपोलिया बाजार में ही उन्होंने अपनी मिठाई की दुकान खोल ली. इसी दुकान से शाही मावा कचौरी का स्वाद देश के साथ विदेशों तक भी पहुंचाया. इस मिठाई को जब लोगों के बीच परोसना शुरू किया तो उस समय इसकी रेट 6 आने थी. आज की महंगाई के हिसाब से इसे भाव बढ़ रहे हैं. जोधपुर का यह खास जायका यहां के राजपरिवार का भी फेवरेट है. फाइव स्टार होटल में आने वाले मेहमानों को भी मावे की कचौरी परोसी जाती है. दुकान मालिक बताते हैं कि आज भी राजपरिवार की फरमाइश पर यह खास कचौरी उनके लिए भेजी जाती है.

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