आजाद सक्सेना, दंतेवाड़ा। होली ज्यादा दिन दूर नहीं है. त्योहार के दौरान रंग-गुलाल का अपना ही महत्व है. ऐसे में हम आपको आदिवासी बहुत क्षेत्र दंतेवाड़ा में बिना किसी रसायन के बनाए जा रहे हर्बल गुलाल की जानकारी दे रहे हैं, जिसकी प्रदेश के कोने-कोने से मांग आ रही है. दंतेवाड़ा स्थित कृषि विज्ञान केन्द्र में बनाए जा रहे हर्बल गुलालसे महिला स्व-सहायता समूह को रोजगार मिल रहा है.

दक्षिण बस्तर के दंतेवाड़ा जिले में स्थित कृषि विज्ञान केंद्र में महिलाओं द्वारा बनाया जा रहा हर्बल गुलाल मानव स्वास्थ्य के अनुकुल है. इसके निर्माण में प्राकृतिक रंगों का इस्तेमाल किया जाता है. इसके लिए मुख्य रूप से सिंदूर, टेशू, चंदन, मेंहदी, कत्था, हल्दी और भाजियों का इस्तेमाल किया जाता है. रंगों का उत्पादन विभिन्न प्रक्रियाओं के तहत किया जाता है, जिसके बाद निस्कर्षित रंग को मक्का या अरारोट के स्टार्च से संयोजित कर हर्बल गुलाल हासिल किया जाता है. सभी काम महिलाएं अपने हाथ से करती हैं.

हर्बल रंगोली के निर्माण का काम सांई बाबा स्व-सहायता समूह-हारम, हिंगलाजिन स्व-सहायता समूह-कासोली झारा, नंदपुरीन माता स्व-सहायता समूह-झोडियाबाडम और गामावाडा की महिलाएं कर रही हैं.

कृषि विज्ञान केन्द्र में आज से चार वर्ष पूर्व हर्बल गुलाल का उत्पादन की शुरुआत हुई थी. पिछले वर्ष आदिवासी उपयोजना अंतर्गत राज्य के आठ कृषि विज्ञान केन्द्रों के वैज्ञानिकों को दंतेवाड़ा के कृषि विज्ञान केन्द्र की ओर से प्रशिक्षित किया गया, जिसके परिणाम स्वरूप वर्तमान में राज्य के लगभग सभी जिलों में हर्बल गुलाल का उत्पादन किया जा रहा है. इसका प्रमुख उददेश्य सुरक्षित होलीकोत्सव मनाना एवं महिलाओं हेतु आय सर्जक गतिविधि संचालित करना है.

बाजार में रसायनिक गुलाल की भरमार

बता दें कि बाजार में उपलब्ध गुलाल भारी रसायनिक तत्व युक्त होता है, जो मानव स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है. रसायनिक गुलाल में काॅपर सल्फेट होने के कारण आंखों में एलर्जी या अस्थाई अंधापन होने की आशंका होती है. इसी प्रकार क्रोमियम आयोडाइड के कारण ब्रोन्कियल अस्थमा एलर्जी एल्युमिनियम ब्रोमाइड की उपस्थिति से केंसर लेड ऑक्साइड से गुर्दे की विफलता एवं लर्निंग स्कील में कमी तथा बुध सल्फेट से त्वचा संबंधी विकार उत्पन्न होता है,. वहीं बुखार आने की आशंका रहती है. रसायनिक रंग त्वचा, आंख, बाल, कान आदि पर बुरा प्रभाव डालता है.