डॉ. वैभव बेमेतरिहा, रायपुर. बस्तर… छत्तीसगढ़ के दक्षिणी छोर का एक ऐसा हिस्सा, जो नैसर्गिक सुंदरता, अपार खनिज संपदा से भरा हुआ है… जो जल, जंगल, नदी, पहाड़ों से घिरा हुआ है… जहां आधुनिक दुनिया से अपरिचित आदिम अबूझमाड़ है… जहाँ नक्सल हिंसा में दो पाटों के बीच पीसते आदिवासियों की पीड़ा और उजाड़ है.
बस्तर… जो राजनीति का अखाड़ा है… बस्तर…जो हालत का मारा है….बस्तर….जहां लोहे का सबसे बड़ा खदान है… बस्तर…जहां बेरोजगार आदिवासी नौजवान हैं…. बस्तर… जिसे लेकर सब यही कहते हैं…. यहाँ अमीर धरती के गरीब लोग रहते हैं…
इसी अमीर धरती के गरीब लोगों के बीच एक बार फिर चुनाव है…चुनाव… लोकतंत्र का है…चुनाव…लोकसभा का है. चुनाव आदिवासियों के मत का है….चुनाव नेताओं के जरिए आदिवासियों के किस्मत का है. चुनाव उस मत और किस्मत का… जहां शुरुआत राजनीतिक पार्टियों की हार और बिना दल वाले आदिवासी की जीत से हुई थी… जहां निर्दलीय समय-समय पर राष्ट्रीय दलों पर भारी पड़ते रहे…. जहां पार्टी से नहीं आदिवासियों के बीच निकले आदिवासी दिल्ली में संसद तक पहुँचते रहे.
इस रिपोर्ट में कहानी इसी बस्तर की… कहानी सन् 1952 के पहले चुनाव से लेकर 2024 में हो रहे चुनाव तक की. कहानी 6 बार के विधायक कवासी लखमा की….कहानी पहली बार चुनाव लड़ने वाले नए नवेले नेता महेश कश्यप की… कहानी बस्तर के सियासत की….कहानी नक्सल हिंसा के बीच अमन, चैन और मोहब्बत की..
आखिर क्या है मौजूदा समय में बस्तर का मिजाज ? आखिर किसके साथ हैं बस्तरवासी ? जीतेंगे महेश या फिर कवासी ? इसे समझने से पहले एक नजर चुनावी इतिहास पर…
चुनावी इतिहास
भारत में हुए पहले चुनाव के साथ सन् 1952 में बस्तर में लोकसभा का पहला चुनाव था. इस पहले आम चुनाव ने ही 70 साल पहले यह बता दिया था कि बस्तर के लोग चुनाव को लेकर शहरी मतदाताओं से कहीं ज्यादा जागरुक हैं. वे शिक्षित भले कम हो सकते हैं…विकास में पिछड़े हो सकते हैं… लेकिन चुनाव को लेकर कतई नहीं. यही वजह है कि बस्तरवासियों ने पहले आम चुनाव में कांग्रेस या अन्य राजनीतिक दल को छोड़कर निर्दलीय प्रत्याशी का चुनाव किया था. पहले आम चुनाव में बस्तर से निर्दलीय मुचाकी कोसा ने जीत हासिल की थी. मुचाकी ने 1 लाख 77 हजार से अधिक मत प्राप्त कर कांग्रेस प्रत्याशी सुरती को करीब डेढ़ लाख मतों से हरा दिया था. सुरती को करीब 36 हजार मत प्राप्त हुए थे.
निर्दलीय पड़ते रहे भारी
1952 के पहले चुनाव के बाद 1957 में कांग्रेस ने वापसी की. 52 का चुनाव हारने वाले कांग्रेस प्रत्याशी सुरती ने 57 के चुनाव में भारी अंतर से निर्दलीय उम्मीदवार बोदा दारा को करीब 1 लाख मतों से हरा दिया था. हालांकि इसके बाद कांग्रेस लगातार चार चुनाव हारी और निर्दलीय प्रत्याशी लगातार जीतते रहे. 62 में लखमू भवानी, 67 में सुंदरलाल और 71 में लंबोदर बलियार ने जीत दर्ज की थी. 71 के आते-आते कांग्रेस का ग्राफ लगातार नीचे जाते रहा और पांचवें नंबर तक पहुंच गई थी. 75 के आपातकाल के बाद 77 में हुए चुनाव में भारतीय लोकदल के रिगपाल केशरी शाह ने जीत दर्ज की थी. 77 के चुनाव में 71 में निर्दलीय जीतने वाले लंबोदर तब कांग्रेस से लड़े थे, लेकिन भारी मतों से हार गए थे.
कांग्रेस ने की शानदार वापसी
सन् 1980 में कांग्रेस ने शानदार वापसी की. 80 के बाद के लागतार चार चुनावों में कांग्रेस जीतती रही. लक्ष्मण कर्मा ने 80 के चुनाव में जीतकर कांग्रेस की वापसी कराई. इसके बाद बस्तर में कांग्रेस को मनकूराम सोढ़ी के तौर पर एक मजबूत नेता मिल गए थे. 84 के चुनाव में पहली बार उन्हें प्रत्याशी बनाया गया. मनकूराम ने जोरदार जीत दर्ज की. उन्होंने सीपीआई से चुनाव लड़ने वाले महेन्द्र कर्मा को भारी मतों से हराया था. इसके बाद लगातार 89 और 91 में जीत दर्ज करते हुए हैट्रिक का रिकॉर्ड बनाया. 91 में उन्होंने भाजपा के राजाराम तोड़ेम को हराया था. हालांकि 1996 में कांग्रेस को फिर से निर्दलीय उम्मीदवार से हार का सामना करना पड़ा. तीन बार के विजेता रहे मनकूराम अपने पुराने प्रतिद्वंदी मनेन्द्र कर्मा से बहुत कम अंतरों से हार गए.
भाजपा का बना गढ़
सन् 96 में मिली कांग्रेस की हार को जीत में बदल पाने में करीब दो दशक का वक्त लग गया. 2019 में बस्तर में कांग्रेस की वापसी दीपक बैज ने कराई थी. इस बीच 98 से लेकर 2019 तक बस्तर में कमल ही खिलता रहा. 98 में पहली बार बस्तर में भाजपा के लिए जीत का खाता बलिराम कश्यप ने खोला था. स्व. बलिराम बस्तर में भाजपा को स्थापित करने वाले नेता रहे. 98,99, 2004 और 09 में लगातार चार बार बलिराम ही जीतते रहे. 2011 में उनके निधन के बाद बेटे दिनेश कश्यप उपचुनाव में जीते और 2014 मोदी लहर में दूसरी बार जीतने में सफल रहे. 2019 के चुनाव में भी मोदी लहर के बीच विधायक रहते हुए कांग्रेस के दीपक बैज ने भाजपा प्रत्याशी बैदू राम कश्यप को हराया था.
कवासी लखमा, कांग्रेस प्रत्याशी
2024 में विधायक रहते हुए कवासी लखमा चुनाव लड़ रहे हैं. ठीक उसी तरह से जैसे बैज 2019 में विधायक लड़े थे और जीते थे. लखमा कोंटा सीट 6 बार के विधायक हैं. शिक्षित नहीं हैं, लेकिन बस्तर की राजनीति को उनसे बेहतर ढंग समझने वाला नेता इलाके में कोई और नहीं. नक्सल प्रभावित अंदरुनी इलाकों में कवासी लखमा की मजबूत पकड़ मानी जाती है. विशेषकर कोंटा, दंतेवाड़ा और बीजापुर विधानसभा क्षेत्र में. इसके साथ ही कुछ हद तक नारायणपुर विधानसभा में अबूझमाड़ और चित्रकोट विधानसभा में केशलूर इलाके में भी.
बस्तर में कांग्रेस के लिए लखमा एक करिश्माई नेता रहे. एक तरह से देखा जाए तो पार्टी के सबसे सफल नेता. 2013 में घटित झीरमघाटी नक्सल हत्याकांड के आरोपों से घिरे होने के बाद भी लखमा अपने विरोधियों को चकमा देते रहे. कोंटा सीट में 13 का चुनाव हो या 18 का या फिर 23 का, हर चुनाव में लखमा को हारता हुआ दिखाया और बताया गया, लेकिन अंत में जीत उन्हीं के हिस्से आती रही. शायद लखमा के इसी जादूगरी को भुनाने कांग्रेस हाईकमान ने मौजूदा सांसद और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष दीपक बैज को टिकट न देकर उन्हें उम्मीदवार बनाया है.
वैसे लखमा खुद चुनाव नहीं लड़ना चाहते थे. लखमा ने पार्टी से अपने बेटे हरीश के लिए टिकट की मांग की थी. हरीश बस्तर जिला पंचायत के अध्यक्ष हैं. लेकिन पार्टी ने बेटे की जगह पिता को चुनाव लड़ाना सही समझा. पार्टी के इस निर्णय को सफल परिणाम में कवासी बदल पाएंगे या नहीं 4 जून को पता चलेगा. फिलहाल अनूठे तरीके और विवादित बयानों के साथ उनका प्रचार अभियान जारी है.
लखमा प्रचार के दौरान कभी मुर्गा लड़ाते हैं…. कभी ईवीएम लेकर जनता के बीच चले जाते हैं. गोंडी और हल्बी भाषा में आदिवासियों को लोकतंत्र का मतलब समझाते हैं… तो शराब और पैसे की बात कहकर उन्हें रिझाते हैं…. मोदी सरकार की नकामी गिनाते हैं….तो कांग्रेस के 5 न्याय को भी बताते हैं. वादों और दावों के बीच लखमा भाजपा को चकमा देने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ रहे हैं. घर-घर जा रहे हैं, आदिवासियों संग खाना खा रहे…पैर रहे हाथ जोड़ रहे. बावदूज इसके बस्तर में लखमा रेस में अभी पीछे ही नजर आते हैं.
महेश कश्यप, भाजपा प्रत्याशी
लखमा रेस में पीछे हैं क्योंकि उनके आगे महेश हैं. महेश का पूरा नाम महेश कश्यप है. महेश की पहचान सहज-सरल आदिवासी के रूप में है. लेकिन इससे कहीं ज्यादा महेश की छवि अब धर्मांतरण के खिलाफ लड़ने वाले नेता के तौर पर क्षेत्र में बन चुकी है. महेश की राजनीतिक पृष्ठभूमि में बजरंग दल और विश्व हिंदू परिषद जैसे हिंदूवादी संगठन हैं. राजनीतिक यात्रा की शुरुआत ग्राम पंचायत सरपंच के रूप में हुई है. बस्तर में सरपंच संघ के अध्यक्ष भी रहे. राजनीति आगे बढ़ी तो भाजपा संगठन में पदाधिकारी बने. लेकिन इन सबके बीच कश्यप की सर्वाधिक चर्चा धर्मांतरण के मुद्दे पर एक आंदोलनकारी नेता के तौर पर रही. क्योंकि वे बस्तर सांस्कृतिक सुरक्षा मंच के संयोजक हैं. और इसी मंच के बैनर तले वे आदिवासियों के बीच जनजाति संस्कृति, रीति-रिवाज, परंपरा, धर्म-कर्म, हिंदुत्व और धर्मांतरण को लेकर सक्रिय हैं. एक तरह से संघ का जो मूल कार्य है उसी कार्य के लिए बस्तर में मजबूत सेवक और कार्यकर्ता हैं.
2023 विधानसभा चुनाव के दौरान बस्तर विधानसभा सीट से भी उनके नाम की चर्चा थी, लेकिन चर्चा को विराम अब जाकर लोकसभा चुनाव-2024 में लगा है. संघ और संगठन के समन्वय से महेश कश्यप लोकसभा के उम्मीदवार बने और चुनाव लड़ रहे हैं. हालांकि कवासी की तरह महेश कश्यप चुनावी चर्चाओं में नहीं हैं. प्रत्याशी के प्रचार से ज्यादा पार्टी के प्रचार की चर्चा है. चर्चा में मोदी और साय हैं.
भाजपा और कांग्रेस के इन दो प्रत्याशियों के साथ-साथ बस्तर सीट पर अन्य 9 और उम्मीदवार चुनाव लड़ रहे हैं. इन प्रत्याशियों में
- नरेंद्र बुरका (हमरराज पार्टी)
- कवल सिंह बघेल (राष्ट्रीय जनसभा पार्टी)
- आयतू राम मंडावी (बहुजन समाज पार्टी)
- फूलसिंग कचलाम (सीपीआई)
- शिवराम नाग (सर्व आदि दल)
- सुंदर बघेल (निर्दलीय)
- टीकम नागवंशी (गोड़वाना गणतंत्र पार्टी)
- जगदीश प्रसाद नाग (आजाद जनता पार्टी)
- प्रकाश कुमार गोटा (स्वंतत्र दल) शामिल हैं.
बस्तर में कुल 11 प्रत्याशियों के बीत सीधा मुकाबला कांग्रेस और भाजपा में ही है. अन्य दलों की भूमिका इस सीट पर उपस्थिति दर्ज कराने जैसे नजर आती है. एक दौर ऐसा भी जब बस्तर की जनता निर्दलीय उम्मीदवारों पर भरोसा करती थी. लेकिन 1996 के बाद से बस्तर सीट पर निर्दलीय प्रत्याशियों का वर्चस्व ही समाप्त हो गया है. बस्तर में 1952 से लेकर 2019 तक उपचुनाव मिलाकर कुल 18 चुनाव हुए हैं. इन चुनावों में भाजपा ने 6 बार, कांग्रेस ने 6 बार, निर्दलियों ने 5 बार और
1 बार भारतीय लोकदल ने जीत हासिल की है.
राजपरिवार का रहा सीधा असर
पहले आम चुनाव के साथ ही डेढ़ दशक तक बस्तर राजपरिवार का सीधा असर रहा है. 1952 से लेकर 67 तक के चुनाव में जीत-हार में बस्तर महाराजा रहे स्व. प्रवीर चंद्र भंजदेव के नाम और काम प्रभाव दिखते रहा है. आदिवासी उन्हें भगवान मानते हैं. मौजूदा समय में बस्तर राजपरिवार भाजपा के साथ है और वर्तमान राजा कमलचंद्र भंजदेव भाजपा के नेता हैं. हालांकि अब राजपरिवार निर्णायक भूमिका में नहीं है.
जातीय गणित
बस्तर अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित सीट है. बस्तर में 70 फीसदी आदिवासी आबादी है. इनमें गोंड, भतरा, मुरिया, माड़िया, हल्बा, धुरवा, जैसी करीब 36 जातियां शामिल हैं. इसके साथ ही ओबीसी वर्ग में साहू, यादव, देवांगन, ढिमर, धोबी जैसी कई जातियां हैं. जबकि सामान्य वर्ग में ब्राम्हण, मारवाड़ी, जैन, राजपूत जैसी भी जातियां शामिल हैं, जो कि व्यापारी वर्ग से होने के कारण अन्य जातियों में प्रभावशाली हैं.
लोकसभा चुनाव में भतरा समाज का दबदबा दिखता है. भाजपा जब-जब भतरा समाज से किसी नेता को उम्मीदवार बनाया भाजपा ने जीत दर्ज की है. स्व. बलिराम कश्यप का परिवार भी भतरा जाति से है. महेश कश्यप की जाति भी भतरा ही है. वहीं कवासी लखमा गोंड जाति में उपजाति माड़िया समाज से हैं. जातिगत आधार पर देखा जाए तो भतरा और गोंड जाति का ही वर्चस्व दिखता है.
बस्तर के जनजाति समुदायों में जाति आधारित भाषा, बोली, रीति-रिवाज और परंपराएं अलग-अलग हैं. इसी आधार पर समाज को साधने की कोशिश राजनीतिक पार्टियां करती हैं. सामाजिक तौर पर बैठकें की जाती है. बैगा, पुजारी, मांझी, पटेलों से संपर्क साधा जाता है. वर्तमान इसे गांवों में देखा जा सकता है.
मुद्दें
बस्तर में जल-जंगल-जमीन के बीच नक्सलवाद, शिक्षा, स्वास्थ्य, शुद्ध पेयजल, पलायन, रोजगार, विस्थापन, खनन जैसे मुद्दें दशकों केंद्र में है. लेकिन इन सबके साथ धर्मांतरण और हिंदुत्व का मुद्दा प्रभावशाली अधिक हो गया है. इसकी गूंज बस्तर के शहरी क्षेत्रों के साथ-साथ ग्रामीण और जंगल के अंदर तक भी है. भाजपा इसे भुनाने में बहुत हद तक सफल रही है. दूसरी ओर कांग्रेस पूंजीवाद, खनन और अधिग्रहण के बीच रोजगार को भुना रही है.
बस्तर लोकसभा क्षेत्र
बस्तर लोकसभा में कुल 8 विधानसभा सीटें हैं- बस्तर, जगदलपुर, कोंडागांव, चित्रकोट, नारायणपुर, बीजापुर, दंतेवाड़ा और कोंटा. इन 8 विधानसभा सीटों को मिलाकर क्षेत्र में कुल 14 लाख 66 हजार 337 मतदाता हैं. इनमें महिला मतदाता- 7 लाख 68 हजार 88 और पुरूष मतदाता- 6 लाख 98 हजार 197, जबकि तृतीय लिंग के 50 से अधिक मतदाता हैं.
आबादी अधिक, लेकिन सांसद नहीं
बस्तर में महिलाओं की आबादी पुरुषों से ज्यादा है. मतदान में महिलाओं की भागीदारी भी अधिक रहती है. बस्तर की महिलाएं चेतना संपन्न भी हैं. बावजूद इसके बस्तर की राजनीति में महिलाओं की भागीदारी कम रही है. राष्ट्रीय पार्टियों ने भी लोकसभा में महिलाओं को आगे नहीं किया. लोकसभा के 18 चुनाव अब तक हो चुके हैं. लेकिन अभी तक एक भी महिला बस्तर से सांसद नहीं बन पाई हैं.
प्रतीक्षा
बस्तर में इन तमाम गुणा-भाग, उठा-पठक के बीच 19 अप्रैल को मतदान है. मतदान की प्रतीक्षा में मतदाता हैं. क्योंकि उन्हें अपने नए सांसद का चुनाव करना है. चुनाव उस नेता का करना है जो दिल्ली में बस्तर के असल मुद्दों को उठा सकें, आदिवासियों के साथ न्याय कर सकें. अब देखिए कौन जीतेगा महेश या कवासी ? आखिर किसके साथ हैं बस्तरवासी ?
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