रायपुर. या देवी सर्व भूतेषु लज्जा रुपेण संश्रिता. माता जगदंबा की उनके विभिन्न कृपामयी रूपों मे वंदना करते है। प्रणाम करते है। मां आदि शक्ति लज्जा स्वरूपा है। विकसित संस्कॄति का गहरा प्रभाव हमारी पारिवारिक एवं सामाजिक व्यवस्था पर पड़ा है। हमारे सामान्य जीवन में शील, संकोच, और लज्जा का ह्रास हुआ है। इसे कोई दबे स्वर में तो कोई मुखर होकर स्वीकार कर रहा है। परिधान परिवेश और प्रदर्शन के भंवर में हमारी जीवन शैली उलझकर रह गई है। काल की चट्टानों की छाती को विदीर्ण कर अविरल गति से बहने वाली निर्झरणी की क्षमा कृपा लज्जा की तरंगों के मुहाने पर ही पाश्चात्य संस्कॄति का पाषाण स्थापित हो गया है। उससे उसका निर्मल प्रवाह बाधित हो गया है। हमारा व्यवहार निरंकुश हो रहा है। वह पाश्चात्य संस्कॄति जो चुनरी और ओढ़नी मे भेद नहीँ जानती वहां ना चुनरी होती है ना ओढ़नी होती है। उसका अंधानुकरण हमारी परंपराओं की धवलता को स्पर्श करता है। यह देश नारी के श्रंगार की कम उसके उच्च विचार को अधिक पूज़ता है। यह देश मातृ शक्ति की वंदना की मान्यताओ का देश है।

डॉ. विजय दुबे

अतः ॥ या देवी सर्व भुतेषु लज्जा रुपेण संस्थिता॥
आदि शक्ति स्वरूपा माता सीता मे सहज रुप से स्थित लज्जा भाव को रामचरित मानस के माध्यम से समझने का प्रयास करेंगे। आज हमारे परिवारों में पुत्री का.विवाह होता है। वह पुत्री दामाद के साथ परिवार मे आती है। परिचय की सामान्य परंपरा है। आज कल पुत्रियां चाहे कोई बैठा रहे दामाद का परिचय कराते समय सीधे कह देगी ये मेरे मिस्टर है। बहुत छोटा सा संदर्भ । परंतु इसमे व्यवहार जनित अपेक्षित लज्जा भाव का अभाव प्रगट होता है। माता सीता जब वन मार्ग मे एक जगह विश्राम करने वृक्ष नीचे रुकी। श्री राम और मार्ग लक्ष्मण तो साथ मे थे। कोल किरातो के ग्राम बधुएं माता सीता से मिलने आई। श्री राम और लक्ष्मण कुछ दूर पर.जाकर बैठ गए। ग्राम वधुंटिया माता सीता के साथ बैठी। अविकसित संस्कॄति की कोल किरातो की बहुओं ने माता सीता से बड़ा जटिल प्रश्न पूछा। जिस प्रश्न का उत्तर पाने के लिए कई अमलात्मा कमलात्मा गिरि गहवरो की खोह मे बैठ कर आत्म रमण करते है। उन ग्राम की वधुओं ने सीता से पूछा। परिचय?

॥ कोटि मनोज लजावन हारे।
सुमुखि कहहु को आहि तुम्हारे॥
हे सुमुखि करोड़ों कामदेव को लज्जित करने वाले वे? आपके क्या लगते है। आपका उनसे क्या संबंध है। देखिए एक संस्कारित आर्य संस्कॄति संबोधन एवं परिचय की स्वस्थ परंपरा। माता सीता ने उत्तर दिया।
॥ सहज सुभाय सुभग तनु गोरे
नाम लखन लघु देवर मोरे॥

बहनों। वे जो गौर वर्ण के.है ना वे मेरे छोटे देवर है।यहा गोस्वामी जी के काव्य कला को भी प्रणाम करना होगा उन्होने संबोधन मे
” लघु देवर ” कहा है। गोरे वर्ष के है ये छोटे देवर है। बड़े देवर भी है वे बाद मे आयेंगे वे सांवले है श्री भरत लाल जी। गांव वधूटिया भी साधारण नहीँ भी उन्होने कहा हे देवी हम गोरे वाले से आपका संबंध नहीँ पूँछ रही है। वे सांवले वाले(श्री राम की ओर ) संकेत करके कहा वे आपके क्या लगते है। मां की मुखाकृति मे लज्जा का भाव आया। परंतु आज की संस्कॄति जैसे मुखर नहीँ हुई। उन्होने अपने अपने सिर के पल्लू का थोड़ा घूंघट बनाया और बाँकि चितवन से इशारे मे ही बता दिया की श्री राम उनके क्या लगते है।

॥ बहुरि वदन विधु अंचल ढांकि,
प्रियतन चितय भौं कर बाकी
खंजन मंजु तिरछे नयनहिं निजपति कहेहु तिन्हहिं सिय सयनहि ॥ ये लज्जा की परिधि मे आर्य संस्कॄति की परिचय की धवल परंपरा है। मां इस स्वरूप को प्रणाम है।  ॥ या देवी सर्व भुतेषु लज्जा रुपेण संस्थिता॥

सहज भाव से विलग नहीँ होना चाहिए। आज भी हमारे संम्रान्त घरों में परंपरा है की जब कोई अपरिचित व्यक्ति आता है तो माताएं ओट में खड़े होकर परदे की आड़ मे खड़े होकर उन्हे उत्तर देती है। यही लज्जा का पूज्य सात्विक स्वरूप एवं व्यवस्था है। अशोक वाटिका मे माता सीता जब थी। रावण मंदोदरी आदि रानियों के साथ आकर माता सीता से संभाषण करता है। माता ने उस विषम परिस्थिति मे भी भारतीय आर्य संस्कॄति की लज्जा की दीप शिखा को प्रज्वलित रखा। उन्होने तृण का ओट लिया। दृष्टि तृण पर और चिंतन श्री राम पर रखकर रावण के प्रश्नों का उत्तर संकेत से ही दिया।

॥ तृण धरि ओट कहत वैदेही सुमरि अवध पति परम सनेही॥
उन्होने तृण के माध्यम से रावण को कहा तेरी यह सोने की लंका का वैभव तेरे आयुधो का भंडार तेरी भौतिकवादी भव्यता मेरे राम के आध्यात्मिक अस्तित्व के सामने तृण के समान है। तेरे भौतिकवादिता के संग्रह मे तेरे भय मे भारतीय लज्जा के.इस क्षीण किंतु दिव्य प्रखर सीमा रेखा को पार करने का सामर्थ्य नहीँ है। तेरी समग्र समृद्धि मेरे राम के सामने तृण के.समान है।
॥ तृण धरि ओट कहत वैदेही॥

माता सीता ने तृण के ओट से यह भी संकेत दिया की जैसे वर्षा होने से हरियाली बढ़ती है कभी कभी वह इतनी बढ़ जाती है। पगडंडियों के मार्ग ठीक से दिखाई नहीँ देते।

॥ हरित भूमि तृण संकुल समुझि परहि नहि पंथ॥
जिसकी कृपा से तुझे यह संपन्नता की हरीतिमा प्राप्त हुई है। तू इससे इतना मदांध हो गया.है तुझे जीवन का सत मार्ग ही नही दिखाई.दे रहा है। तू मार्ग से भटक गया है। प्राप्त वैभव से तू प्रकाशित नही हुआ। तू निर्लज्ज हो गया है।॥ अधम निर्लज्ज लाज नही तोही॥ इस तरह विपरीत परिस्थितियो मे भी काल के कपाल पर लज्जा का शिलालेख आर्य ललनाओ ने लिखा है।संकोच और आदर मिश्रित भाव लज्जा का है। मां के इस दिव्य लज्जा स्वरूप को नमन है। ॥ या देवी सर्व भूतेषु लज्जा रुपेण संस्थिता॥

मानस, भागवत प्रवक्ता,डा.विजय दुबे