रायपुर. छत्तीसगढ़ कांग्रेस कमेटी के चुनाव अभियान समिति के अध्यक्ष व पूर्व केंद्रीय मंत्री डॉ चरणदास महंत ने नोटबंदी के फैसले को गलत बताते हुए कहा है कि वर्ष 2016 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश के नाम संबोधन में नोट-बंदी का ऐलान किया था। अपने संबोधन में उन्होंने इसके फायदे गिनाते हुए कहा था कि इससे भ्रष्टाचार, काला-धन, आतंकवादी गतिविधियों की फंडिंग और जाली नोटों की समस्या पर प्रभावी अंकुश लग जाएगा। लेकिन आरबीआई द्वारा जारी की गई रिपोर्ट ने नरेंद्र भाई के दावों की पोल खोल कर रख दी है। आरबीआई ने कहा है कि 99 प्रतिशत से ज्यादा नोट वापस आ गए हैं। इसका मतलब यह है कि नरेन्द्र मोदी द्वारा की गई नोट-बंदी पूरी तरह से विफल रही और अपनी तानाशाही दिखाने के लिए देश की अर्थव्यवस्था को जर्जर किया गया है।
पिछले दो सालों के दौरान देश के विभिन्न हिस्सों से मिल रही रिपोर्टें बताती हैं कि नोट-बंदी का विकास दर, निवेश और रोज़गार पर काफी नकारात्मक प्रभाव पड़ा है। प्रधानमंत्री ने तब इन नकारात्मक प्रभावों के बारे में कोई चर्चा नहीं की थी, उन्होंने तब केवल नोट बदलने में होने वाली परेशानियों का ही जिक्र किया था और कहा था कि किसी भी सही निर्णय में कठिनाइयाँ आती हैं और जनता से उन्हें 50 दिन का वक्त मांगते हुए कहा था कि 50 दिन बाद अगर आपकी परेशानियां दूर नहीं होंगी तो मुझे किसी भी चौराहे पर जूता मारना और जिंदा जला देना। अब मोदी जी को उन वादों को पूरा करने का समय आ गया है क्योंकि 50 दिन नहीं लगभग 2 साल से अधिक वक्त हो गया है। अब नरेन्द्र मोदी को देश से माफी मांगना चाहिए। वैसे नोटबंदी से यह जरूर हुआ कि पिछले एक साल में डिजिटाइजेशन की प्रक्रिया में काफी तेजी आई है लेकिन नोटबंदी पर प्रधानमंत्री के पहले संबोधन में इसकी भी कोई जिक्र नहीं था। इससे यह प्रमाणित होता है कि इनकी नीति और नीयत दोनों में संदेह है।
डॉ चरणदास महंत ने नोटबंदी के कारण हुए प्रभावों के कुछ बिंदुओं पर प्रकाश डाला है –
1. नोट-बंदी का अर्थव्यवस्था की विकास दर पर पड़े नकारात्मक प्रभाव को तो अब हर कोई मान रहा है। अंतर बस इसके परिमाण को लेकर है। इससे विकास दर लगभग दो फीसदी कम हो गई। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी कई बार यह बात कह चुके हैं।
वैसे जानकारी के अनुसार पिछली कई तिमाहियों की विकास दर के आंकड़े के आधार पर इसके नकारात्मक प्रभाव का आकलन करते हैं। 2016 में जनवरी से सितंबर के बीच की तीन तिमाहियों में अर्थव्यवस्था की विकास दर क्रमश: 7.9, 7.9 और 7.5 फीसदी थी। सरकार को तब उम्मीद थी कि आने वाली तिमाहियों में विकास की दर और तेज होगी लेकिन इस बीच नवंबर में नोट-बंदी की घोषणा के बाद की तीन तिमाहियों में विकास दर केवल 7.0, 6.1 और 5.7 फीसदी रही है, जो सरकार की विफल व्यवस्था को दर्शाता है।
2. सरकार ने नोट-बंदी के जिन नुकसानों की चर्चा नहीं की थी उनमें दूसरा सबसे अहम रोज़गार रहा है। महाजनों का कोष खत्म हो जाने और बैंकों की ख़स्ता हालत के चलते इसका सबसे ज्यादा प्रभाव असंगठित क्षेत्र पड़ा। इसमें छोटी विनिर्माण इकाइयां और सेवा क्षेत्र के व्यवसाय सबसे ज्यादा प्रभावित हुए। ग्रामीण अर्थव्यवस्था जो मूलत: खेती पर आश्रित होती है, उस पर भी इसका खासा असर देखने को मिला। छोटे और मध्यम आकार के उद्योग भी इसकी चपेट में आए, बड़े और संगठित क्षेत्रों में रियल एस्टेट सेक्टर पर इसका सबसे ज्यादा नुकसान देखा गया। इन क्षेत्रों में ज्यादातर काम नक़दी के दम पर होता है, लिहाज़ा पूँजी न मिलने से बड़ी संख्या में कारोबार बंद हो गए। एक अनुमान के अनुसार इससे करीब 15 लाख रोज़गार खत्म हो गए। जानकारों का मानना है और अभी सब कुछ सामान्य होने में कई और वर्ष लग सकते हैं।
3. नोट-बंदी से सरकार को कई स्रोतों से मिलने वाले राजस्व पर भी असर पड़ने का अनुमान है हालांकि आरबीआई ने 2016-17 की अपनी वार्षिक रिपोर्ट में बताया कि नोटबंदी के बाद सरकार को 16 हजार करोड़ रुपये का लाभ हुआ, लेकिन उसी रिपोर्ट में केंद्रीय बैंक का यह भी कहना था कि पिछले साल सरकार को दिए जाने वाले लाभांश में 35 हजार करोड़ रु की कमी हुई और वह घटकर केवल 30 हजार करोड़ रह गया। इसका प्रमुख कारण नए नोटों की छपाई और नोट-बंदी के फैसले को अमल में लाना रहा। वहीं सभी बैंकों को अपने एटीएम को पुनर्व्यवस्थित करने, कर्मचारियों के ओवर-टाइम के चलते दिए जाने वाले वेतन-भत्तों आदि पर भी खासा खर्च करना पड़ा, जिसकी भरपाई उन्होंने जनता से न्यूनतम बैलेंस के नाम पर 10000 करोड़ रुपए के रूप में वसूल की।
दूसरी ओर सरकार का दावा है कि पिछले 2 साल में उसके कर राजस्व में जो बढ़ोतरी हुई है, उसकी मुख्य वजह नोट-बंदी है, लेकिन यह आधा सच है। सरकार नोट-बंदी नहीं भी करती तो भी विकास दर तेज रहने से सरकार के खज़ाने में ज्यादा कर राशि आती। जीडीपी में 2.55 लाख करोड़ रु की अनुमानित कमी हुई जबकि पिछले वित्त वर्ष में कर और जीडीपी का संभावित अनुपात 11.3 फीसदी थी। यानी पिछले साल तक सरकार को लगभग 29 हजार करोड़ रुपये का ज्यादा राजस्व वैसे भी मिल जाता।
4. बैंक किसी भी अर्थव्यवस्था की रीढ़ होते हैं। सरकार ने शुरू में तो नहीं बल्कि बाद में कहा कि नोट-बंदी से बैंकों की सेहत सुधरेगी। लेकिन पिछले 2 साल का अनुभव बताता है कि बैंकों की दशा नोट-बंदी से और खराब ही हुई, नोट-बंदी के पहले ही फंसे हुए कर्ज की मात्रा करीब 10 फीसदी तक पहुंच जाने से बैंक खुलकर कर्ज बांटने से बच रहे थे, वहीं ब्याज दर ज्यादा रहने और नोट-बंदी के बाद मांग सुस्त हो जाने से कारोबारी भी कर्ज लेने को लेकर इच्छुक नहीं रहे। नोट-बंदी के दौरान जमा हुई राशि पर बैंकों को ग्राहकों को ब्याज देना पड़ा। अभी देश के सभी बैंकों में करीब 28 लाख करोड़ रुपये जमा हैं। दूसरी ओर नोट-बंदी को लागू करने में भी बैंकों को खासा खर्च करना पड़ा। इस दौरान वे अपना सामान्य बैंकिंग कारोबार नहीं कर सके, इसलिए उन्हें नुकसान हुआ। इससे बैंकों की दशा सुधरने के बजाय और पस्त ही हुई। यही वजह है कि सभी बैंक अपना नुकसान पूरा करने के लिए ग्राहकों से सेवा और रखरखाव शुल्क के नाम पर कई तरह का चार्ज वसूलने लगे हैं। बैंकों की दशा सुधरने में अभी एक से डेढ़ साल का वक्त और लगेगा।
5. केंद्र सरकार का दावा है कि नोट-बंदी से महँगाई में कमी हुई जिससे ब्याज में कटौती हुई लेकिन यह सच नहीं है। नवंबर 2016 में खुदरा महंगाई दर 3.63 फीसदी थी जो सितंबर 2017 में 0.35 फीसदी घटकर 3.28 रह गई है। इस बीच पिछले एक साल में आरबीआई ने ब्याज दरों में केवल चौथाई फीसदी की कमी की है। इसके उलट नोट-बंदी के बाद किसानों की पस्त हालत के बाद हुए आंदोलन के चलते कर्जमाफी के कई राज्यों के फैसले से महँगाई बढ़ने का खतरा है। राज्यों के राजकोषीय घाटे में वृद्धि होने से भी महँगाई के चढ़ने के अंदेशा है। आरबीआई इसी चलते ब्याज दरों में और कटौती से बच रहा है।
हालांकि यह आश्चर्य की बात है कि अब तक नोट-बंदी की जो सबसे अहम उपलब्धि नजर आ रही है उसे प्रधानमंत्री ने नोट-बंदी के शुरुआती उद्देश्यों में शामिल नहीं किया था और ना ही भारतीय जनता पार्टी का कोई नेता नोट-बंदी को अपनी उपलब्धि बताने में जुटा हुआ है क्योंकि नोट-बंदी उपलब्ध नहीं थी बल्कि एक तानाशाही रवैयै का अंजाम था और एक बहुत बड़ा घोटाला था जिसमें नरेंद्र मोदी और बहुत से उनके व्यापारिक संस्थानों के साथी सम्मिलित थे, जिसके कारण देश की अर्थव्यवस्था निचले स्तर पर चली गई और करोड़ों लोग बेरोज़गार हो गए। काँग्रेस पार्टी मांग करती है कि नरेंद्र मोदी देश के सामने आकर अपनी गलतियों की देशवासियों से क्षमा मांगे और तत्काल प्रभाव से अपने पद से इस्तीफा दे दें क्योंकि केंद्र में अब भाजपा की सरकार नहीं नरेंद्र मोदी की सरकार है और अगर हर काम का श्रेय नरेंद्र मोदी लेने में लगे हुए हैं तो नोटबंदी जैसे बड़े घोटाले जिससे देश को बहुत परेशानी हुई, कई जाने गईं, देश की अर्थव्यवस्था लचर हुई, उसका श्रेय भी नरेंद्र मोदी को ही जाता है और उन्हें तत्काल अपने पद से इस्तीफ़ा दे देना चाहिए।