नई दिल्ली। भारत आज राष्ट्रीय प्रोद्यौगिकी दिवस मना रहा है. राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित तमाम नेता देशवासियों को बधाई दे रहे हैं. लेकिन क्या आप जानते हैं कि हमारे देश के वैज्ञानिक और इंजीनियर्स ने पोरखण परमाणु परीक्षण की ऐसी रणनीति बनाई की 24 घंटे से़टलाइट के जरिए निगरानी करने वाली अमेरिका की खुफिया एंजेसी सीआईए तक को विस्फोट से पहले इसकी भनक तक नहीं लगी.
राजस्थान के मरुस्थल में बसे पोखरण में 11 मई 1998 को भारत ने एक के बाद एक तीन (शक्ति-1, 2 और 3) और दो दिन बाद 13 मई को दो (शक्ति-4 और 5) परमाणु परीक्षण किए थे. इन पांच अलग-अलग क्षमता और आकार वाले परमाणु परीक्षणों का उद्देश्य परमाणु विस्फोट को लेकर सही आंकड़े प्राप्त करना था.
विस्फोट तो पोखरण में हुआ था, लेकिन इसका विश्वव्यापी असर हुआ. अमेरिका, जापान, कनाडा, चीन और पाकिस्तान ने भारत पर प्रतिबंध लगाए, लेकिन हमारी सफलता इस बात में रही कि रूस, फ्रांस और यूके ने विस्फोट की निंदा नहीं की. भारत ने तमाम बाधाओं को बखूबी पार कर लिया. भारत का पोखरण–2 अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए के लिए एक बहुत बड़ी शर्मिंदगी का सबब बन गया. सीआईए को इस बात पर भी रंज हुआ कि परमाणु परीक्षण के लिए बनाए गए तीन गड्ढों (शॉफ्ट) में से एक का नाम व्हाइट हाउस था.
‘ऑपरेशन शक्ति’ की सफलता के पीछे मुख्य रूप से प्रधानमंत्री के वैज्ञानिक सलाहकार और डीआरडीओ के प्रमुख डॉ एपीजे अब्दुल कलाम, एटामिक एनर्जी विभाग के चेयरमैन डॉ. आर चिदंबरम, डीआरडीओ के डायरेक्टर डॉ. के सांथनम, बार्क के डायरेक्टर डॉ अनिल काकोड़कर थे. अब बात परीक्षण की. अमरीकी जासूसी उपग्रहों की नजर से बचते हुए परीक्षण साइट को तैयार करने की जिम्मेदारी भारतीय सेना के 58वें इंजीनियर रेजिमेंट को दिया गया. 58वें इंजीनियर के कमांडर कर्नल गोपाल कौशिक की निगरानी में काम शुरू हुआ.
परीक्षण की तैयारी के काम में जुटे तमाम इंजीनियर्स और वैज्ञानिको को सैन्य वर्दी में ही काम करना था, वह भी रात में. जिस जगह शॉफ्ट का निर्माण किया जा रहा था, उसके ऊपर नेट लगा दिया गया था. वहीं शॉफ्ट से निकाले गए रेत को इस तरह से रखा गया, जिससे वे अलग न दिखे. वहीं जिस सामान का खुदाई में उपयोग किया जाता, उसे दोपहर को उसी स्थान पर रख दिया जाता, जिससे सेटलाइट में चीजें व्यवस्थित दिखें. इस तरह से परीक्षण से पहले किसी को भी पता ही नहीं चला. यहां तक देश के विभिन्न स्थानों से पहुंचने वाले वैज्ञानिक औ इंजीनियर्स भी सीधे पोखरण का रास्ता पकड़ने की बजाए दूसरे स्थान पर उतरते थे, जहां से उन्हें सेना की गा़ड़ियों में परीक्षण स्थल तक ले जाया जाता था.