अमित पांडेय, खैरागढ़। राजनांदगांव रियासत की पुरानी राजधानी रह चुका पांडादाह गांव न केवल ऐतिहासिक दृष्टि से समृद्ध है, बल्कि धार्मिक दृष्टि से भी इसका विशिष्ट स्थान है। यहां स्थित भगवान जगन्नाथ का मंदिर न सिर्फ छत्तीसगढ़ बल्कि अविभाजित मध्यप्रदेश का सबसे प्राचीन जगन्नाथ मंदिर माना जाता है। यह मंदिर न केवल स्थापत्य का अद्भुत उदाहरण है, बल्कि आस्था, परंपरा और विरासत का जीवंत प्रतीक भी है।


यह मंदिर पुरी स्थित भगवान जगन्नाथ मंदिर की तर्ज पर निर्मित है। यहां श्रद्धालु सदियों से विवाह, संतान सुख और मनोकामना की पूर्ति के लिए शीश नवाते आ रहे हैं। मंदिर से जुड़ी जनश्रुतियों और ऐतिहासिक प्रमाणों के अनुसार, यहां की परंपराएं विशिष्ट और गहराई से लोकविश्वास से जुड़ी हैं।

स्थानीय बुजुर्गों के अनुसार, वर्ष 1707 में कल्चुरी वंश की पराजय के बाद भोसले शासक बिंबाजी राव के काल में महंत प्रहलाद दास की भजन-कीर्तन मंडली पांडादाह पहुंची। उनके भजनों से अभिभूत होकर रियासत की पटरानी ने उन्हें सम्मान दिया और आदेश दिया कि जहां भी वे रुकें, वहाँ के मालगुजार उन्हें दो रुपये दान में दें। इस सहयोग से जमा राशि से महंत प्रहलाद दास ने मंदिर निर्माण की नींव रखी। उनके निधन के बाद शिष्य महंत हरिदास बैरागी उत्तराधिकारी बने। यही महंत आगे चलकर राजनांदगांव रियासत के पहले शासक भी बने और उन्होंने किला, मंदिर व अन्य स्थापत्य का निर्माण कराया। उनके बाद महंत घासी दास, बलराम दास और फिर दिग्विजय दास ने रियासत की सत्ता संभाली।
संतानहीनता का श्राप और गुरु-शिष्य परंपरा
ऐतिहासिक मान्यताओं के अनुसार, बैरागी राजवंश को संतानहीनता का श्राप था, जिसके कारण यहाँ गुरु-शिष्य परंपरा में ही गद्दी का हस्तांतरण होता रहा। मंदिर की सेवा और प्रशासनिक जिम्मेदारी भी इसी परंपरा से चलती रही।
एक ब्राह्मण महिला जीराबाई ने मंदिर को 300 एकड़ भूमि दान में दी, जो आज भी राजस्व रिकॉर्ड में “ठाकुर जुगल किशोर मंदिर” के नाम से दर्ज है। इसके अतिरिक्त लगभग 200 एकड़ जमीन और दान में मिली, जिसकी वर्तमान देखरेख रानी सूर्यमुखी देवी राजगामी संपदा द्वारा की जा रही है।
रथ नहीं, कांधों पर निकलते हैं भगवान – एक दिव्य स्वप्न और चेतावनी
यहां की सबसे अनोखी परंपरा है अरज दूज के दिन भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की कांधे पर यात्रा। मान्यता है कि महंत हरिदास को स्वप्न में भगवान ने आदेश दिया कि रथ में नहीं, उन्हें कांधे पर उठाकर मंदिर परिसर में परिक्रमा कराई जाए।
एक बार ब्रिटिश अधिकारी की ज़िद पर महंत बलराम दास को रथ यात्रा करनी पड़ी, लेकिन रथ यात्रा के अगले ही दिन उस अंग्रेज अफसर की मृत्यु हो गई। तब से आज तक यहां भगवान की यात्रा रथ पर नहीं, कांधों पर होती है। पुजारी और भक्त मूर्ति को कंधे में उठाकर मंदिर के भीतर पांच परिक्रमा कराते हैं।
धरोहर की तरह उपेक्षित, पर्यटन की अपार संभावनाएं
खैरागढ़ के घने वनांचल में बसे पांडादाह में न केवल यह मंदिर बल्कि त्रिकोणीय कुआं, संगमरमर की मूर्तियां, आमनेर नदी, सियारसुरी मंदिर और सांकरा का महामाया मंदिर जैसे कई दर्शनीय स्थल हैं। इतिहासकारों का मत है कि महाभारत काल में पांडवों ने यहां विश्राम किया था, इसीलिए इसे पहले पांडवदाह कहा जाता था, जो बाद में पांडादाह बन गया।इसके बावजूद, यह ऐतिहासिक गांव आज भी पर्यटन विकास और सरकारी संरक्षण की प्रतीक्षा में है।
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