भारत के समाज में अनैक प्रकार की दृश्य अदृश्य गुलामियाँ हैं जो कथित तौर पर पढ़े लिखे पर सांस्कृतिक दृष्टि से अपढ़ और अज्ञानी आबादी के अंधकर्मकांडवाद में प्रतिदिन दिखती रहती हैं। झूठ,घूसखोरी, चोरबाजारी, बलात्कार,हिंसा के साथ समझौता करके.और चुप्पी साध कर जीने वाला पाखंडजीवी समाज स्वयं को परमधार्मिक मान जीने का अभ्यासी है। पुरुषों के साथ स्त्रियाँ भी इसमें पीछे नहीं हैं। दोनों में कौन ज्यादा है कहना मुश्किल।
स्त्रियों की अदृश्य गुलामी को लेकर प्रेमचन्द ने 1930 के आसपास अपना उपन्यास ग़बन लिखा। आज से तीस पैंतीस साल पहले, कलकत्ता की सड़कों पर चलते हुए नागार्जुन ने अचानक क्षुब्ध होकर विस्फोटक भाषा में मुझ से कहा- ये औरतें अभी दो सौ सालों तक और गुलाम रहेंगी। उनके दुर्वासा स्वभाव को.जानते हुए भी जब मैंने कहा- “क्या कोई मूँगफली कड़वी निकल आई”, प्रत्युत्तर में और भी कोप से भरकर कहा— (उस वक्त हम दोनों मूँगफलियाँ खाते चल रहे थे)— खाली डिग्रीधारी होकर जीवन समझा नहीं जा सकता। तुम ये साड़ियों, गहनों और चप्पलों की महँगी दूकानों को देख नहीं रहे रहे हो। जब तक ये इनमें उलझी और फँसी रहेंगी। इनकी आजादी असंभव बनी रहेगी।
उनके उस कहे के संदर्भ में जब मैं करवा चौथ आदि व्रतों को देखता हूँ तब मुझे.राजाराम मोहन राय, दयानंद, गाँधी और प्रेमचन्द एक साथ याद आते हैं। मै निजी तौर पर चिंतित हो उठता हूँ।
मेरी यह चिंता स्त्री समाज को शायद बेहद नागवार और अपराधपूर्ण लगे किन्तु मजबूर होकर.मुझे.यह लिखना पड़ गया।
(लेखक – विजय बहादुर सिंह)