अभय मिश्रा, मऊगंज। “बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ” का नारा मऊगंज के आदिवासी बालिका छात्रावास में खोखला साबित हो रहा है। शिक्षा, सुरक्षा और सुविधा की गारंटी देने वाले सरकारी वादे यहां हकीकत से कोसों दूर हैं। हनुमना जनपद के हर्रई प्रताप सिंह गांव में स्थित आदिवासी कन्या छात्रावास की हालात दिल दहला देने वाली हैं। यह छात्रावास वर्ष 2011 में आदिवासी बालिकाओं को सुरक्षित, सुविधायुक्त आवासीय शिक्षा देने के उद्देश्य से शुरू किया गया था, लेकिन आज 13 वर्षों बाद यह भवन एक खंडहर में तब्दील हो चुका है।
छत से गिरता प्लास्टर, दरकती दीवारें और गंदे शौचालय
छात्रावास की छत से प्लास्टर झड़ रहा है, दीवारों में बड़ी दरारें हैं और शौचालय की हालत इतनी खराब है कि बीमारियों का खतरा मंडराता रहता है। इसके बावजूद 40 से ज्यादा मासूम आदिवासी छात्राएं मजबूरी में यहां रह रही हैं, क्योंकि इनके पास कोई और विकल्प नहीं है।
न शिक्षक, न बिस्तर, न खाना – केवल वादे और दिखावा
छात्राओं ने बताया कि उन्हें न तो सुबह नाश्ता मिलता है और न ही रात का खाना समय पर बनता है। कभी-कभार दोपहर में दाल-चावल दिया जाता है, लेकिन वह भी गुणवत्ता से कोसों दूर होता है। दीवारों पर चिपके ‘मेनू कार्ड’ सिर्फ दिखावे के लिए हैं।
शिक्षकों की नियुक्ति कागजों में ही सिमटी हुई है। छात्रावास में दर्ज 6 कर्मचारियों में से सिर्फ 3—एक रसोईया और दो प्यून—ड्यूटी पर मौजूद पाए गए। हैरानी की बात ये है कि 40 छात्राओं के लिए केवल दो बिस्तर हैं, और वे भी स्टाफ के लिए। बच्चियां फर्श पर सोती हैं या फिर शाम होते ही घर भेज दी जाती हैं।
सरकारी फंड कहां जा रहा है?
सबसे बड़ा सवाल यह उठता है कि छात्रावास संचालन के लिए हर महीने लाखों रुपये सरकार द्वारा जारी किए जाते हैं, फिर भी स्थिति बद से बदतर क्यों है? पोषण, शिक्षा और सुरक्षा जैसी मूलभूत ज़रूरतें आखिर क्यों गायब हैं?
जब नारा बन जाए मज़ाक
‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ ’ का नारा जब उन बच्चियों तक नहीं पहुंच पाता जो सबसे ज्यादा इसकी हकदार हैं, तो यह नारा एक क्रूर मज़ाक बन जाता है। न किताबें, न पढ़ाई, न खाना, न सुरक्षा—तो फिर ये अभियान आखिर किसके लिए चल रहा है? जब इस विषय पर छात्रावास की अधीक्षिका और जिम्मेदार अधिकारियों से बात करने की कोशिश की गई तो कोई स्पष्ट और संतोषजनक जवाब नहीं मिला। अधिकारी केवल एक-दूसरे पर जिम्मेदारी डालते नजर आए।
अब सवाल यह है:
क्या आदिवासी बेटियों की जिंदगी किसी हादसे का इंतजार कर रही है?सरकार की आंखें कब खुलेंगी? प्रशासन कब जागेगा? क्या ‘ शिक्षा का अधिकार ’ सिर्फ एक कागजी नारा बनकर रह जाएगा?
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