झाबुआ। आदिवासी समुदाय का जीवन जितना चुनौतियों भरा है, उतनी ही चुनौती भरी उनकी आस्था और उसका निर्वाह है. इस तथ्य की प्रमाणिकता को आदिवासी अंचलों में लगने वाले ‘गल चूल मेले’ में परखा जा सकता है. होली के दूसरे दिन आयोजित किए जाने वाले इस आयोजन में आदिवासी समुदाय की आस्था, निर्वाह की चुनौती और उनकी संस्कृति से रू-ब-रू हुआ जा सकता है.
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धुलेंडी वाला दिन आदिवासी अंचलों में ‘गल बाबा’ की मनौती को पूरा करने का दिन होता है. इस दिन आदिवासी परिवार अपनी मन्नत के पूरा होने का धन्यवाद अनोखे ढंग से देते हैं. महिलाए जहां धधकते अंगारों पर नंगे पैर चलती हैं. पुरुष कई फीट ऊपर कमर में रस्सी बांधकर हवा में झूलते हैं. मन्नत उतारने की इस परंपरा को ‘गल चूल’ कहा जाता है. देवता को ‘गल बाबा’ कहा गया है.
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रंग का कांच किया कपड़ा
परंपरा के अनुसार मन्नत पूरी होने के बाद मन्नतधारी युवक धुलेंडी के 7 दिन पूर्व से ही शरीर पर हल्दी का लेप लगाते हैं. धोती पहनते हैं. कमीज के स्थान पर यह युवक शरीर पर लाल रंग का कांच किया कपड़ा बांधते हैं. सिर पर पगड़ी होती है. हाथ में नारियल के साथ कांच रखते हैं. आंखों में काजल लगाने के साथ गाल पर क्राॅस का चिन्ह बनाते हैं.
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व्यक्ति को उल्टा लटकाया जाता है
गल ग्रामों में बाहरी स्थान पर लकड़ी की 20-30 फीट ऊंची मचान बनाई जाती है, जिस पर सीड़ी से चढ़ा जाता है. गल मचान पर एक 15-20 फीट आड़ी मोटी लकड़ी बनी होती है, जिस पर गल घूमने वाले मन्नतधारी व्यक्ति को उल्टा लटकाकर बांधा जाता है. नीचे से फिर रस्सी द्वारा एक व्यक्ति उसे मचान के चारों ओर तेजी से घुमाता है. इस प्रकार मन्नत के अनुसार तीन से पांच तक चक्कर लगाए जाते हैं.
गल देवता के नीचे बकरे की बलि
इसके बाद गल देवरा घूमने वाले व्यक्ति के परिजन गल देवता के नीचे बकरे की बलि देते हैं. इस प्रकार की मन्नत पुरूष आदिवासी लेते हैं, जिसके पीछे कई कारण हैं. जैसे – बच्चों का नहीं होना, घर में किसी का बीमार होना शामिल हैं. इसके साथ ही इसी दिन महिलाएं भी मन्नत मांगती हैं. मन्नत पूर्ण होने पर नंगे पैर दहकते अंगारों पर चलती हैं, जिसे ‘चूल’ पर चलना कहा जाता है.
जोखिम उठाकर रस्म निभा रहे
गल चूल उत्सव दोनों ही इस संस्कृति के मुख्य आधार हैं, जो हर रीति रिवाज एवं परम्पराओं में परिलक्षित होते हैं. आदिवासी समुदाय को देखकर यह महसूस किया जा सकता है. संस्कृति के होने से ज्यादा महत्वपूर्ण है, उसका निर्वहन है. संस्कृति जब ही कायम रह सकती है, जब हम उसे उसी स्वरूप में आने वाली पीढ़ी को सौंपा जाए. यही सब करने में लगा यह समुदाय जान का जोखिम उठाकर भी रस्मों और रिवाजों को पूरा करता है.