स्पेशल रिपोर्ट…राजकुमार भट्ट
रायपुर।
 लोकसभा चुनाव की बिगुल फूंकने के साथ पार्टियों ने प्रत्याशियों की सूची जारी करना शुरू कर दिया है. छत्तीसगढ़ में लोकसभा चुनाव की शुरुआत  प्रदेश का प्रवेश द्वार  माने जाने वाले बस्तर लोकसभा सीट पर 11 अप्रैल को मतदान के साथ होगी.

दक्षिण छत्तीसगढ़ की आठ विधानसभा क्षेत्र को अपने में समेटे हुए बस्तर लोकसभा का इतिहास बताता है कि बस्तर के आदिवासी एक मतदाता के तौर पर अपनी जवाबदारी को  लेकर सजग हैं. आजादी के बाद जब पूरे देश में कांग्रेस का डंका बज रहा था, तब 1952 में हुए पहले चुनाव में बस्तर के मतदाताओं ने अपने महाराजा प्रवीरचंद्र भंजदेव की पसंद को सिरोधार्य करते हुए कांग्रेस के उम्मीदवार को दरनिकार कर महाराज की ओर से स्वतंत्र उम्मीदवार के तौर पर खड़े किए गए मुचाकी कोसा को जीत दिलाई. इसके बाद हुए चुनाव में कांग्रेस के प्रत्याशी सुरती किस्टैया ने जीत हासिल की, लेकिन यह आने वाले चुनाव के लिए अपवाद साबित हुआ. इसके बाद लगातार चुनाव में कांग्रेस को पटखनी खानी पड़ी. 1962 में स्वतंत्र उम्मीदवार के तौर पर लखमु भवानी, 1967 में झाड़ूराम सुंदरलाल और फिर 1971 में लंबोदर बलियार मतदाताओं का विश्वास जीतने में कामयाब रहे.

आपातकाल ने आदिवासियों को भी झकझोरा

वर्ष 1975 में इंदिरा गांधी के पूरे देश में आपातकाल लगाए जाने का भी वर्ष 1977 के चुनाव में असर पड़ा. बस्तर के लोगों ने कांग्रेस के साथ-साथ अन्य स्वतंत्र उम्मीदवारों को दरकिनार करते हुए पूरे देश के साथ सुर में सुर मिलाते हुए 1977 के चुनाव  में जनता पार्टी के उम्मीदवार को जीत दिलाई. जनता पार्टी के उम्मीदवार के तौर पर अचानक चुनाव परिदृश्य में डीपी शाह धूमकेतु के तरह आए और अगले चुनाव में गायब हो गए. इसके बाद केंद्र में जनता पार्टी सरकार के धराशायी होते ही बस्तर में देश की तरह इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस ने अपनी पकड़ जमा ली.

‘बस्तर टाइगर’ ने तोड़ा कांग्रेस का वर्चस्व

सन् 1980 में हुए चुनाव में पूरे देश की तरह बस्तर में भी इंदिरा कांग्रेस के पक्ष में जोर की हवा चली और लक्ष्मण कर्मा ने करीबन दो दशक के अंतराल के बाद कांग्रेस को सीट पर जीत दिलाई. इसके बाद तो ‘बस्तर के गांधी’ माने जाने वाले मनकु राम सोढ़ी के साथ मानो बस्तर कांग्रेस का गढ़ बन गया. लक्ष्मण कर्मा के बाद मनकु राम सोढ़ी ने 1984,  1989 और 1991 के चुनाव में जीत हासिल की. लेकिन इस दौर में एक शेर ने धीमे पांव क्षेत्र में दस्तक दे दी थी, जिसकी दहाड़ 1996 में सुनाई दी. बात कर रहे हैं बस्तर का टाइगर कहलाने वाले महेंद्र कर्मा की, जिन्होंने 1996 के चुनाव में स्वतंत्र उम्मीदवार के तौर पर जीत हासिल की. हालांकि, महेंद्र कर्मा बाद में लोकसभा चुनाव नहीं जीत पाए, लेकिन विधानसभा में उनकी पकड़ बरकरार रही.

बली दादा ने खेली लंबी पारी

बस्तर टाइगर महेंद्र कर्मा आने वाले चुनाव में भले ही अपनी सफलता दोहरा नहीं पाए, लेकिन उन्होंने भाजपा के लिए ऐसी जमीन तैयार कर दी, जहां आज तक कांग्रेस फिर से अपने पांव नहीं जमा पाई है. बतौर भाजपा प्रत्याशी बलिराम कश्यप बस्तर के आठों विधानसभो क्षेत्र के लोगों को पार्टी से जोड़ने में कामयाब रहे. बली दादा के नाम से प्रसिद्ध बलिराम ने 1998 में जीत हासिल कर अपने कामों से ऐसी पैठ बनाई कि अगले तीन लोकसभा चुनाव में कोई दूसरा उम्मीदवार उनको चुनौती नहीं दे पाया. यहां तक 2011 में उनके निधऩ के बाद उनके बेटे दिनेश कश्यप 2014 को भी जीत दिलाकर जनता ने आशीर्वाद दिया.

राहुल गांधी ने लगाया दीपक पर दांव

इस बार लोकसभा चुनाव में मामला जटिल है. विधानसभा चुनाव में मिले भारी जनसमर्थन से उत्साहित कांग्रेस इस बार भाजपा को पटखनी देने के लिए पहले से ही कमर कस चुकी है. कांग्रेस ने इस बार चित्रकोट विधायक दीपक बैज को बस्तर लोकसभा से टिकट दिया है. राहुल गांधी की व्यक्तिगत पसंद माने जाने वाले दीपक बैज क्या प्रदेश के प्रवेश द्वार पर भाजपा को रोकने में कामयाब होंगे. वहीं विधानसभा चुनाव में करारी हार झेलने के बाद लोकसभा चुनाव में भाजपा किस पर अपना दांव लगाती है. यह देखने वाली बात होगी.

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