
रायसेन। रमजान का पवित्र माह चल रहा है। मुस्लिम समुदाय के लोग अल्लाह की इबादत में रोजे रख रहे हैं। इस महीने में रोजेदारों के लिए सेहरी और इफ्तार का समय सबसे अहम होता है। आज के इस आधुनिक युग में कई संसाधनों से सेहरी और इफ्तारी के वक्त की जानकारी दी जाती है, लेकिन एक ऐसी भी जगह है जहां आज भी परंपरागत और अनूठे तरीके से इसकी सूचना पहुंचाई जाती है।
जी हां… हम बात कर रहे है मध्य प्रदेश के रायसेन जिले की। यहां सेहरी से पहले और शाम की इफ्तारी के वक्त तोप दागने की परंपरा है। जो करीब 200 साल से चली आ रही है। इतना ही नहीं यहां हिंदू परिवार के सदस्य ढोल पीटकर रोजेदारों को सेहरी के समय उठाते (नींद से जगाते) भी हैं।
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नवाबी काल से चली आ रही परंपरा
मध्य प्रदेश के रायसेन के ऐतिहासिक किले से आज भी रोजादारों को तोप की गूंज से सेहरी और इफ्तार की सूचना मिलती है। इसकी आवाज सुनकर शहर सहित आसपास के लगभग 12 गांवों के रोजेदार रोजा खोलते हैं। जब सेहरी और इफ्तारी की सूचना देने के लिए कोई साधन नहीं हुआ करते थे तब से यह परंपरा चली आ रही है। रायसेन किले पर करीब 200 साल पहले राजा और नवाबों का शासन हुआ करता था। उन दिनों से ही लोगों को किसी चीज की जानकारी देने के लिए तोप के गोले दागे जाने की शुरुआत हुई थी। इसके बाद साल 1936 में भोपाल के आखिरी नवाब हमीदुल्लाह ने बड़ी तोप की जगह एक छोटी तोप चलाने के लिए दी। इसके पीछे वजह यह थी कि बड़ी तोप की गूंज से किले को नुकसान पहुंच रहा था।
जिला प्रशासन जारी करता है लाइसेंस
एक दिन में दो वक्त तोप चलाने के लिए जिला प्रशासन बाकायदा एक माह के लिए लाइसेंस जारी करता है। तोप चलाने के लिए आधे घंटे की तैयारी करनी पड़ती है। तोप चलाने से पहले दोनों टाइम टांके वाली मरकज वाली मस्जिद से बल्ब जलाकर सिग्नल मिलता है। सिग्नल के रूप में मस्जिद की मीनार पर लाल या हरा रंग का बल्ब जलाया जाता है। उसके बाद किले की पहाड़ी से तोप चलाई जाती है।
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इतना आता है खर्च
जब रमजान माह समाप्त हो जाता है, तब तोप की साफ-सफाई कर इसे सरकारी गोदाम में जमा कर दिया जाता है। रमजान के पूरे महीने में तोप दागने में करीब 70 हजार रुपए का खर्च आता है। बताया जाता है कि राजस्थान में तोप चलाने की परंपरा है। इसके बाद देश में मध्य प्रदेश का रायसेन ऐसा दूसरा शहर है, जहां पर तोप चला कर रमजान माह में सेहरी और इफ्तारी की सूचना दी जाती है।
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