रायपुर. धान खरीदी में सूखत को लेकर नीतिगत खामी की वजह से राज्य सरकार को सालाना करीब 153 करोड़ रुपये का नुकसान हो रहा है. धान उपार्जन की मौजूदा नीति में सूखत के लिए वास्तविक प्रावधान न होने की वजह से ये नुकसान हो रहा है. अनुमान है कि पिछले दस साल में करीब 1800 करोड़ से ज़्यादा का नुकसान राज्य सरकार को हो चुका है. जानकार बताते हैं कि राज्य की जो धान खरीदी की नीति बनी है, उसमें केंद्र सरकार द्वारा दी जाने वाली राशि के उपयोग की व्यवस्था नहीं है. जिसके चलते ये समस्या हर साल आ रही है.
धान खरीदने से लेकर उसके मिलिंग के बीच में करीब 2 महीने राज्यों को धान का भंडारण करना पड़ता है. भारत सरकार के नियम के मुताबिक इसमें करीब 1 की सूखत आती है. लेकिन राज्य सरकार ने अपने नियम में सूखत का प्रावधान सोसाइटियों के लिए नहीं किया है. जिसके चलते वो एक प्रतिशत सूखत का क्लेम केंद्र सरकार से नहीं कर पाती है.
राज्य में धान खऱीदी में धान का डिस्पोज़ल दो तरीके से होता है. कुल खरीदी का लगभग आधा धान मार्कफेड के संग्रहण केंद्रों तक जाता है. जबकि आधा धान सीधे राइस मिलर्स को जाता है. राइस मिलों को ये धान समयानुसार जाता है. सरकार केवल मार्कफेड के संग्रहण केंद्रों तक जाने वाले धान पर सूखत का दावा करती है. जो धान राइस मिलों को जाता है, उस पर कोई दावा नहीं किया जा सकता क्योंकि राज्य सरकार की नीति में सरकारी समितियों को सूखत की पात्रता नहीं है. जानकारों के मुताबिक कुल धान खरीदी का वास्तविक सूखत एक प्रतिशत से कहीं ज़्यादा है. जानकारों के मुताबिक सोसाइटियां कांटा झुकाकर औऱ बाज़ार से खरीदकर इसकी भरपाई करती हैं.
जानकार बताते हैं कि राज्य की धान उपार्जन नीति में सोसाइटियों को सूखत की पात्रता न होने की वजह से सालाना 153 करोड़ रुपये का कुल नुकसान हो रहा है. यदि सराकर को अपनी खामियों को दूर करे तो किसानों का शोषण होगा. सोसाइटियां सूखत की भरपाई करती हैं, वे भी रुकेगा.