रायपुर. राज्य सरकार ने एक योजना शुरु की है. जो किसानों और डेयरी करने वालों के बीच में काफी लोकप्रिय साबित हो रही है. ये योजना है 12लाख रुपये में 15 गायों और भैंसों के साथ डेयरी शुरु करने की. सरकार ने इसे एकीकृत डेयरी परियोजना का नाम दिया है. लेकिन इस योजना पर ग्रहण के बादल मंडरा रहे हैं. योजना का लाभ लेने वाले कई किसान जानकारी और दूसरी व्यवस्थाओं के अभाव में परेशान हैं. 

बड़ी संख्या में इस योजना से जो डेयरियां खुली हैं, वो सफल होने की बाट जोह रही हैं. इस व्यवसाय शुरु करने वालों को समझ नहीं आ रहा है कि कैसे डेयरी को फायदे में ले जाएं. उन्होंने डेयरी की आमदनी को कागज़ पर देखा था तो अच्छी आय थी, अब आय गड़बड़ा गई है. दरअसल, जो किसान इस योजना में डेयरी खोल रहे हैं, उनको डेयरी से होने वाली लाभ से ज्यादा पचास फीसदी की सब्सिडी लुभा रही है.

राज्य सरकार की सब्सिडी का फायदा उठाने के लिए किसान लोन ले रहे हैं. सब्सिडी के चक्कर में किसान सस्ते जानवर ले आ रहा है और ये जानवर बजाय डेयरी को आगे बढ़ाने के लिए उस पर बोझ बनते जा रहे हैं. किसान सस्ते के चक्कर में बिहार, झारखंड और ओड़िशा से सस्ती गाय ले आए हैं. जिसकी उत्पादकता काफी सीमित होती है. इन गायों के साथ सबसे बड़ी दिक्कत होती है कि दूध का उत्पादन तेज़ी से गिरता है.

मस्तुरी, मुंगेली,रायगढ़, महासमुंद, जशपुर और सरगुजा क्षेत्र में  किसान उड़ीसा और बिहार के दलालों के चक्कर में आकर जो गाय खरीद बैठे हैं, वो दो महीने बाद ही 5 से 7 लीटर रोज़ाना पर आ गई. किसानों का कहना है कि जब इन गायों को खरीदा गया था.तब दलालों ने 10 से 12 लीटर दूध का उत्पादन दिखाया था. इसके बाद दूध में तेज़ी से गिरावट देखी गई. सूरजपुर और जशपुर के इलाकों में भी ऐसी ही गाय सप्लाई होने की ख़बर है.

इसके बाद दूध बेचने की बड़ी समस्या है. छत्तीसगढ़ में देवभोग की पहुंच पूरे राज्य में नहीं है. ऊपर से उसकी कीमत काफी कम है. जो दूध देवभोग 42 रुपये लीटर बेचती है किसानों से औसतन 23 रुपये लीटर खरीदती है.चार रुपये का इस पर ब्याज़ दिया जाता है. स्थानीय स्तर पर गाय की दूध की कीमत 30-32 रुपये से ज़्यादा नहीं मिल पा रहा है.

दरअसल, सरकार ने योजना तो बहुत अच्छी और बाकी प्रदेशों की तुलना में जल्दी बनाई लेकिन ये योजना डेयरी में आने वाली समस्याओं को ध्यान में रखकर तैयार नहीं किया गया. जिसके चलते योजना का सही लाभ मिलता नहीं दिख रहा.

छत्तीसगढ़ की डेयरी को लेकर प्रमुख समस्या ग्रीन फोडर यानि हरे चारे की है. मैदान के कुछ इलाके को छोड़ दें तो हरा चारा मवेशियों को काफी कम खिलाया जाता है. सरकार ने इस स्थिति को बदलने की कोशिश नहीं की. सरकार को हरा चारा के उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए कुछ किसानों को प्रमोट करना था. लेकिन सरकार ने ऐसा नहीं किया. शुरु में सरकार ने इस योजना का एक कंपोनेंट हाइड्रोपोनिक्स चारा रखा था लेकिन बाद में उसे हटा दिया गया. हालांकि इस चारे में नमी की मात्रा ज़्यादा होती है. जो खेत में उगने वाले हरे चारे का विकल्प नहीं हो सकतीं.

सरकार अगर योजना के साथ कृषि की कोई योजना फोडर उत्पादन के लिए शुरु करती या हरा चारा पैदा करने के लिए सरकार ने बढ़ावा दिया होता तो हालात काफी बेहतर होते. आमल है कि प्रदेश में ज़्यादातर डेयरियों में हरा चारा मवेशियों के भोजन से गायब रहता है. जबकि पंजाब जैसे राज्यों में पूरी डेयरी हरा चारा पर निर्भर है.

हरे चारे का एक एडवांस वर्जन आया है. जिसे साइलेज या अचार कहते हैं. पंजाब के सभी डेयरी वाले अपने मवेशियों को इसे खिलाते हैं. अगर खुद उत्पादन किया जाए तो प्रति किलो ये 3 से 4 रुपये और मार्केट में 6 रुपये से लेकर 10 रुपये किलो के हिसाब से मिलता है. इस चारे की खासियत है कि पशुओं का दूध और स्वास्थ्य दोनों बढ़िया रहता है. साइलेज देने के बाद पशुओं को देने वाले दाने की मात्रा कम हो जाती है.

आंध्रप्रदेश और तेलंगाना जैसे राज्यों ने ग्रीन फोडर की उपलब्धता को लेकर साइलेज पर सब्सिडी दे रखी है. इससे साइलेज उत्पादन का वो हब बनता जा रहा है. जबकि छत्तीसगढ़ में केवल कोंडागांव में साइलेज का उत्पादन शुरु हो पाया है. सरकार इस मामले में बेदह उदासीन रही है. सरकार के अधिकारियों को लगता है कि योजना ही प्रदेश में डेयरी का भाग्य बदल सकता है, कुछ और करने की ज़रूरत नहीं है.

यही हाल पशु आहार के मामले में है. पशु आहार बनाने वाली दुनिया की नामी कंपनियों के प्रोडक्ट छत्तीसगढ़ में नहीं मिलते जो बेदह वैज्ञानिक तरीके से तैयार होते हैं. कारगिल और सीपी जैसी कंपनियों के नाम ज़्यादातर किसानों को मालूम तक नहीं है. यहां स्थानीय कंपनियों के फीड ही उपलब्ध हैं.

डेयरी को आगे बढ़ाने में वहां तैयार होने वाले गायों और भैंसों के बच्चों का बड़ा योगदान होता है. इसे मुनाफे का ब्याज़ माना जाता है. दरअसल, डेयरी में अच्छी नस्लें तैयार हों तभी डेयरी का फायदा पशुपालक को मिल पाता है. डेयरी में नस्ल सुधार के लिए एआई का कार्यक्रम चलाया जाता है. जिसमें कृत्रिम तरीके से मवेशियों का गर्भाधान कराया जाता है. मवेशियों में बढ़िया नस्ल के सीमेन से अगली पीढ़ी तैयार की जाती है. विभाग के डिप्टी डायरेक्टर एसके पांडेय ने बयाया कि सरकार प्रबंधन को देखते हुए ग्रामीण इलाकों में सामान्य किसानों को देसी नस्ल का सीमेन डलवाती है. जबकि जिनका प्रबंधन बढ़िया रहता है, वहां एचएफ और जर्सी जैसी ज़्यादा दूध देने वाली नस्लों का सीमेन डलवाती है. सरकार का सीमेन स्टेशन अंजोरा में है जो ”ए” ग्रेड का स्टेशन है. सरकार सारा सीमेन यहीं से तैयार कराती है.

इस मामले में छत्तीसगढ़ की तुलना देश के दूसरे राज्यों से करें तो छत्तीसगढ़ काफी पीछे है.एनिमल जेनेटिक्स के जरिए सरकार केवल एक ही दंभ भर सकती है कि उसके स्टेशन से तैयार सीमेन दूसरे राज्यों को भेजी जा रही है. लेकिन अगर जेनेटिक्स से नस्ल सुधार की बात हो या दूध की उत्पादकता बढ़ाने की बात हो तो छत्तीसगढ़ देश के सबसे पिछड़े राज्यों में गिना जाएगा. यहां जेनेटिक्स सुधार के लिए एआई सरकार की ओर से किया जाता है. लेकिन इसे करने वाले ज़्यादातर लोगों को नहीं मालूम कि वो जिस बुल का सीमेन लगा रहा है, उसकी क्या खासियत रही है. उस बुल के माता-पिता का क्या रिकार्ड है. जबकि दूसरे राज्यों में पशुपालकों को सेक्स सीमेन तक उपलब्ध है. जिसके आधार पर वे अपनी गायों से बछड़ियां ही लेते हैं. इसके अलावा पंजाब, गुजरात और महाराष्ट्र में सरकार एनडीडीबी और दूसरी संस्थाओं के ज़रिए नस्ल सुधार के कार्यक्रम चलाता है. जिससे बढ़िया और लाभप्रद नस्ल के मवेशी तैयार हों. एनडीडीबी ने ‘सुपीरियर एनिमल जेनेटिक्स’ सेग नाम का एक कार्यक्रम चलाया है जिसमें डेनमार्क के बुल का सीमेन भारतीय गायों में इस्तेमाल किया जा रहा है. लेकिन छत्तीसगढ़ में इसकी जानकारी तक नहीं है. अगर सरकार चाहती तो एनडीडीबी को प्रस्ताव भेजती. जिससे लोगों को इंपोर्टेड बुल का सीमेन मिलता. कर्नाटक, महाराष्ट्र, गुजरात और पंजाब जैसे राज्यों में पशुपालकों को कई कंपनियों के सीमेन खरीदने के विकल्प उसकी पूरी जानकारी के साथ उपलब्ध होते हैं. छत्तीसगढ़ में इसकी कल्पना नहीं की जा सकती.

दरअसल, सरकार का फोकस देसी नस्लों की तरफ है. देसी नस्लों को बढ़ावा देते-देते सरकार ये भूल चुकी है कि जिन संकर नस्लों के सहारे सरकार ने सालों तक देश के लोगों को दूध मुहैया कराया, उसके विकास पर सरकार के रुख से प्रतिकूल असर पड़ रहा है. एनडीडीबी के अधिकारी एसपी सिंह का साफ कहना है कि अगर सिर्फ देसी नस्ल की ओर ध्यान दें तो हम दूध की ज़रुरत पूरी नहीं कर पाएंगे.

पिछले साल डेयरी और खेती को समझने के लिए कृषिमंत्री बृजमोहन अग्रवाल इज़राइल गए थे. वहां उन्होंने डेयरी भी देखी और खूब प्रभावित हुए. जबकि इज़राइल से ज़्यादा दूध उत्पादन वाली गाय पंजाब और कर्नाटक में है. अगर सरकार वहां से मवशियों को लाने को प्रोत्साहित करे तो पशुपालकों को काफी फायदा हो सकता है.

डेयरी उद्योग को बढ़ावा देने में वहां के पशुपालकों के संघ ने काफी बड़ा योगदान दिया. जबकि हमारे राज्य में ऐसा कोई संघ नहीं है. जो डेयरी के हक में अपनी बात सामने रख सके. पंजाब का संघ पीडीएफए न सिर्फ पशुओं को बढ़िया मवेशी और सीमेन मुहैया कराती है बल्कि सेमिनार और मेलों के ज़रिए पशुपालकों की जानकारी दुरुस्त करती है. छत्तीसगढ़ में गिर गाय के ऊपर कई किसान बहुत बढ़िया काम कर रहे हैं. लेकिन सरकार उन्हें लेकर भी कोई योजना नहीं बना पा रही है. दूध उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए पंजाब, यूपी, हरियाणा में मेलों का आयोजन होता है. जिसमें ज्यादा दुध देने वाली गायों को पुरस्कार दिया जाता है. राज्य में केवल कृषि मेले का आयोजन होता है. कोई भी गायों का मेला नहीं आयोजित होता.

पंजाब में डेयरी के आगे रहने की वजह सरकार से ज़्यादा ये संघ प्रोग्रेसिव डेयरी फेडरेशन एसोशिएशन है जिसने करीब 20 साल पहले ही इंपोर्टेट सीमेन का इस्तेमाल करके क्रांतिकारी बदलाव किये. उसने एबीएस और डब्ल्यूडब्ल्यूएस का सीमेन मंगवाकर अपने यहां गायों की बढ़िया ब्रीड तैयार की. जिसका नतीजा है कि डेयरी से ही किसान साल के करोड़ो रुपये कमा रहे हैं.

राज्य में जेके इंडस्ट्री का डेयरी का एक बड़ा डेयरी रिसर्च सेंटर है.जिसमें एंब्रियो ट्रांसप्लांट जैसी बहुत ही एडवांस टैक्नॉलाजी पर काम हो रहा है लेकिन दुर्भाग्य से उसे अपने काम के लिए गुजरात और हरियाणा जाना पड़ता है. क्योंकि राज्य सरकार इसे कोई सपोर्ट मुहैया नहीं कराती. ये हाल तब है जब राज्य सरकार ने डेयरी का अलग विश्वविद्यालय बनवा रखा है.