ब्रह्मदेव शर्मा नहीं रहे
डा0 ब्रह्मदेव शर्मा यादें ही यादें छोड़ गए हैं। उनके सक्रिय जीवन और बौद्धिक विमर्श के लम्बे अनुभवों में मुझे शरीक होने का मौका मिलता रहा। जब मैं कांग्रेस पार्टी में था अपनी ही पार्टी के प्रदेश के नेताओं से विरोध झेलना पड़ता था। मेरे मित्र पूर्व सांसद अरविन्द नेताम और डाॅ0 ब्रम्हदेव शर्मा को बस्तर में संविधान की छठवीं सूची लागू कराने के आंदोलन को लेकर बेइज्जत किया गया। उन्हें पुलिस के साए में जबरिया बस्तर से रायपुर भेजा गया। स्टील कारखानों की स्थापना के विरोध में शासन के उकसावे में आकर उन्हें निर्वस्त्र तक किया गया। भाजपा और कांग्रेस दोनों के प्रादेशिक नेताओं की आंख की वे किरकिरी बने रहे। कलेक्टरी की नौकरी में भी मोटे झोटे खाकी रंग के कपड़े पहने बी.डी. शर्मा आदिवासी जीवन की संवेदनाओं में घुल मिल गए थे। गणित के अप्रतिम विद्वान होने के साथ साथ सामाजिक विज्ञान की उनकी समझ अपने पसंदीदा बौद्धिक इलाकों में नए वातायन खोलती थी। उनसे असहमत होना जिनके लिए आवश्यक रहा है वे भी उनकी तर्कशीलता के सामने बौने हो जाते थे। उनकी अध्यक्षता में लिखी भारत के अनुसूचित जाति तथा जनजाति आयोग की रिपोर्ट आदिवासी जीवन का कुतुबनुमा है।
डा0 शर्मा के अनुसार आदिवासी जीवन संवैधानिक, प्रशासनिक बौद्धिक प्रज्ञा के लिए उपलब्धि तथा पेचीदा सवाल भी रहा है। सरकारों ने संविधान की आयतों को ठीक से बनाया, पढ़ा तथा समझा तक नहीं है। संविधान में आदिवासियों के लिए समुचित मूल अधिकार परिभाषि्त ही नहीं हैं। महात्मा गांधी तक को आदिवासी समुदाय के संवैधानिक और भविष्यमूलक अधिकारों को लेकर आत्मसंघर्ष करने का समय नहीं मिला। उन्होंने ठक्कर बापा को आदिवासी इलाकों की सेवा के लिए अलबत्ता प्रतिनियुक्त किया था। संविधान सभा ने मूल अधिकारों तथा आदिवासी अधिकारों की उपसमिति का अध्यक्ष सरदार पटेल को नियुक्त किया था। मूल अधिकारों के लिखने की वर्जिश में उपसमिति की ऊर्जा खत्म हो गई। उपसमिति को आदिवासियों के अधिकारों का मामला सरदार पटेल के माफीनामे की इबारत के लिए छोड़ देना पड़ा। इसलिए संविधान सभा ने अंत में पांचवीं और छठी अनुसूची देष के विभिन्न आदिवासी बहुल जनसंख्या के क्षेत्रों के लिए अधिनियमित की।
पूर्वोत्तर आदिवासी इलाकों की छठवीं अनुसूची में पांचवीं अनुसूची के मुकाबले ज्यादा अधिकार हैं। पांचवीं अनुसूची बाकी राज्यों के लिए बनाई गई। डाॅ0 ब्रह्मदेव शर्मा को इन दोनों सूचियों की असरकारी और अपर्याप्त स्थितियों की सांख्यिकी जानकारियों से लैस चेतना थी। उन्होंने आदिवासियों को बरायनाम संवैधानिक अधिकार देने की संवैधानिक प्रतिबद्धता तक को अपर्याप्त बताया था। वे चाहते थे कि आदिवासी जीवन के समीकरण को संविधान प्रेरित शासकीय प्रकल्प बनाने के बदले आदिवासी संस्कृति की धमनभट्टी में पकाकर वह गरिमा गूंथी जाए जिसके आदिवासी हकदार हैं। ब्रह्मदेव शर्मा के लिए केवल जीने और जीवन जीने का भेद सुस्पष्ट था। मनुष्य होने की संस्कृतिमयता, गरिमा और उदात्तता के अंतर्निहित अवयवों को आदिवासी की देह में ढूंढ़ने के वे अद्भुत सूक्ष्मदर्शी मानवयंत्र भी थे।
मैं उनसे बहस मुबाहिसे और तर्क वितर्क का साक्षी, प्रतिभागी और नियामक भी रहा हूं। अपनी तल्खी में आदिवासियों के संवैधानिक अधिकारों और क्षितिज का मूल्यांकन करने में मुझे ब्रह्मदेव शर्मा की अंतर्दृष्टि का कायल होना पड़ा है। यह आदिम समुदाय अपनी अंतर्निर्भरता, पारस्परिकता, सहकारिता और सहभागिता का प्रागैतिहासिक आविष्कारक रहा है। यह डाॅ0 शर्मा की थीसिस थी। उनका कहना था कि संविधान और प्रशासन को इस बात का आडंबरपूर्ण आत्ममोह क्यों है कि वह पश्चिमी सभ्यता की इबारत में आदिवासी जीवन को सभ्य और शाइस्तगीपूर्ण बनाना चाहते हैं। आदिवासी जीवन में प्राकृतिक लेकिन पारमार्थिक दिखते गुण हैं। वे उनसे छीनकर उन्हें लगभग शहरी मनुष्य होने की तमीज़ के सांचे में ढालने के संवैधानिक आदेश या समझ से उन्हें इत्तफाक नहीं है। आदिवासी भूगोल और इतिहास में अन्योन्याश्रितता है। वह नागरी सभ्यता के इतिहास और भूगोल में नहीं है। आदिवासी के जीवन में मनुष्य बने रहने की आडंबररहित सिम्फनी है। वैसी अंतर्लय तथाकथित, संपन्न, विकसित और भद्रलोक की जीवन संगति में कहां है।
डा0 शर्मा झल्लाकर यह भी कहते कि आदिवासी को दिया भले कुछ नहीं जाए, छीना क्यों जा रहा है। विज्ञानचेता होने के नाते वे विकास की मशीनी कोशिशों के खिलाफ थे। नगरनार का संभावित इस्पात संयंत्र हो या बोधघाट बिजली परियोजना या शाल वनों के काटे जाने का कुचक्र, डाॅ0 शर्मा में बाहरी आदमी की तरह आदिवासियों पर अहसान करने की मुद्रा के बदले आदिवासी जीवन के आयाम में जीने की बेचैन कोशिश थी। जिरह करने की उनकी शैली पश्चिम के तर्कशास्त्र की जूठन नहीं थी जो विरोधी तर्कों के नकार को अपने तर्कों की पुष्टि मानती है। वे घंटों लोगों को सुनते थे। उन्हें अहसास कराते कि वे उनको सुनना और समझना चाहते हैं। अपने तर्कों में उबाल लाते लाते वे सहज, सचेष्ट और प्रखर बने रहने के बावजूद स्मित हास्य की स्थायी छबि से मुक्त नहीं हुए।
उन्होंने ईमानदार ऊष्मा से लबरेज़ किताबें लिखी हैं। उन्हें कई बार अपमान, उपेक्षा या अन्याय का शिकार होना पड़ा। हम जैसे लोगों ने उनके पक्ष में लिखने बोलने में कोताही नहीं की। वे समझदार बौद्धिक लेकिन जिद्दी और आग्रही रहे हैं। उनके लिए समझौता, क्षमा या विस्मरण यदि आचरण में ढाले जाएं तो वे आदिवासी हितों का जिबह करते हैं। बस्तर के राजनीतिज्ञों में अरविन्द नेताम ने उन्हें आधुनिक भावबोध के साथ समझा। चोटी के आदिवासी समझ के अंतर्राष्ट्रीय विद्वानों के साथ ब्रह्मदेव शर्मा की सचेष्टता रही है। उनकी यादें कोलाज़ बना रही हैं। व्यक्ति वह विचार है जो उद्यत जीता रहता है कि अपनी जगह पर स्थिर समय के आयाम में चलता भी रहे। बनवासी धड़कनों को जिन व्यक्तियों ने स्पंदन बनाकर रखा उनमें से एक अग्रज का निधन हो गया। मानव अधिकार का एक किला ढह गया।
ये लेख बिलासपुर हाईकोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता कनक तिवारी के फेसबुक पोस्ट से लिया गया है. हेडिंग के अलावा हम इसे ज्यों का त्यों प्रकाशित कर रहे हैं. आज ब्रम्हदेव शर्मा की पुण्य तिथि है.