कुमार इंदर, जबलपुर. कभी आपने सुना हो कि इंसान अपनी ही प्रॉपर्टी को ना तो बेच पा रहा हो, न किसी के नाम कर पा रहा हो, ना डायवर्सन कर पा रहा है और तो और जरूरत पड़ने पर अपनी ही प्रॉपर्टी को मॉर्टगेज तक नहीं कर पा रहा हो. यह स्थिति किसी एक मकान मालिक के साथ नहीं, एक कॉलोनी के साथ नहीं बल्कि शहर की 22 कॉलोनी में रहने वाले लोगों की है. एक तरफ जबलपुर शहर तेजी से बढ़ रहा है और दूसरी तरफ इस शहर में इस सीलिंग का संकट गहरा रहा है.
तेजी से बढ़ते जबलपुर शहर की कुछ कालोनियां अभी भी सीलिंग जैसी समस्या के शिकार हैं. यहां रहने वाले हजारों परिवार सीलिंग से इस कदर प्रभावित हो गए हैं कि वे अपनी संपत्तियों का न तो बंटवारा कर पा रहे हैं और न ही बेच पा रहे हैं. डायवर्शन से लेकर अन्य कामों के लिए ये सरकारी दफ्तरों के चक्कर काट कर थक चुके हैं. ये सब हुआ है सरकारी गलती के चलते, जिसमें जबलपुर की 22 कॉलोनियों में रहने वाले करीब 24 हज़ार परिवारों के खसरे में कॉलम नंबर 12 पर सीलिंग प्रभावित लिख दिया गया है और यही चीज इनके लिए मुसीबत बन गई है.
सरकारी दफ्तरों की चक्कर काट रहे पीड़ित
लोगों ने तमाम सरकारी ऑफिस के चक्कर काटे, नेताओं से मिलकर मिन्नते की. बावजूद इन कॉलोनियों में रहने वाले परिवारों को कोई राहत नहीं मिली. दरअसल, जबलपुर विकास प्राधिकरण के अंतर्गत आने वाली शहर की 22 कॉलोनियों के करीब 24 हज़ार से भी ज्यादा परिवार सरकारी गलती के चलते उनके खसरों में ‘सीलिंग प्रभावित’ शब्द लिख दिया गया है और तभी से उनकी मुश्किलें शुरू हो गई है. खसरे में सीलिंग प्रभावित शब्द के जुड़ जाने से पाई-पाई जोड़कर प्लॉट और मकान खरीदने वाले लोग अपनी संपत्ति का डायवर्सन, बंटवारा, नामांतरण तक नहीं कर पा रहे हैं और न ही इन्हें बेच पा रहे हैं. हैरानी की बात तो यह है कि सीलिंग की समस्या का सामना करने वाले परिवारों के लिए बैंकों ने भी अपने दरवाजे भी पूरी तरह से बंद कर दिए है.
सीलिंग में आने के नुकसान
किसी भी एरिया या रहवासी क्षेत्र को सीलिंग में डालने का मतलब यह होता है कि यह भूमि सरकारी है. लिहाजा ऐसी स्थिति में भूस्वामी न तो अपने मकान को बेच पाता है ना ही उसे किसी के नाम पर ट्रांसफर कर पता है, ना ही उसका डायवर्सन हो पता है और तो और उसे जरूरत पड़ने पर वह आदमी अपने ही मकान के ऊपर ना तो कर्ज ले पता है. इस तरह से कह सकते हैं कि यह मकान उसका होकर भी उसका नहीं रहता.
शहरी भूमि सीलिंग अधिनियम 1976
भारत में पहली बार साल 1976 में शहरी सीलिंग पारित की गई थी. यह अधिनियम शहरी विकास पर एक बड़ी बाधा है. अतः कई राज्यों ने इसे हटा दिया है, लेकीन कई राज्यों में ये अभी भी प्रभावी है. सीलिंग भूमि राजा-महाराजाओं या जमीदारों से प्राप्त भूमि है. जो शासन के अधीन रहती है और जिसका पट्टा जरूरतमंदों को दिया जाता है ताकि वे उस पर खेती कर सके. इस भूमि को बेचा नहीं जा सकता. यहां किसी तरह की बिल्डिंग नहीं बनाई जा सकती. न ही किसी तरह का व्यवसाय किया जा सकता है. यानी इसका अन्य कोई दूसरा उपयोग नहीं हो सकता. इसके बावजूद बड़े पैमाने पर इसकी खरीद-फरोख्त हुई है.
जेडीए ने आवंटित की थी यह कालोनियां
जिन 22 कॉलोनीयों को जिला प्रशासन ने सीलिंग में डाला है. उन 22 कालोनी को सालो पहले सरकार के ही एक विभाग यानी की जबलपुर विकास प्राधिकरण ने ही आवंटित किया था. कई साल पहले एलॉट जमीन को बेचने के बाद जेडीए ने उसकी एनओसी भी दी थी, जिसके बाद लोगों ने अपनी जीवन भर की कमाई से बैंक से लोन लेकर मकान बनवाए और आज उसी जमीन को सरकारी महकमे ने ही सीलिंग में डाल 24 हज़ार परिवार के लिए मुसीबत खड़ी कर दी.
शहर की समस्या से प्रशासन भी परिचित
ऐसा नहीं है कि शहर के हजारों परिवारों की समस्या का शासन को पता नहीं है, लेकिन उसके बावजूद अभी तक इस परेशानी का हल निकालने के लिए प्रशासन की ओर से कोई कदम नहीं उठाए गए. जबलपुर के कलेक्टर दीपक कुमार सक्सेना का कहना है कि. शहर की 22 कॉलोनियों के अलावा ग्रामीण क्षेत्र के कुछ गांव भी सीलिंग से प्रभावित हैं. इस संबंध में उन्होंने अधिकारियों से चर्चा कर नागरिकों को राहत दिलाने के लिए कार्य योजना बनाने के निर्देश जारी कर दिए हैं. कलेक्टर की माने तो सीलिंग से प्रभावित परिवारों की समस्याओं के निराकरण के लिए विशेष नीति बनाई जा रही है और जल्द ही करीब दो दर्जन कॉलोनियों के हजारों परिवारों को इससे मुक्ति दिलाई जाएगी.
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