विवेकानंद को लेकर केंद्रीय सरोकार का एक कारण और है. उन्हें भगवाधारी साधु के रूप में प्रचारित कर उनकी संकीर्ण कथित हिंदू राष्ट्रवादी मार्केटिंग हो रही है. हिंदू मुस्लिम इत्तहाद की आध्यात्मिक कोशिशों के बाद विवेकानंद कैसा हिंदुस्तान पाते हैं. विस्तार में जाए बिना गौमाता को बीफ बनाने हिंदुत्व की हिंसा परवान चढ़ी है. दादरी, बसाहड़ा, अखलाक, गोधरा, पहलूखान, व्यक्तिवाचक संज्ञाएं हैं. इन्हें भाववाचक संज्ञाओं की तरह ख्यातनाम कर दिया गया है. हालिया वर्षों में मनुष्य व्याकरण की व्यक्तिवाचक संज्ञाओं को भाववाचक संज्ञाओं, फिर सर्वनाम, फिर विशेषण में तब्दील करने की हिंसात्मक प्रविधि चल रही है. भिवंडी, सहारनपुर, गोधरा, मुजफ्फरनगर, समझौता एक्सप्रेस, ताज होटल वगैरह नफरत और हिंसा के विशेषण प्रतीक हैं. हिंसा, खूंरेजी, हत्या, बलात्कार, फिरौती, अपहरण जैसी गतिविधियां परत दर परत समाज की चिंता रेखाएं बनकर उसके चेहरे को विकृत कर रही हैं. जमे हुए दूध में खमीर उठाने ‘लव जेहाद‘, ‘घर वापसी‘, ‘हिंदू औरतों के कम से कम चार बच्चे‘, ‘फतवा‘, ‘काफिर‘, ‘खाप पंचायत‘, ‘पाकिस्तान जिंदाबाद‘, ‘पुलिसिया एनकाउंटर‘ कुलबुलाती रहती हैं. पंथनिरपेक्षता की न सूखने वाले घाव की पतली पपड़ी उखड़ती रहती है.

मौजूदा हुकूमत दोहरा आचरण जी रही है. देश की बड़ी और बुनियादी समस्याओं के लिए गांधी और नेहरू पर तोहमत लगाने में संकोच नहीं करती. जरूरत के अनुसार उनके नामों को अपनी छवि चमकाने के लिए उपयोग भी करती है. पाकिस्तान बनने, हिंदू मुस्लिम इत्तहाद को मुस्लिम तुष्टिकरण कहने, हिंदू भारत बनाने के बदले सेक्युलर हिंदुस्तान बनाने, हिंदू कानूनों में तब्दील करने, मुसलमानों के निजी कानूनों को यूं ही छोड़ देने, मुसलमानों को वोट बैंक बनाने जैसी तोहमतें लगाई जाती रही हैं. झूठ, अफवाह, निंदा और रूढ़ियों का सियासी असर धीरे धीरे जनता में होता ही गया. नकारात्मक वोट के आधार पर संकीर्ण हिंदुत्व की ताजपोशी हो ही गई. खुशहाल भारत, सामाजिक समरसता, सियासी परिपक्वता, सांस्कृतिक बहुलता, भौगोलिक एकता वगैरह के मुकाबले ‘लव जेहाद‘, ‘बीफ‘, ‘पाकिस्तान‘, ‘कश्मीर‘, ‘राम मंदिर‘, ‘गंगा‘, ‘गोमाता‘, ‘श्मशान बनाम कब्रिस्तान‘, ‘तीन तलाक‘, ‘समान नागरिक संहिता‘, ‘घर वापसी‘, जैसे भूकंप की तरह उथल पुथल कर लेते हैं. ताजातरीन मामला गोमांस या बीफ के बेरोक टोक खानपान और उसके निर्यात के साथ जातीय और धर्मगत विद्वेश का हो गया है. बीफ से ज्यादा इंसान के गोश्त के कारोबार की हविश बढ़ रही है.

विवेकानंद भारतीय नवजागरण के मध्यान्ह का सूर्य हैं. उनके शिकागो संबोधन के सौ वर्ष होने पर बहुत सावधानी और चतुराई के साथ विश्व हिंदू परिषद और संघ परिवार ने विवेकानंद का अपने विचारों का पूर्ण आत्मविश्वास के साथ अपनी भविष्यमूलक सियासी सम्भावनाओं को ध्यान में रखकर प्रचार कर दिया. ऐसी कोशिशों को पूरी तौर पर रद्द करना भी संभव नहीं है. विवेकानंद के कथनों में ऐसा बहुत कुछ है जिसे संदर्भ से हटाकर अथवा अलग तरह से व्याख्यायित कर उन्हें हिंदुत्व की अवधारणा के एक बहुत बड़े पोषक संरक्षक के रूप में समझाया और प्रतिष्ठित किया जाने पर मनाही नहीं हो सकती. इसके बावजूद यह समानान्तर या विकल्प में कहना जरूरी होगा कि विवेकानंद को इतने साधारणीकरण की प्रसरणशीलता में व्याख्यायित करना गंभीर प्रयास नहीं समझा जाना चाहिए. उनमें इतने विरोधाभास, विसंगतियां, विषमताएं और विश्वास के तरह तरह के स्पेक्ट्रम दिखाए जाते हैं कि विवेकानंद को तटस्थ, वस्तुपरक और आलोचकीय दृष्टि से समवेत रूप में समझ लेना या समझा देना चुनौतीपूर्ण बुद्धिजीविता का कार्य है. विवेकानंद मौजूदा वक्त में भी तटस्थ दृष्टि से व्याख्यायित नहीं किए जा सके हैं.

जब समाज सेवा के कंटूर धर्म के चेहरे पर उगाए, तो वह केवल हिंदू के लिए नहीं पूरे भारत के लिए थी. हिंदुओं को श्रेष्ठता मिलने का सवाल उनकी नजर में नहीं था. रामकृष्ण मिशन विवेकानंद द्वारा स्थापित संस्था है. वह उनकी वैचारिकी की उत्तराधिकारी है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके आनुषंगिक संगठनों ने विवेकानंद को ब्लैंक चेक समझकर उनके आदर्शों और विचारों और हिंदू धर्म के प्रति उनकी अवधारणाओं का राजनीतिक नकदीकरण का हस्ताक्षर करने में कोताही नहीं की, बल्कि सियासी कुषलता बरती है. उन्होंने विवेकानंद के साहित्य का जनवादी अध्ययन करने, उस पर सार्वजनिक विचार विमर्श करने, उसकी समाजमूलक व्याख्या करने और उसे जनउपयोगी साहित्य के जरिए प्रचारित करने में दिलचस्पी नहीं ली. ऐसा करने से उनकी हिन्दुत्व की समझ की लोक छवि को जनमानस द्वारा सम्भावित अनुमोदन की क्षति किए जाने की संभावना लगी होगी. इसलिए उन्होंने विवेकानंद के दैहिक व्यक्तित्व को उनके सोच का प्रतिनिधित्व प्रतीक बनाते उन्हें युवकों का रूमानी आइकॉन बना दिया. उन्हें यह बार बार बात याद दिलाया कि विवेकानंद एक मजबूत भारत चाहते थे. इसलिए देश स्वस्थ हो. युवकों के लिए यही आवश्यक है और उनमें मातृभूमि की भक्ति के लिए स्वस्थ शरीर की पर्याप्त योग्यता होनी चाहिए. वेद पुराण, गीता वगैरह के मुकाबले फुटबॉल खेलने की सलाह विवेकानंद ने खास संदर्भों में दी थी. उसे विकृत कर देने से विवेकानन्द का दैहिक चेहरा देश का अभीष्ट नहीं है. मुझे फौलाद की देह और वैसी ही धमनियां और नसें चाहिए-यह विवेकानंद ने जिस आध्यात्मिकता की तासीर के संदर्भ में कहा था, उसका प्रचार विवेकानंद को हिंदुत्व का प्रतीक बनाने की कोशिश करते दैहिक, दैविक, भौतिक ताप के अर्थों में करने लगते हैं.

हिंदू राष्ट्रवाद की परिकल्पना राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक केशव बलिराम हेडगेवार में विनायक दामोदर सावरकर के हिंदुत्व संबंधी विचारों और उनके लगभग गुरु रहे बी. एस. मुंजे के समानांतर फलसफा को पढ़ने समझने और हृदयंगम करने के बाद हुई. छात्र जीवन में कोलकाता में अरविंद घोष और बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय के कथित राजनीतिक राष्ट्रवाद से भी हेडगेवार प्रभावित रहे हैं. विवेकानंद का राष्ट्रवाद पूरी तौर पर संघ के सैद्धांतिक सोच और रणनीतिक क्रियात्मकताओं के खांचे में फिट नहीं बैठता. इसलिए राष्ट्रीय स्वयं संघ को विवेकानन्द से मूल नहीं, अतिरिक्त लगाव है. मुख्यतः सावरकर तथा उसी तरह के अन्य संकीर्ण कट्टरवादी हिंदुत्व विचारकों का सोच ही उनका बुनियादी वैचारिक प्रतिफलन है. हेडगेवार के उत्तराधिकारी माधव सदाशिव गोलवलकर की हिंदुत्व की दृष्टि में कई बार सावरकर की दृष्टि से टकराव होता भी कई विचारकों ने ढूंढ लिया है. गोलवलकर शुरू में कई कारणों से संघ का काम एक बार छोड़कर चले भी गए. विवेकानंद से प्रभावित होकर गोलवलकर ने विवेकानन्द के शिकागो व्याख्यान का मराठी में अनुवाद प्रकाशित किया. बाद में ‘वी आर अवर नेशनहुड डिफाइंड‘ नामक अपनी प्रसिद्ध पुस्तिका लिखी. उन्होंने रामकृष्ण मिशन के हिंदू धर्म संबंधी कुछ विचारों को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचार समुच्चय में बहुत चतुराई के साथ शामिल भी कर लिया. संघ ने भी गृहत्यागी किस्म के प्रचारकों के जरिए अपने विचार फलक का कार्यक्रम, प्रचार प्रसार और संगठनात्मक फैलाव की तकनीक विवेकानंद से भी प्रेरित होकर अडॉप्ट की.

विवेकानंद के हिन्दू धर्म संबंधी विचारों को संघ परिवार के हिंदुत्व का समानांतर नहीं माना जा सकता. हिंदुइज्म के बुनियादी आग्रहों की आंशिक और सावधान से तराशी गई अनुकूलता हिंदुत्व संबंधी हुंकारों में भी है. इसका ठीक उलट साध्य सही नहीं है कि जो कुछ हिंदुत्व का ऐलान आज चाहता है, मानो विवेकानंद ने उस विचार की पूर्व पीठिका रच दी होगी. हिंदू धर्म के प्रति अपने लगातार, प्रयत्नशील और आग्रहपूर्ण सरोकार के कारण विवेकानन्द उससे अपना तादात्म्य सबसे बेहतर वाचालता के भी साथ तो रच ही लेते हैं. इसलिए हिंदुत्व समर्थक विचार पक्ष मजबूती के साथ यही तर्क करता है कि विवेकानन्द में अंततः वैश्विक स्तर पर हिंदू राष्ट्र स्थापित करने की परिकल्पना के ही तो आग्रह रहे हैं. बाकी धर्मों के विचारों का समावेश करना उनका एक पूरक आग्रह भर रहा है. विवेकानंद को भारत पुत्र घोषित करते प्रतिरोधी विचार पक्ष दृढ़ता के साथ कहता है कि हिन्दू धर्म के सर्वोत्तम संदेषों के आग्रह के साथ साथ बुनियादी तौर पर वे देश निर्माण के लिए बल्कि विश्व के लिए भी धर्मों को संबोधित कर रहे थे. वे अपना वैचारिक तादात्म्य अपने कर्म के जीवन में ढूंढते हैं. केवल गाल बजाने में नहीं जो अन्य साधकों का नखरैला लक्षण होता दिखता है.

कांग्रेस के शीर्ष नेताओं और चिंतकों में विवेकानंद की छवि को लेकर सबसे ज्यादा अनुकूलता हासिल करने की इच्छा और चेष्टा तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह में रही है. अर्जुन सिंह के कारण रामकृष्ण मिशन बेलूर मठ में एक डीम्ड विश्वविद्यालय मिशन के प्रशासन के तहत खोला जा सका और उसके लिए केंद्र सरकार से अनुदान भी दिया गया. जब तक पश्चिम बंगाल में वामपंथियों की सरकार थी, ऐसा सोचा जाना रामकृष्ण मिशन के लिए लगभग असंभव रहा है. अर्जुन सिंह ने बाबरी मस्जिद के ढहा दिए जाने के बाद विवेकानंद के संदेशों के जरिए अनुकूल राजनीतिक परिस्थितियां बनाने के लिए भी कोशिशें की थीं. शिकागो धर्म सम्मेलन की शताब्दी समारोह को आयोजित करने में अर्जुन सिंह ने इस तरह के उपक्रम किए थे जिससे आक्रामक हिंदुत्व के पैरोकार विवेकानंद को पूरी तौर पर अपने प्रयोजनों के लिए हाइजैक कर उन्हें भविष्य के लिए हिंदू मुस्लिम एकता के संदर्भ में संदिग्ध ऐतिहासिक स्थिति में स्थापित नहीं कर दें.

संघ परिवार और भाजपा के बड़े नेताओं ने विवेकानन्द को शुरू से अपनी जिज्ञासा के आकर्षण-केंद्र में रखा है. नरेंद्र मोदी, लालकृष्ण आडवाणी, संघ के संस्थापक हेडगेवार, माधव सदाशिव गोलवलकर (गुरुजी) आदि रामकृष्ण मिशन और विवेकानन्द की गतिविधियों के तमाम केंद्रों से सक्रिय रूप से जुडे़ रहे हैं. उन्होंने इस बात का खुलकर काफी प्रचार भी किया है. एक निष्णात हिंदू के रूप में जागृत विवेकानंद शिकागो धर्म सम्मेलन में शामिल हुए थे. उन्हें अमेरिका का जनजीवन, ईसाइयत, धार्मिक दृष्य छटाएं और नागरिक समाज शुरू में बहुत आकर्षित करता रहा था. इसके बरअक्स उन्होंने भारत में अंधकार युग में जीने वाले गरीबों, अशिक्षितों और मध्यवर्ग के पस्तहिम्मत लोगों वगैरह को देखकर निराशा की बहुत कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त की थी. विश्व हिंदू परिषद और संघ परिवार की पूरी कोशिश है कि जो कुछ विवेकानंद ने अंततः खुद को संशोधित और समृद्ध करने के बाद कहा विशेषकर अमेरिका और यूरोप में, वह सब एक प्रतिबद्ध एकांगी हिंदू का यश है. वह अब परिवार के फिक्स्ड डिपाॅजिट में हिंदुत्व के हस्ताक्षर से जाना चाहिए. विवेकानंद के जीवन में हिंदू धर्म के सिद्धांतों के आधार पर ईसाइयत का भी मूल्यांकन करना एक थियोरेटिकल कार्य था. वास्तविक जीवन में विवेकानंद ने धर्म के तहत किए गए वर्णाश्रम और जातिवाद को अंततः खत्म करने की अपील कर गरीबों, पतितों, मुफलिसों के जीवन को उठाने का संकल्प लिया था. उस संकल्प ने भारत बल्कि दुनिया को अनुप्राणित किया. वही विवेकानंद होने का तात्विक अर्थ है.