प्रयागराज। शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरानन्द ने महाकुंभ में धर्म न्यायालय का गठन किया। इस दौरान उन्होंने धर्म न्यायालय की आवश्यकता पर जोर दिया और धर्मादेश जारी करते हुए कहा कि एक समय था जब हमारे देश में न राज्य था, न राजा। न दण्ड था न दाण्डिक न्यायाधीश। धर्म सबके जीवन में था जिससे सारे समाज की परस्पर रक्षा हो जाती थी। समय बदला तो दुष्ट बलवानों ने निर्बलों को सताना शुरू किया। ऐसे में न्यायालयों की आवश्यकता पड़ी, राजा की आश्यकता हुई। इससे जनता को तात्कालिक रूप से लाभ हुआ पर धीरे-धीरे उसमें भी संवेदनशीलता की कमी आने लगी और आज वह न्याय कम और प्रोसीजर ज्यादा हो गया है। ऐसा हमने नहीं उच्चतम न्यायालय के किसी न्यायाधीश ने ही कहा है।

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धर्म न्यायालय की आवश्यकता पर दिया जोर

अविमुक्तेश्वरानन्द ने कहा कि समय-समय पर अलग-अलग सन्दर्भों में विधि विशेषज्ञों ने बताया है कि संविधान की धारा 14 धारा 25 के ऊपर अधिमान नहीं पानी चाहिए। अदालतों को यह तय नहीं करना चाहिए कि धर्म के आवश्यक तत्व क्या हैं? यह भी कि न्यायालयों को धार्मिक अभ्यासों व परम्पराओं में तब तक के सिवाय कोई हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। जब तक कि वह किसी बुराई अथवा शोषण प्रक्रिया को बढ़ावा न दे रही हों। संविधान की धारा 26 बी के अनुसार धार्मिक क्रियाओं के सम्पादन के अधिकार में अदालतों को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। साथ ही धर्म सम्बन्धित लाखों मुकदमे देश की न्यायालयों में लम्बे समय से लम्बित चल रहे हैं।

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परिवार न्यायालय की तरह धर्म न्यायालय भी आरम्भ करें

शंकराचार्य ने घोषित किया कि भारतीय न्यायालयों के भार को कम करने, उन्हें आवश्यकता पर धार्मिक विशेषज्ञता उपलब्ध कराने और धार्मिक मामलों को धार्मिक गहराई के साथ निर्णीत कराने के उद्देश्य से व्यक्तिगत स्तर पर एक धार्मिक न्यायालय का गठन किया जाता है और भारत के उच्चतम न्यायालय से भी अनुरोध किया जाता है कि परिवार न्यायालय की तरह एक धर्म न्यायालय भी आरम्भ करें, जहां धार्मिक मामलों का निपटारा हो सके। आज विषय स्थापना साध्वी पूर्णाम्बा जी ने किया। विषय विशेषज्ञ के रूप में डा अनिल शुक्ल, एस के द्विवेदी, रमेश उपाध्याय ने अपना उद्बोधन प्रकट किया। प्रमुख रूप से स्वामी श्रीमज्ज्योतिर्मयानन्दः जी तथा सन्त गोपालदास जी उपस्थित रहे।