रायपुर। बस्तर में प्रस्तावित बोधघाट परियोजना को लेकर छत्तीसगढ़ किसान सभा ने राज्य की कांग्रेस सरकार पर बेहद गंभीर आरोप लगाया है. किसान सभा का आरोप है कि बोधघाट परियोजना पर कांग्रेस सरकार का असली मकसद केवल उद्योगों को बिजली और पानी देना और कॉर्पोरेट मुनाफा सुनिश्चित करना है और इसके लिए वह सिंचाई के नाम पर आंकड़ों का फर्जीवाड़ा कर आदिवासी समुदाय की सहमति हासिल करना चाहती है.

छत्तीसगढ़ किसान सभा के अध्यक्ष संजय पराते और महासचिव ऋषि गुप्ता ने कहा कि आदिवासी समाज और जन संगठनों की बैठक में सिंचाई संबंधी जो जानकारियां सरकार ने रखी है, वे भ्रामक और त्रुटिपूर्ण हैं. वैज्ञानिकों के अनुसार एक एकड़ धान की खेती के लिए औसतन 10000 घन मीटर पानी की जरूरत होती है. इस प्रकार यदि 3.67 लाख हेक्टेयर यानी लगभग 9 लाख एकड़ ( 1 हेक्टेयर = 2.5 एकड़) जमीन को सींचना है, तो 9000 मिलियन घन मीटर या 318 टीएमसी पानी चाहिए, जबकि इस परियोजना के जरिये इंद्रावती का 168 टीएमसी पानी ही उपयोग किया जा सकता है. किसान सभा नेताओं ने पूछा कि इस सरकार के पास ऐसा कौन-सा चमत्कार है कि वह 3.67 लाख हेक्टेयर भूमि को 318 टीएमसी की जगह 168 टीएमसी पानी से सींचकर खेती करवा देगी, जबकि इतने पानी से केवल 1.72 लाख हेक्टेयर खेती की ही सिंचाई हो सकती है. उन्होंने कहा कि इस परियोजना से कथित तौर पर लाभान्वित होने वाले गांवों और यहां होने वाली खेती के रकबे से यह आरोप साफ-साफ प्रमाणित होता है.

दंतेवाड़ा, बीजापुर और सुकमा के तीन जिलों के जिन 359 गांवों के सिंचाई से लाभान्वित होने का दावा किया जा रहा है, इन गांवों का सम्मिलित रकबा लगभग 5 लाख हेक्टेयर है और इन गांवों में मात्र 88000 हेक्टेयर में ही खेती होती है. इतनी कृषि भूमि के लिए 76 टीएमसी पानी की ही जरूरत होगी. उन्होंने कहा कि इन तीन जिलों की जैसी भौगोलिक स्थिति है, उसमें इन 359 गांवों तक नहरों का जाल भी नहीं बिछाया जा सकता, क्योंकि इसके लिए पहाड़ों को ही काटने की जरूरत होगी और ऐसा करना पर्यावरण विनाश के नए चक्र को जन्म देगा. साफ है कि सिंचाई से ज्यादा लगभग 100 टीएमसी पानी और 300 मेगावॉट बिजली उद्योगों को ही दी जाएगी.

किसान सभा नेताओं ने कहा कि यदि सरकार का प्राथमिक उद्देश्य इतनी ही भूमि की सिंचाई है, तो स्पष्ट है कि 30000 से ज्यादा आदिवासियों के विस्थापन, खरबों की संपत्ति के विनाश, 3 करोड़ से ज्यादा पेड़ों की कटाई के साथ जैव विविधता और वन्य प्राणियों के विलुप्तीकरण और हजारों करोड़ रुपयों के निवेश की कीमत पर यह परियोजना आदिवासियों के विनाश की कीमत पर कॉर्पोरेट विकास का ही मॉडल है.

किसान सभा ने कहा कि पूरी दुनिया का अनुभव यह बताता है कि प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के चलते पारिस्थितिकी और पर्यावरण में जो बदलाव आया है, उसके कारण अब बड़े बांध वहनीय नहीं रह गए हैं और मानव सभ्यता के लिए संकट का कारण बन गए हैं. बड़े बांधों की जगह अब विकेन्द्रीकृत सिंचाई योजनाओं को प्राथमिकता दी जा रही है. बोधघाट परियोजना भी इन्हीं कारणों से बंद की गई थी और अब इसे फिर से बाहर निकालना दुर्भाग्यपूर्ण है. यह परियोजना बस्तर के पूरे आदिवासी जन जीवन, सभ्यता और संस्कृति के विनाश का प्रतीक बनेगी.

किसान सभा नेताओं ने बस्तर की आम जनता, आदिवासी संगठनों और संस्थाओं, जागरूक बुद्धिजीवियों और जन प्रतिनिधियों से अपील की है कि इस परियोजना की आड़ में रचे जा रहे कुचक्र को समझें और खुलकर इसके खिलाफ अपनी आवाज़ बुलंद करें.