रायपुर। पहले क्रिस डेविस वापस हुए. उनकी शर्त थी कि उन्हें कश्मीर में मीडिया के साथ स्वतंत्र रूप से घूमने-फिरने दिया जाए, आम कश्मीरियों से बातचीत करने की आजादी दी जाए और हां, बिना सुरक्षा बल और पुलिस के शायद यह सोचकर उन्होंने यह शर्त रखी होगी कि इससे मोदी सरकार के कश्मीर में ॐ शांतिशांति के दावे पर ठप्पा लगाने में उन्हें मदद मिलेगी. लेकिन इस शर्त के बाद उनको दिया गया निमंत्रण पत्र ही वापस ले लिया गया.

इसके बाद उन्होंने भी निमंत्रण पत्र की प्रति के साथ मीडिया में एक बयान जारी कर कह दिया. नहीं बनना उन्हें मोदी सरकार के पीआर स्टंट का हिस्सा. इस बयान ने पूरे किए-धरे पर पानी फेर दिया. साफ हो गया कि यूरोपीय संसद के गुमनाम दक्षिणपंथी पार्टियों के उन सांसदों का, जिनकी अपने देश में ही कोई वक़त नहीं है, का कश्मीर में यह दौरा सरकार किसलिए करवा रही है. फिर भारत आये 27 सांसदों में से चार दिल्ली से ही लौट गए. क्यों लौटे? इस सरकार के पास कोई संतोषजनक जवाब नहीं है.

अब यह साफ है कि न तो ये यूरोपीय संसद का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं, न ही भारत सरकार के बुलावे पर आयोजित इनकी यह कोई सरकारी यात्रा है. लेकिन इन्हें मोदी महाराज की पूरी जानकारी में भाड़े पर एक अज्ञात एनजीओ ने, जिसकी कर्ता-धर्ता मादी शर्मा नामक एक दल्ली है, ने बुलाया है. उसी ने अपने निमंत्रण में लिखा है कि उनका खर्चा International Institute for Non-Aligned Studies नामक एक अन्य संस्था उठाएगी. गुटनिरपेक्ष आंदोलन में भारत का दखल और प्रभाव कब का खत्म हो गया है और संघ-निर्देशित यह सरकार तो गुटनिरपेक्षता के खिलाफ तनकर खड़ी है. लेकिन मजे की बात यह है कि मोदी राज में भी गुटनिरपेक्षता के नाम पर यह संस्था धड़ल्ले से चल रही है — भले ही कागजों में हो, और करोड़ों का फंडिंग प्राप्त कर रही है. दिल्ली में सफदरजंग स्थित इस संस्था के दरवाजे पर आज ताला लटका मिला. साफ है कि इस गैर-सरकारी प्रतिनिधिमंडल का पूरा खर्चा अपना चेहरा चमकाने के लिए यह सरकार ही उठा रही है. देश के भोले-भाले लोगों को यह समझ लेना चाहिए कि आर्थिक मंदी में फंसे होने के बावजूद यह सरकार देश के खजाने में जमा हमारे टैक्स को भड़वागिरी में खर्च कर रही है.

भारत की राजनीति और सरकार में दल्लों की कितनी घुसपैठ हो गई है, यह इसका एक उत्कृष्ट उदाहरण है कि भारत के घरेलू मामलों और विदेश नीति जैसे नीतिगत विषयों में भी वह दखल दे रही है और स्वयं प्रधानमंत्री इस दखलंदाजी में शामिल हो रहा है. इस दखलंदाजी में शामिल होते हुए न उसे कोई शर्म आई, न उसे अपने पद की गरिमा का अहसास रहा, न देश के संप्रभु संविधान की रक्षा का उसे कोई ख़याल आया और न ही कश्मीर समस्या के अंतर्राष्ट्रीयकरण होने के खतरे की उसे कोई चिंता हुई. अब यह सरकार भाड़े पर चलने/चलाने वालों की ही सरकार बनकर रह गई है, जो येन-केन प्रकारेण अपने कुकर्मों के औचित्य के लिए अंतर्राष्ट्रीय समर्थन बटोरना चाहती है.

कल ही संयुक्त राष्ट्रसंघ के जिनेवा स्थित मानवाधिकार आयोग के आयुक्त ने एक बयान जारी कर यह साफ कर दिया है कि वह कश्मीर मामले में मोदी सरकार के दावों के साथ सहमत नहीं है. कल 30 अक्टूबर को जब ये यूरोपीय सांसद पत्रकार वार्ता को संबोधित कर रहे होंगे, तो मोदी सरकार का बचाव करना उन्हें हास्यास्पद ही बनाएगा.