वैभव बेमेतरिहा। पूँजीपति तो पूँजीपति ही होते हैं. उनके पास संपत्ति कितनी भी हो अगर कहीं से कोई मुफ्त में चीजें मिल रही है वो तो उसे लेने से हिचकते नहीं है. सरकारी संपत्ति या कहिए सरकार को चुनने वाले आम आदमियों की संपत्ति पर चुने हुए प्रतनिधियों का अधिकार तो समझ में आता है लेकिन हारे या पद से बेदखल हुए जन-प्रतनिधि भी जब सरकारी संपत्ति का मोह न छोड़े तो हैरानी भी होती है…हंसी भी आती है. यकीन नहीं होता जिनके पास बंगले, गाड़ी की कमी न हो वो भी किस तरह से सरकारी बंगले और गाड़ी के मोह में बेशर्मी के साथ पड़े रहते हैं.
वैसे आप इसे देश भर में समझ सकते हैं. लेकिन मैं छत्तीसगढ़ के संदर्भ में इस पर सवाल कर रहा हूँ. छत्तीसगढ़ के भीतर कई से ताकतवर पूँजीपति नेता हैं जिनके पास रहने के लिए न बंगलों की कमी है और न ही घूमने के लिए गाड़ियों की कमी. लेकिन फिर भी वे बड़े सरकारी बंगले में रहना चाहते हैं. सरकारी गाड़ियों में ताम-झाम के साथ घूमना चाहते हैं. नेतागण अभूतपूर्व से भूतपूर्व हो गए लेकिन टशन वैसा ही रखना चाहते हैं जैसे सत्ता में रहते रहे हैं.
वैसे इस बेशर्मी को नजर अंदाज तब की स्थिति में किया ही जा सकता है जब वाकई आपके रहने के लिए एक भी घर न हो, आप पैसे के लिए मोहताज हो, आप कर्जदार हो, आप गरीब हो. लेकिन यहाँ भूतपूर्व मंत्री गण अभूतपूर्व बने रहने के लिए निजी अथाह संपत्ति के रहने के बाद सरकारी संपत्ति में ऐसो-अराम से लग्जरी लाइफ जीना चाहते हैं. वैसे अब के नेताओं में गिने-चुने होंगे जो नैतिकता के साथ सादगीपूर्ण तरीके से राजनीति में रहना चाहते हो, सेवा भाव से जीवन जीना चाहते हो, त्याग या समर्पण की भावना रखते हो. यही आज का लोकतंत्र है.
लेखक- टीवी पत्रकार