प्रदीप मालवीय,उज्जैन। शारदीय नवरात्रि में महाष्टमी पर उज्जैन में आज नगर पूजन किया गया। परंपरा अनुसार माता मंदिर महाआरती में कलेक्टर शामिल हुए। उज्जैन के चौबीस खम्बा माता मंदिर में कलेक्टर आशीष सिंह ने देवी को मदिरा का भोग लगाया। नगर पूजा का प्रमुख कारण शहर में किसी भी प्रकार की कोई प्राकृतिक आपदा ना हो साथ ही सुख समृद्धि व खुशहाली की कामना है।

बताया जाता है कि उज्जैन में राजा विक्रमादित्य के समय से नगर पूजा की परम्परा चली आ रही है। आज भी इस परम्परा का निर्वाह उज्जैन के राजा अर्थात कलेक्टर द्वारा किया जाता है। यहां नवरात्रि पर महाष्टमी के दिन वर्ष में एक बार जिला प्रशासन द्वारा नगर पूजा की जाती है। इस पूजा में लगभग 27 किलोमीटर तक मदिरा की धार लगाई जाती है, जो शहर के कई देवी मंदिरों में जाती है। इस महापूजा में जिला प्रशासन के साथ-साथ कई श्रद्धालु पैदल चलते हैं। सुबह प्रारंभ होकर यह यात्रा शाम तक समाप्त होती है। यात्रा उज्जैन के प्रसिद्ध चौबीस खंबा माता मंदिर से प्रारंभ होकर नगर भ्रमण के बाद ज्योर्तिलिंग महाकालेश्वर पर शिखर ध्वज चढ़ाकर समाप्त होती है। इस यात्रा की खास बात यह है कि एक घड़े में मदिरा को भरा जाता है जिसमें नीचे छेद होता है जिससे पूरी यात्रा के दौरान सड़क मार्ग व देवी मंदिरों में मदिरा की धार बहाई जाती है। हर बार महापूजा में जिला कलेक्टर के साथ प्रशासनिक अधिकारी, कर्मचारी व बड़ी संख्या में श्रद्धालु शामिल होते हैं।

यहां महालाया और महामाया दो देवियों की प्रतिमाएं द्वार के दोनों किनारों पर स्थापित है। सम्राट विक्रमादित्य भी इन देवियों की आराधना किया करते थे। यह मंदिर महाकालेश्वर मन्दिर के पास स्थित है। मंदिर में 12वीं शताब्दी के एक शिलालेख में लिखा था कि अनहीलपट्टन के राजा ने अवंतिका में व्यापार के लिए नागर व चतुर्वेदी व्यापारियों को यहां लाकर बसाया था। यहां नगर रक्षा के लिए चौबीस खम्बे लगे है। इसलिए इसे चौबीस खम्बा दरवाजा कहते है। प्राचीन समय में नवरात्र पर्व की अष्टमी पर जागीरदार, इस्तमुरार, जमींदारों द्वारा पूजन किया जाता था। आज भी यह परंपरा जारी है, जिसे कलेक्टर द्वारा निर्वहन किया जाता है। सम्राट विक्रमादित्य इन देवियों की आराधना किया करते थे। उन्हीं के समय से अष्टमी पर्व पर यहां शासकीय पूजन किए जाने की परंपरा चली आ रही है ।

यह द्वार विशालकाय है यहां माता महामाया और महामाया देवी की नित्य पूजा अर्चना की जाती है। पूर्व में यहां पाड़ों की बलि दी जाती थी लेकिन यह प्रथा कब से थी इसका उल्लेख कही भी नहीं मिलता है वर्तमान में यहां बलि प्रथा वर्जित है।

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