शशांक द्विवेदी, खजुराहो (छतरपुर)। बुंदेलखंड की दिवारी और पाई डंडा नृत्य की समूचे देश में अनूठी पहचान है। पौराणिक किवदंतियों से जुड़ी धार्मिक परंपराओं के परिवेश में पूरे बुंदेलखंड में दीमालिका पर्व पर दीवारी गायन-नृत्य और मौन चराने की अनूठी परंपरा देखती ही बनती है। इस दिन गोवंश की सुरक्षा, संरक्षण, संवर्धन और पालन का संकल्प का कठिन व्रत लिया जाता है।
दिवारी और पाई डंडा नृत्य का एक अद्भुत नजारा बुंदेलखंड की आस्था का केंद्र खजुराहो के मतंगेश्वर मंदिर में देखने को मिलता है। जहां समूचे बुंदेलखंड से लोग यहां दर्शन, नृत्य प्रदर्शन करने के लिए पहुंचते है। दिवारी नृत्य में युद्ध कला का प्रदर्शन करते हुए योद्धा अपने प्रतिद्वंदियों पर लाठियों से प्रहार करता है।
इस माध्यम से उन्हें युद्ध के लिए ललकारता है। अपने कई प्रतिद्वंदियों द्वारा किये जाने वाले लाठी के प्रहार को रोककर अपनी रक्षा करता है और स्वयं उनपर प्रहार करता है। वहीं पाई डंडा एक प्रकार का युद्ध कौशल ही है। पाई डंडा और दीवारी नृत्य संसार के सभी मार्शल आर्ट्स का जन्मदाता भी माना जाता है।
नृत्य की खासियत
नृत्य की खासियत यह है कि सबके पास मयू पंख या लाठी होती है। नेकर में घुंघरू और कमर में पट्टा बांधा जाता है। आंखों के इशारों पर लाठी से प्रहार किया जाता है। प्रतिद्वंदियों जिमनास्टिक व हैरतअंगेज करतब दिखाते है।
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