सुप्रीम कोर्ट (Suprem Court)ने स्पष्ट किया है कि गैंगरेप के मामले में यदि किसी एक आरोपी ने भी यौन क्रिया (पेनेट्रेटिव एक्ट) की है, तो सभी आरोपियों को दोषी माना जाएगा, बशर्ते उन्होंने एक समान मंशा से अपराध किया हो. कोर्ट ने गैंगरेप के दोषियों की सजा को बरकरार रखते हुए यह भी कहा कि अभियोजन पक्ष के लिए यह आवश्यक नहीं है कि वह यह साबित करे कि हर आरोपी ने पेनेट्रेटिव एक्ट में भाग लिया. भारतीय दंड संहिता की धारा 376(2)(g) के तहत, यदि गैंगरेप का मामला है, तो एक आरोपी के कृत्य के आधार पर सभी को दोषी ठहराया जा सकता है, यदि उन्होंने साझा मंशा के तहत कार्य किया हो. यह साझा मंशा इस धारा में निहित है.

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बार एंड बेंच की रिपोर्ट के अनुसार, न्यायालय ने कहा कि आईपीसी की धारा 376(2)(g) के तहत सामूहिक बलात्कार के मामलों में, यदि सभी आरोपियों ने साझा मंशा से अपराध किया है, तो एक आरोपी द्वारा किया गया बलात्कारी कृत्य सभी को दंडित करने के लिए पर्याप्त है. कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि इस धारा के अंतर्गत, यदि एक से अधिक व्यक्तियों ने मिलकर अपराध में भाग लिया, तो यह आवश्यक नहीं है कि हर व्यक्ति ने बलात्कार का कृत्य किया हो. केवल एक व्यक्ति द्वारा किया गया बलात्कार सभी को दोषी ठहराने के लिए पर्याप्त है, बशर्ते साझा इरादा सिद्ध हो. यह टिप्पणी मध्य प्रदेश में 2004 में एक महिला के अपहरण और गैंगरेप के मामले में आरोपी की सजा को बरकरार रखते हुए की गई. आरोपी राजू ने मध्य प्रदेश हाईकोर्ट द्वारा उसकी सजा को बनाए रखने के बाद सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की थी.

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सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा?

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि भले ही एफआईआर में केवल जलंधर कोल द्वारा बलात्कार का उल्लेख किया गया हो, पीड़िता ने अपने बयान में स्पष्ट रूप से राजू के भी बलात्कार में शामिल होने की बात कही है. न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि यदि यह मान लिया जाए कि राजू ने बलात्कार नहीं किया, तो भी वह सामूहिक बलात्कार के लिए दोषी होगा यदि उसने अन्य आरोपी के साथ मिलकर कार्य किया हो. कोर्ट ने प्रमोद महतो बनाम बिहार राज्य (1989) के मामले का उल्लेख करते हुए कहा कि ऐसे मामलों में यह आवश्यक नहीं है कि हर आरोपी द्वारा बलात्कार के पूर्ण कृत्य का स्पष्ट प्रमाण हो; यदि वे एकसाथ कार्य करते हैं और पीड़िता के साथ दुष्कर्म की मंशा में सहभागी होते हैं, तो सभी को दोषी माना जाएगा.

SC/ST एक्ट से राहत, लेकिन IPC धाराएं बरकरार

हालांकि, अदालत ने राजू की एससी/एसटी एक्ट की धारा 3(2)(v) के तहत दोषसिद्धि को रद्द कर दिया, क्योंकि यह सिद्ध नहीं हो सका कि अपराध पीड़िता की जाति के आधार पर किया गया था. अदालत ने पाटन जमाल वली बनाम आंध्र प्रदेश राज्य के मामले का उल्लेख करते हुए कहा कि जाति और अपराध के बीच एक स्पष्ट कारण संबंध होना आवश्यक है.

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कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि पीड़िता के प्रारंभिक और बाद के बयानों में कुछ भिन्नताएँ होने के बावजूद उसकी समग्र गवाही पर भरोसा किया जा सकता है. पीठ ने कहा कि साक्ष्यों में छोटे-मोटे विरोधाभास उसकी विश्वसनीयता को प्रभावित नहीं करते. इस प्रकार, पीड़िता की गवाही को मान्य माना गया, भले ही उसके पास कोई प्रत्यक्ष समर्थन न हो.

“टू-फिंगर टेस्ट” को फिर बताया अमानवीय

कोर्ट ने “टू-फिंगर टेस्ट” के उपयोग पर चिंता व्यक्त करते हुए इसे एक बार फिर से “अमानवीय और अपमानजनक” बताया. न्यायालय ने यह भी कहा कि किसी महिला का यौन इतिहास पूरी तरह से अप्रासंगिक है और यह पितृसत्तात्मक तथा लिंगभेदी सोच का प्रतीक है कि किसी यौन रूप से सक्रिय महिला की गवाही पर संदेह किया जाए. हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय दंड संहिता की सभी धाराओं में दोषसिद्धि को बरकरार रखा, लेकिन सह-आरोपी जलंधर कोल को 10 साल की सजा मिलने के कारण राजू की आजीवन कारावास की सजा को घटाकर 10 साल के कठोर कारावास में बदल दिया गया.

क्या था मामला?

घटना जून 2004 की है, जब पीड़िता एक विवाह समारोह से लौट रही थी. इस दौरान उसका अपहरण कर लिया गया और उसे विभिन्न स्थानों पर अवैध रूप से रखा गया. पीड़िता ने अपने बयान में बताया कि जलंधर कोल और राजू नामक दो व्यक्तियों ने उसके साथ बलात्कार किया. सरकारी वकील ने 13 गवाहों को पेश किया, जिनमें पीड़िता, उसके पिता और जांच अधिकारी शामिल थे. ट्रायल कोर्ट ने दोनों आरोपियों को गैंगरेप, अपहरण और अवैध बंदीकरण के आरोप में दोषी ठहराया, जिसके परिणामस्वरूप राजू को आजीवन कारावास और जलंधर कोल को 10 वर्ष की सजा सुनाई गई. हाईकोर्ट ने ट्रायल कोर्ट के निर्णय को बरकरार रखा, जिसके बाद राजू ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की, जबकि जलंधर कोल ने हाईकोर्ट के फैसले को चुनौती नहीं दी.