आशुतोष तिवारी, Lalluram Special. कर्रेगट्टा के जंगलों में आज सातवें दिन भी गोलियों की आवाज गूंज रही है. 10,000 जवान नक्सलियों का सबसे मजबूत गढ़ में हिड़मा, देवा, विकास, दामोदर, सुजाता जैसे खूंखार नक्सली कमांडरों को घेरे बैठे हैं. जवानों ने तय कर लिया है कि इस बार कोई वापस नहीं जाएगा. वहीं नक्सलियों का राशन घट रहा है, गोलियां खत्म हो रही है, हौसला टूट रहा है. अब नक्सलियों के पास दो ही रास्ते हैं, या तो जान देकर लड़ना, या फिर हथियार डालकर आत्मसमर्पण करना.
बहुत समय पहले की बात है… 1967 का साल था पश्चिम बंगाल के एक छोटे से गाँव नक्सलबाड़ी में दो साधारण से दिखने वाले मगर असाधारण सोच रखने वाले लोग चारु मजूमदार और कानू सान्याल एक सपना देख रहे थे. सपना किसानों को उनका हक दिलाने का. चारु मजूमदार कहते, क्रांति बंदूक से आएगी जो अमीर किसानों को लूटते हैं, उन्हें खत्म कर देना चाहिए.
कानू सान्याल समझाते, हमें किसानों को संगठित करना चाहिए, जमीन पर दावा करना चाहिए. असली ताकत जनता में है, गोली में नहीं. लेकिन सपनों की राह एक जैसी नहीं थी जहाँ मजूमदार व्यक्तिवादी थे, वहीं सान्याल जननेता बनकर उभरे और इसी वैचारिक टकराव से जन्मा नक्सलवाद.
समय बदला नक्सलवाद का जहर जंगलों के रास्ते धीरे-धीरे दक्षिण भारत की तरफ बढ़ने लगा छत्तीसगढ़ का बस्तर जो कभी शांति और हरियाली का प्रतीक था, नक्सलियों का नया ठिकाना बनने लगा. 1960 के दशक में आंध्रप्रदेश से कुछ असामाजिक तत्व बस्तर के भोपालपटनम इलाके में आए.
पहले ये लोग किसानों के मसीहा बनकर आए थे. फिर उनके हाथों में बंदूक आ गई और जंगलों ने खामोशी ओढ़ ली. धीरे-धीरे बस्तर के सैकड़ों गाँव खाली हो गए. गांवों में रात को दीये बुझने से पहले ही सन्नाटा पसर जाता. लोग डर के मारे अपने ही घरों में छुप जाते कभी जवानों की टुकड़ी गाँवों में आती तो बच्चों के दिल में डर उठता कहीं गोली न चल जाए.
2007 की बात है रानीबोदली कैंप पर नक्सलियों ने हमला किया. भोर का वक्त था जवान अभी सोकर उठे भी नहीं थे. अचानक चारों ओर से गोलियां बरसने लगीं. जवानों ने साहस दिखाया, लेकिन गोलियां खत्म हो गई. नक्सली पेट्रोल बम लेकर घुस आए. आग और धुएं में पूरा कैंप समा गया 55 जवान शहीद हो गए. बस्तर ने अपना सिर झुका लिया उस साल, कुल 200 जवान शहीद हुए. माओं ने बेटों को खोया. बहनों ने भाइयों को, पत्नी ने अपने सुहाग को. पूरा देश रोया था उस दिन.
बस्तर का जंगल नक्सलियों के लिए किला बन गया था. हर गर्मी का मौसम हर मार्च से जून का वक्त एक नया मातम लेकर आता था. 2010 में ताड़मेटला में 76 जवानों को घात लगाकर मार डाला गया. 2013 में झीरम घाटी में नेताओं के काफिले पर हमला हुआ. 2017 बुरकापाल, 2020 मिनपा. हर साल मौत के आंकड़े बढ़ते रहे.
लेकिन कहानी बदली 2023 से हालात बदलने लगे. जवानों ने कमर कस ली. सरकार ने साफ कर दिया है कि 31 मार्च 2026 तक नक्सलवाद का खात्मा करना है. 2024 नक्सलियों के लिए अभिशाप बन गया. 217 नक्सली मारे गए. 2025 की शुरुआत होते-होते 362 नक्सलियों को मिटा दिया गया. 318 घातक हथियार जवानों के हाथ लगे.
यही वो लोग हैं जो हर साल जवानों की हत्या करने में अपने मास्टर माइंड का उपयोग करते थे, लेकिन आज नक्सलियों की स्थिति को देखते हुए वह दिन दूर नहीं लगता, जब बस्तर फिर से खिलेगा. फिर से स्कूलों में बच्चें हसेंगे. जब जंगलों में बंदूक की नहीं, सिर्फ पक्षियों की आवाज सुनाई देगी.