पी. रंजन दास, बीजापुर। कभी चिरौंजी के लिए न केवल छत्तीसगढ़, बल्कि आसपास के राज्यों के व्यापारियों के लिए आकर्षण का केंद्र रहा बीजापुर का बासागुड़ा बाजार आज वीरान है. गांव की नेस्तनाबुत मकानें स्वतः इसकी गवाही देती हैं.

बीजापुर जिला मुख्यालय से करीब 41 किमी दूर बसे बासागुड़ा का साप्ताहिक बाजार साल 2005 सलवा जुडूम से पहले गुलजार हुआ करता था. ना सिर्फ चिरौंजी बल्कि इमली, महुआ, टोरा के विक्रय के लिए यह बाजार सुर्खियों में रहता था. अब बासागुड़ा बाजार की रौनक पहले जैसी नहीं रही. जुडूम के प्रादूर्भाव के साथ बाजार की चमक फीकी पड़ने लगी.

जुडूम से उपजे हालात से भयभीत गांव के लोग गांव छोड़कर जाने मजबूर हुए. हालात ऐसे बने थे कि बासागुड़ा लिब्रेेटेड जोन कहा जाने लगा. तालपुेरू नदी के एक छोर पर जुडूम शिविरार्थियों का कैम्प तो उस पार नक्सलियों की धमक. हिंसा-प्रतिहिंसा के बीच सैकड़ों लोगांे ने अपनी जमीन-जायदाद को वहीं छोड़ पलायन का निश्चय किया.

करीब डेढ़ दशक से ज्यादा समय बीतने के बाद भी बासागुड़ा गांव आज भी आबाद और बाजार गुलजार नहीं हो पाया है. इस बीच साल 2018 में सत्तासीन भाजपा को दरकिनार कर बासागुड़ा समेत बीजापुर विधानसभा में कांग्रेस सत्तासीन हुई. सरकार बदली, प्रतिनिधित्व के मुखौटे बदले, लेकिन बदली नहीं तो बासागुड़ा के बाशिंदों की तकदीर.

मूलतः कृषि बाहुल्य इस इलाके में आज भी एक चक्रीय फसल पर कृषक निर्भर है. गांव को बैलाडीला की पहाड़ियों से निकलने वाली तालपेरू नदी दो भागांें में विभाजित करती हैं, बावजूद धाराप्रवाह तालपेरू पर सिंचाई के लिए बांध और नहर की मांग पर मौजूदा सरकार, विधायक ने कभी गंभीरता नहीं दिखाई. नतीजतन एक फसल के बाद खाली समय में किसान पड़ोसी राज्य तेलंगाना में मिर्च तोड़ने की मजदूरी करने पलायन को मजबूर होते हैं.

वीरान हो चुके बासागुड़ा की व्यथा यही नहीं थमती, बल्कि गांव के कई मोहल्लों में आज भी लोग कच्ची सड़क पर लोग चलने को मजबूर हैं. बस प्रतीक्षालय गांव में बनने की बजाए गांव से बाहर एक से डेढ़ किमी दूर बना दिया है. अस्पताल तालपेरू नदी के उस पार बना है, जहां रात बे रात कोई बीमार पड़ जाए तो सुरक्षा बलों की अनुमति के बिना मरीज को अस्पताल ले जाना मुश्किल है. ऐसे में मशहूर साप्ताहिक बाजार में पसरे सन्नाटे में सरकारी घोषणाएं मुंह चिराती नजर आती हैं.

बहरहाल, निकट चुनाव में बीजापुर का बासागुड़ा गांव की व्यथा राजनीतिक दलों के लिए बड़ा चुनावी मुद्दा ना हो, लेकिन स्याह सच तो यही कि डेढ़ दशक से वीरान इस गांव की सुध लेने की जहमत मौजूदा अथवा पूर्ववर्ती सरकार ने नहीं उठाई. अगर उठाई होती तो शायद आज साप्ताहिक बाजार में रौनक नजर आती.

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