रायपुर। छत्तीसगढ़ की राजनीति के आधार स्तंभ यहां के मूलनिवासी आदिवासी हैं। साथ ही सतनाम धर्म के सतनामी समाज। यही वजह है कि सियासी दल इनके आराध्य भूमि से पार्टी का हित साधने की कोशिश करते रहे हैं, कर रहे हैं और करते रहेंगे। भूतकाल के पन्ने नहीं खोलूंगा बात वहीं से शुरू करता हूँ जहां 2018 में होने वाले चुनाव की शुरुआत पार्टियां कर चुकी है। मार्च 2015 में कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष राहुल गांधी गिरौदपुरी पहुँचे थे। उन्होंने सतनामी समाज के संत गुरू घासीदास की तपोभूमि में गुरू गद्दी का दर्शन कर समाज के बीच यह संदेश दिया था कि कांग्रेस परंपरागत रूप से सतनामी समाज के साथ रहा है और हमेशा रहेगा।
जून 2017 भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह शहीद वीरनारायण सिंह की जन्मभूमि सोनाखान पहुँचे। छत्तीसगढ़ के प्रथम शहीद का गुणगान करते हुए अपनी पार्टी को आदिवासियों का सच्चा हितैषी बताया। सोनाखान के करीब ही अमित शाह सतनामी समाज के संत गुरू घासीदास की तपोभूमि गिरौदपुरी भी पहुँचे। शाह ने गुरू गद्दी का दर्शन किया, आरती उतारी लेकिन वे यहां बोले कुछ नहीं। घासीदास की तपोभूमि पहुँचकर यह बताया गया कि राष्ट्रीय स्तर पर सतनामी समाज के साथ बीजेपी खड़ी है। और लीजिए इसी कड़ी में अब छत्तीसगढ़ के नए कांग्रेस प्रभारी बनाए गए पीएल पुनिया का दौरा गिरौदपुरी और सोनाखान होने जा रहा है। पीएल पुनिया भी आदिवासी और सतनामी समाज के बीच पहुँचकर अपनी नई जिम्मेदारी की शुरुआत प्रदेश की राजनीति में करने जा रहे हैं।
भले यह दलील हर दल की ओर से दी जाति हो कि राजनीति जाति आधारित नहीं होनी चाहिए। लेकिन जाति आधारित राजनीति ना हो तो सियासी दलों का अपना वजूद समाप्त हो जाएगा। लिहाजा वजूद को बनाए रखने के लिए समाज के बीच समाज के साथ नेताओं का खड़ा रहना जरूरी है।हालांकि प्रदेश की राजनीति के आधार स्तंभ दोनों ही समाज से भले ही कुछ नेताओं का भला होता दिख जाए, लेकिन समाज का कितना भला और किस तरह हुआ इसका आंकलन जरूर होना चाहिए। बस्तर हो या सरगुजा दोनों ही जगह आदिवासी समाज की स्थितियों पर चिंतन होना चाहिए।
शहीद वीरनारायण सिंह का गुणगान करने वाली राजनीतिक पार्टियां वीरनारायण के सिंद्धांतों पर कितनी खरी उतरी इसे भी देखना जरूरी है। खबर तो ये है कि जिस ज़मीन के लिए वीरनारायण शहीद हुए उसी सोनाखान से सोना निकालने के लिए उसे बेच दिया गया है। ना सिर्फ सोनाखान के जंगल उजाड़े जाने की तैयारी है, बल्कि उजाड़ आदिवासियों के बीच कितना हुआ है इसे सरगुजा, कोरबा, रायगढ़, बस्तर के भीतर देखना चाहिए। जहां खदानों ने आदिवासियों के जीवन को स्वर्ग नहीं नर्क बनाया है। आदिवासियों के बीच कितने आदिवासी अपनी जमीन गंवाकर पूंजीपति बने है इसकी भी सूची तैयार होनी चाहिए।
बस्तर के भीतर एक देव सर्वमान्य रूप से सबके पूज्यनीय रहे हैं वो है प्रवीरचंद भंजदेव । क्या उस देव के रूप हम बस्तर को ढाल पाए हैं, क्या उस देव के अनुरूप ही आदिवासियों का विकास कर पाए हैं इसका भी तो कोई सोशल ऑडिट होना चाहिए। वैसे देखना तो ये भी चाहिए कि गुण्डाधूर किस लिए अंग्रेजों से लड़े थे। गुण्डाधूर के संघर्षों की झांकी राजपथ में दिखाकर सम्मानित होना क्या सही मायने में आदिवासियों का सम्मान है। क्या बस्तर अभी जैसा दिखता है वैसा ही गुण्डाधूर ने अपने संघर्षों के दौरान देखा रहा होगा। सियासी दलों को गुण्डाधूर के संघर्षों की गाथा को पढ़नी चाहिए।
वैसे हमें यह भी तो देखना चाहिए कि नया रायपुर में क्या गुण्डाधूर या शहीद वीरनारायण कहीं किसी पथ पर दिखता है ? क्या इनके नाम पर कोई एकात्म पथ है? यह भी ढूँढा जाना चाहिए कि सियासी दलों के पृत-पुरुषों की तरह कितनी चौक-चौराहों पर आदिवासी और सतनामी समाज के शहीदों की प्रतिमाएं लगी है। ये भी तलाशा जाना चाहिए कि स्मार्ट सिटी वाले शहरों में कितने चौक-चौराहा प्रदेश के संत-महात्माओं के नाम पर है।
यह भी देखना चाहिए कि छत्तीसगढ़ के भीतर में शहीद वीरनारायण, गुण्डाधूर, प्रवीरचंद भंजदेव, संत गुरू घासीदास की तस्वीरें सरकारी आदेशों में जारी हुआ या नहीं, यह भी देखना चाहिए पाठ्यक्रम में शामिल है या नहीं, यह भी ढूंढा जाना चाहिए इनसे जुड़ी किताबें लाइब्रेरी में है या नहीं ? इसलिए नहीं होगा क्योंकि ये तमाम शहीद किसी राजनीतिक दल के पृत-पुरुष नहीं रहे हैं।
सच तो ये है कि सतनामी समाज के आरक्षण 16 से 12 पहुँच गया। आदिवासियों की जनसंख्या भी लगातर घटते जा रही है। संरक्षित जनजाति बैगा, कोड़ुक की स्थिति और भी ज्याद खराब है। सबसे दुःखद पहलु यह भी है कि राजनीतिक रूप से समाज को प्रतिनिधित्व तो मिला, लेकिन समाज से राजनीति में आने वाले नेता भी समाज को तरक्की नहीं दिला पाए या यह भी कहे कि सतनामी समाज और आदिवासी समाज के शहीदों के साथ सच्चा न्याय नहीं कर पाए। ऐसे में ये सवाल तो उठेगा ही ना कि गिरौदपुरी और सोनाखान से आशीर्वाद किसे और क्यों मिले ?