मुंबई। महाराष्ट्र में भाजपा, शिवसेना शिंदे गुट और अजित पवार वाली एनसीपी की महायुति के लोकसभा चुनाव में खराब प्रदर्शन का असर विधानसभा चुनाव में देखने को मिल सकता है. आरएसएस की ओर से आ रही आपत्तियों के बीच इस बात की अटकलें लगाई जा रही हैं कि भगवा पार्टी अजित के साथ गठबंधन खत्म कर सकती है और मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे की अगुआई वाली शिवसेना के साथ मिलकर विधानसभा चुनाव लड़ सकती है. इसे भी पढ़ें : जगन्नाथ मंदिर के खुले चारों द्वार, मोहन माझी सरकार ने पूरा किया अपना वादा…
आरएसएस के मुखपत्र में छपे एक लेख में कहा गया है कि उपमुख्यमंत्री अजित पवार की अगुआई वाली एनसीपी के साथ गठबंधन महाराष्ट्र में भाजपा की लोकसभा चुनाव में हार का एक कारण था. आजीवन आरएसएस कार्यकर्ता रतन शारदा ने ऑर्गनाइजर में अपने लेख में कहा कि अजित के साथ गठबंधन करने से “भाजपा की ब्रांड वैल्यू” कम हो गई और यह “बिना किसी अंतर वाली एक और पार्टी” बन गई.
सूत्रों की माने तो आरएसएस भाजपा नेतृत्व के एनसीपी को तोड़ने और लोकसभा चुनाव से पहले पवार के नेतृत्व वाले धड़े के साथ गठबंधन करने के फैसले से खुश नहीं है. सूत्रों के अनुसार, आरएसएस-भाजपा कार्यकर्ता सिंचाई और महाराष्ट्र राज्य सहकारी बैंक घोटालों में अजित पवार के शामिल होने के कारण वे उनके विरोधी हैं. लेकिन जूनियर पवार के भाजपा से हाथ मिलाने के बाद पवार विरोधी नारे पीछे छूट गए.
वहीं एक वरिष्ठ भाजपा नेता ने नाम न बताने की शर्त पर कहा, “महायुति सरकार में उन्हें उपमुख्यमंत्री बनाकर घाव पर नमक छिड़का गया.”
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इधर सुप्रिया सुले ने कहा कि अजित पवार की अगुवाई वाली एनसीपी को मोदी मंत्रिमंडल में जगह नहीं मिलने से कोई आश्चर्य नहीं हुआ. उन्होंने कहा कि लोकसभा चुनावों में यह स्पष्ट था कि आरएसएस-भाजपा के कार्यकर्ता एनसीपी उम्मीदवारों के लिए प्रचार करने के लिए तैयार नहीं थे, और कई जगहों पर आत्मसंतुष्ट रहे. नतीजतन, 2019 में भाजपा की सीटों की संख्या 23 से घटकर 2024 में नौ रह गई.
सूत्रों ने कहा कि भाजपा नेतृत्व इस साल के अंत में होने वाले विधानसभा चुनावों में अजित के साथ गठबंधन न करने के प्रभाव पर विचार-विमर्श कर रहा है. एक अन्य नेता कहते हैं कि अगर भाजपा पार्टी अजित को छोड़ देती है और विधानसभा चुनावों में शिंदे के साथ आगे बढ़ती है, तो ऐसा लग सकता है कि भाजपा ने अजित का इस्तेमाल किया और बाद में उन्हें फेंक दिया. यह इस्तेमाल करो और फेंको की नीति उल्टी पड़ सकती है. लेकिन दूसरी स्थिति यह है कि अजीत को सहयोगी के रूप में रखना फायदेमंद नहीं हो सकता है. सर्वेक्षणों से पता चला है कि अजित एक बोझ हैं, इसलिए भाजपा को गुटबाजी पर पुनर्विचार करना होगा.
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