वैभव बेमेतरिहा

रायपुर. हमारे पुरखों ने क्या खूब काम किया होगा न ? तभी तो नदियों को जीवनदायिनी नाम दिया होगा न ! नदी न हो तो हमारा अस्तित्व ही क्या ? नदियों से ही जुड़ा है हम मानव का अस्तित्व. हमारी सभ्यता का विकास. नदी किनारे ही मानव समाज ने अकार लिया है. और नदियों ने हमारे जीवन को साकार किया है.

यही वजह है कि हम नदी को माँ कहते हैं. छत्तीसगढ़ में तो हम छत्तीसगढ़ महतारी की वंदना ही नदियों के नाम से ही शुरू करते हैं… अरपा पैरी के धार, महानदी हे अपार, इंद्रावती ह पखारे तोर पइँया, महूँ पावें परव तो भुइँया…जय हो जय हो छत्तीसगढ़ मइँया.

छत्तीसगढ़ मइँया के कोरा में अनेक नदियों का जन्म हुआ है. प्रदेश के सभी दिशाओं से नदियों का उद्गम हुआ है. और इन्हीं अनगिनत छोटी-बड़ी नदियों के बीच से है एक नदी ‘केलो’. केलो रायगढ़ की जीवनदायिनी नदी है. लेकिन आज केलो के जीवन पर ही संकट मंडरा रहा है.

औद्योगिक विकास ने रायगढ़ के साथ ही छत्तीसगढ़ को बहुत कुछ दिया हो, लेकिन बहुत कुछ छिन भी लिया है. छीनने की इसी प्रकिया के बीच केलो संघर्ष कर रही है. केलो उन नदियों में से एक है जो प्रदेश भर में सर्वाधिक प्रदूषण की मार को झेल रही है. केलो में कारखानों का रसायन युक्त पानी प्रवाहित होता है. शहर के अनेक जगहों से गंदे नालियों का पानी भी. केलो के पानी को आप देखकर आप कोयला का पानी भी कह सकते हैं. क्योंकि केलो के पानी का रंग अब काला ही नजर आता है.

बारिश के कुछ महीनो बाद ही केलो की धार पतली हो जाती है, कहीं-कहीं रुक भी जाती है, जैसे उम्र के अंतिम पड़ाव में आते-आते हम मानवों की हो जाती है. केलो की मौजूदा स्थिति को आप कोरोना की दूसरी लहर में पीड़ित किसी मरीज की तरह ही समझ सकते हैं. ऑक्सीजन और वेंटिलेटर सपोर्ट के बिना आज केलो को जीवित रख पाना कठिन है.

केलो के लिए ऑक्सीजन और वेंटिलेटर सपोर्ट मौजूदा वक्त में जिला प्रशासन बना है. जिला प्रशासन का नेतृत्व एक छत्तीसगढ़िया कर रहा है. एक ऐसा छत्तीसगढ़िया जिनका बचपन ही नदी, जंगल और पहाड़ों के बीच बीता है. वे नदियों के महत्व को बखूबी समझते हैं. और शायद मौजूदा परिवेश में इसे भी कि किसी अभियान को आगे कैसे बढ़ाना है. यही वहज कि ‘क से केलो’ के अभियान से रायगढ़वासियों में एक उम्मीद बंधी है कि ‘तारण’ केलो को तार लेंगे. लेकिन एक निमगा छत्तीसगढ़िया तो इस तरह के पुनीत कार्य में खुद को तर जाने के तौर पर देखता है.

वैसे अभियान के बीच इस बात को भी समझना होगा कि क से केलो तभी सफल है जब जिला प्रशासन के साथ इसमें भागी जन-जन की हो. लेकिन जन-जन की भागीदारी भी तभी हो सकती है जब प्रशासन भी पूरी ईमादारी के साथ अपनी जिम्मेदारी को सख्ती से निभाएं.

‘क से केलो’ के अभियान को किसी कार्यक्रम या महोत्सव तक सीमित रखने से काम नहीं चलेगा, बल्कि निरंतर नदी को बचाने गतिविधियाँ संचालित करनी होगी. महाआरती से नदियों के संरक्षण का महासंदेश तो गया है, लेकिन असल काम पहली प्राथमिकता में अभी प्रशासन का ही है. काम जिसे चुनौती कहना ज्यादा सही है. क्योंकि केलो को प्रदूषण मुक्त बनाने पर सख्त काम तो प्रशासन के जरिए ही संभव है.

ये और बात है कि जनभागीदारी के बिना कोई भी सामाजिक या सामुदायिक कार्य संभव नहीं. ऐसे में रायगढ़ के जन-जन को अपनी जीवनदायिनी माँ को बचाने के लिए आगे आना होगा. जनप्रतिनिधियों को भी राजनीति से परे जाकर नदी माँ के लिए हाथ से हाथ मिलाना होगा. और हम जैसे पत्रकारों के लिए भी जरूरी है कि ऐसे अभियानों से हमें जुड़ जाना होगा. जब हम दूसरे मुद्दों की तरह ही नदियों के सरंक्षण से जुड़े कार्यों को हर माध्यम में जगह देंगे. हम भी अपनी सामाजिक सरोकारों की जिम्मेदारी को लेकर सजग होंगे. ऐसे अभियानों पर पैनी नजर रखेंगे. तब उम्मीद है ‘क से केलो’ के बाद ‘क से नदियों का कल’ होगा, निर्मल, पावन, शुद्ध जल होगा. कितना मीठा फिर ये फल होगा, पुण्य कर्म से तब जीवन सफल होगा.