– रुपेश गुप्ता

खैरागढ़ की जीत सिर्फ एक उपचुनाव में सत्ताधारी पार्टी की जीत नहीं है. बल्कि ये राज्य की राजनीति की दिशा को बतलाने वाले परिणाम हैं. चुनाव के वक्त ही इसे बीजेपी के राज्य में सबसे बड़े नेता डॉक्टर रमन सिंह ने 2023 का सेमीफाइनल करार दिया था. अगर ये माना जाए तो क्या इस सेमीफाइनल से 2023 के सियासी फाइनल की तस्वीर दिखने लगी है ? 

दरअसल, इस चुनाव के परिणामों के गंभीर विश्लेषण करने होंगे जिससे राज्य की राजनीति की दिशा को समझा जा सके.

स्व. देवव्रत सिंह के निधन के बाद खाली हुई खैरागढ़ की सीट पर उपचुनाव उत्तर प्रदेश समेत पांच राज्यों के चुनाव के बाद हुई थी. इन चुनावों में कांग्रेस को करारी हार का सामना करना पड़ा था. हर जगह बीजेपी का मनोबल बढ़ा हुआ था. ऐसे माहौल में उत्साह से लबरेज बीजेपी ने खैरागढ़ में अपनी पूरी ताकत झोंकने का फैसला किया.

बीजेपी ने रमन सिंह और बृजमोहन अग्रवाल जैसे दिग्गजों को खैरागढ़ के मैदान में उतार दिया. बीजेपी ने राष्ट्रीय स्तर के नेताओं को स्टार कैंपेनर बनाया. बीजेपी नेताओं का आत्मविश्वास उनके बयानों से झलकने लगा. जब वे अपने प्रचार में उत्तर प्रदेश और आसाम का हवाला देकर भूपेश बघेल को हारे नेता के रुप में पेश करने लगे. दोनों जगह भूपेश बघेल को पर्यवेक्षक बनाया गया था. कांग्रेस के कार्यकर्ता यूपी, पंजाब और उत्तराखंड के  परिणामों से मायूस थे.  

इस चुनाव में बीजेपी के लिए जीत का मतलब था 2023 के लिए बीजेपी को मनोवैज्ञानिक बढ़त. 2018 में भूपेश बघेल के सत्ता में आने के बाद से हर चुनाव में बुरी तरह परास्त होने के वाली बीजेपी को इस चुनाव में जीत के संजीवनी की ज़रुरत थी. जबकि पांच राज्यों में हारने के बाद कांग्रेस जीत सकती है, ये विश्वास हासिल करना बेहद ज़रूरी था. वरना 2023 के खराब होने का अंदेशा था. 

2018 में खैरागढ़ का चुनाव परिणाम और उनका उम्मीदवार कोमल जंघेल बीजेपी की उम्मीदों को जगाने वाला था. 2018 का पिछला विधानसभा चुनाव बीजेपी यहां एक हज़ार से कम वोट से जेसीसी के देवव्रत सिंह से हार गई थी. कांग्रेस यहां दोनों पार्टियों से 30 हज़ार वोट पीछे थी. बीजेपी की ताकत कोमल जंघेल की पकड़ और उनकी छवि भी थी. जबकि कांग्रेस की उम्मीदवार यशोदा वर्मा नई थीं.

कांग्रेस की ताकत उसका सत्ता में होना था, लेकिन जिस तरह से दोनों ही पार्टियों के लिए ये नाक का चुनाव था, सत्ता में होने का कांग्रेस को कितना फायदा हो पाता, ये सवाल बना हुआ था.

इन परिस्थियों में खैरागढ़ के चुनावी रण में भूपेश बघेल ने खुद को झोंक दिया और अपने चिरपरिचित अंदाज में आक्रामक संघर्ष की राजनीति का रास्ता चुना. खुद मोर्चे पर कमान संभाल ली. छह दिन में करीब 24 सभाएं की. हालात की गंभीरता के मद्देनज़र बेदह संजीदगी से मेहनत की. जिससे बाकी नेता और कार्यकर्ता मैदान में डटे रहें. उन्होंने चुनाव सिर्फ अपने मंत्रियों और संगठन के बड़े पदाधिकारियों के भरोसे नहीं छोड़ा बल्कि खुद मैदान में उतरे

भूपेश बघेल ने पब्लिक सेंटीमेंट को समझा और ज़िला बनाने का बड़ा चुनावी दांव चला. शहरी और कस्बाई वोटरों को साधने में इसने अहम रोल अदा किया. लेकिन ऐसा समझना कि वोट केवल इसी मुद्दे पर मिले, गलती होगी. क्योंकि 55 हज़ार वोटों का एक स्थानीय मुद्दे पर सधना मुमकिन नहीं था. 

दरअसल, खैरागढ़ में छत्तीसगढ़ का प्रतिनिधित्व करने वाली एक विधानसभा है. एक तरफ आदिवासी हैं. तो दूसरी तरफ साहू, कुर्मी और दूसरे ओबीसी, यहां अनुसूचित जाति के लोगों की भी संख्या है. बड़ी संख्या में किसान है. हर जगह से इन सबके वोट मिलना बताता है कि भूपेश बघेल सरकार के कामकाज और उनकी मेहनत ने भी असर दिखाया है.  

इस चुनाव में भूपेश बघेल का कामकाज दांव पर था. जनता ने उस पर मुहर लगाई है. भूपेश बघेल ने इस चुनाव में दिखाया कि कंबेंसी को कैसे साधा जाता है. भूपेश बघेल ने दिखाया कि संघर्ष की राजनीति कांग्रेस ही कांग्रेस की असली राजनीति हो सकती है. जिसमें 24 घंटे राजनीति करनी पड़ती है. हर रोज़ की लड़ाई में मुद्दे निकलते हैं. विकास की राजनीति को उन्होंने अपना मज़बूत हथियार बनाया. 

इस चुनाव ने एक बात स्थापित कर दी है कि कम से कम 2023 तक छत्तीसगढ़ की सियासत भूपेश बघेल के इर्द-गिर्द ही रहेगी. ये बाकी उपचुनाव की तरह नहीं था. बल्कि ये चुनाव रमन सिंह के घर में था. जिसे उन्होंने अपनी मातृभूमि कहा था. इससे पहले उन्होंने अजीत जोगी के घर मरवाही को भी फतेह किया है. खैरागढ़ के चुनाव में भूपेश बघेल ने दिखाया कि वो किसी चुनाव को कितनी संजीदगी से लेते हैं, और मेहनत करके उसे जीतते हैं.

इस चुनाव परिणाम ने बघेल को लेकर कई बातों को स्थापित कर दिया है. कांग्रेस की जीत ये जीत साबित करती है कि भूपेश बघेल की राजनीतिक दृष्टि,  सांगठनिक क्षमता और रणनीति कांग्रेस की आज सबसे बड़ी ताकत है. अगर टीएस खेमे को छोड़ दें तो उन्होंने हर गुट को अपने प्रदेश अध्यक्ष और मुख्यमंत्री के कार्यकाल में साधे रखा है. टीएस खेमे को लेकर वजहें अलग हैं. चर्चा है कि इस चुनाव में कांग्रेस के एक गुट ने एक आदिवासी को खड़ा किया लेकिन मामूली चुनौतियों के बीच भी भूपेश बघेल ने अपनी ताकत कम नहीं होने दी. 

भूपेश बघेल अपने 71 विधायकों के सेनापति हैं. अगले चुनाव में पार्टी को जिताने की ज़िम्मेदारी उनके कंधों पर है. सत्ता में आने के बाद से वे लगातार जीतते आए हैं. स्थानीय चुनाव के साथ ये चौथा उपचुनाव हैं. जिसमें वो जीते हैं. भूपेश बघेल जनता की नब्ज उनकी ज़रुरतों और अस्मिता से जिस तरह पकड़ते हैं, इस राजनीति में उनकी कोई सानी नहीं है. 

बीजेपी के पास एक हिंदुत्व का मुद्दा था. जिसे वो खेलती आई है लेकिन ये कार्ड भी अब नहीं चल पा रहा है क्योंकि भूपेश बघेल ने यहां उनके राम के बरस्क छत्तीसगढ़ के भांचा राम और मां कौशल्या का माहौल कर दिया है. इसे लेकर उन पर आरोप भी लग रहे हैं कि वे सॉफ्ट हिंदुत्व का कार्ड खेल रहे हैं, लेकिन उनका मानना है कि भाजपा का धर्म के मुद्दे पर ऐसे ही मुकाबला किया जा सकता है. 

अपने साढ़े तीन साल के कार्यकाल में उन्होंने बीजेपी के सांप्रदायिक के बरस्क स्थानीय अस्मिता को राजनीति में स्थापित करके इसे अपनी सबसे बड़ी ताकत बनाया है. पूरे प्रदेश में छतीसढ़िया माहौल बना हुआ है. ब्यूरोक्रेट्स और बीजेपी नेता छत्तीसगढ़ी में बात करने लगे हैं. तीन साल पहले कोई कल्पना कर सकता था कि आईएएस कॉन्क्लेव में मंच का संचालन छत्तीसगढ़ी में होगा. जिन छत्तीसगढ़ी व्यंजनों को सभी जानते नहीं थे, उसे भूपेश बघेल ने बाज़ार उपलब्ध कराया है. वो बड़े-बड़े आयोजनों और घरों में खाए और खिलाए जा रहे हैं.

भूपेश के आने से पहले यहां राजस्थानी, मारवाड़ी और गुजराती व्यंजन मिला करते थे, लेकिन अब लोगों के पास हर जिले में गढ़ कलेवा भी है, जिसमें छत्तीसगढ़ी भोजन लोग लाइन लगाकर कर रहे हैं. छत्तीसगढ़ी त्यौहारों को हिंदी के त्यौहारों के बराबर तवज्जो मिल रही है. इन सभी बातों ने जो स्थानीय स्वाभिमान जगाया है, उस माहौल को भूपेश बघेल बखूबी साधते हैं. इस चुनाव में इसका व्यापक असर दिखा है.

भूपेश के स्थानीय अस्मिता की राजनीति का कोई तोड़ बीजेपी के पास नहीं है. जब भूपेश बघेल लोगों के बीच पहुंचते हैं तो लोगों को एहसास होता है कि उनके बीच का कोई आया है. बीजेपी का कोई नेता ऐसा नहीं है जिसमें छत्तीसगढ़िया छवि को देखी जा सके. अलबत्ता बीजेपी अगर इस राजनीति को समझ ही नहीं पा रही है तो ये बड़ी चूक है. बीजेपी के मुद्दों में स्थानीयता पूरी तरह से गायब है. जबकि भूपेश बघेल की यही बात कांग्रेस की दूसरी सरकारों से आगे ले जा रही है कि उन्होंने यहां की मिट्टी की खूशबू को अपनी ताकत बनाई.