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पं. वैभव बेमेतरिहा

रायपुर/ 30 अप्रेल 2017 की तारीख तेलीबांधा चलने वाली इस नेरोगैज के लिए रायपुर के लिए अंतिम तारीख थी। सुबह 7 बजे ये ट्रेन रायपुर मुख्य स्टेशन छोटी लाईन पर छुक-छुक करती निकली। 7.30 बजे पहला पड़ाव तेलीबांधा स्टेशन था। छुक-छुक गाड़ी के पहुँचने के पहले ही तेलीबांधा स्टेशन पर यात्रियों की भीड़ हो चुकी थी।
मैं भी ट्रेन के इंतजार में था। ट्रेन के आने से पहले मैंने धमतरी की दूरी तय करने 2 टिकट ले ली थी। टिकट की कीमत थी महज 20 रूपये। जो बस टिकट की तुलना में 60 रूपये कम थे। 6 छोटी बोगियों अब यात्रियों से पूरी तरह भर चुकी थी। बहुत सारे यात्री खड़े होकर यात्रा कर रहे थे। अब मैं और मेरा कैमरामेन साथी ट्रेन में सवार हो चुके थे और शुरू हो चुकी थी हमारी सांस्कृतिक धरोहर कहे जाने वाली इस ट्रेन से धमतरी तक की यात्रा।

बोगी के भीतर पहुँचते ही दैनिक यात्रियों से तो मुलाकात हुई। मेरी मुलाकात हरविंदर सिंह के परिवार के सदस्यों से भी हुई। जो अपनी बचपन की यादों को ताजा करने आखिरी बार परिवार के सदस्यों के साथ इस नेरोगैज से केन्द्री तक यात्रा में थे।

हरविंदर सिंह, प्रीत कौर, रामकुमार, सावित्री जैसे कई यात्रियों ने इस सफर के दौरान अपनी यादें साझा की। हरविंदर कहते हैं कि वे पंडरी में छोटी लाईन के पास ही रहते हैं। वे बचपन से ही इस ट्रेन को देख रहे हैं। बचपन में वे इस ट्रेन की आवाज सुनते ही घर से दौड़कर पटरियों के पास आ जाते थे। पांच-दस पैसे को पटरियों पर रखकर उसे बड़ा होते देखते। ट्रेन के साथ उनके बचपन के दिनों की ढेरों शरारतें है। वे इस ट्रेन से राजिम मेला भी देखने जाते थे।

इस ट्रेन के साथ उनका एक भावनात्मक रिश्ता जुड़ा गया है। जब पता चला कि 30 अप्रेल को रायपुर से छोटी लाइन पर नेरोगैज नहीं चेलगी तो हम परिवार के सभी सदस्यों के साथ इस ट्रेन में सफर कर फिर से बचपन की यादों को ताजा करने आ गए। इसके लिए हम सुबह आज 4 बजे उठ गए थे। सुबह 4 बजे से नेरोगैज में सफर कने के लिए उत्साहित। सुबह 6 बजे रायपुर मुख्य स्टेशन पहुँच गए। मुख्य स्टेशन से आज उन्होंने नेरोगैज में केन्द्री तक की यात्रा की।

तेलीबांधा से स्टेशन को पार करते हुए माना-भटगांव होते हुए अब छुक-छुक गाड़ी केन्द्री पहुँच चुकी थी। केन्द्री स्टेशन पर हरविंद सिंह के परिवार अपने बचपन से जुड़ी रही नेरोगैज को अंतिम विदाई दे रहा थे।

दरअसल केन्द्री वहीं स्टेशन से जहां से ही अब इस नेरोगैज का परिचालन राजिम और धमतरी तक होगा। केन्द्री स्टेशन नेरोगैज के नया बनकर तैयार है। केन्द्री से ट्रेन आगे बढ़ी और पहुँच गई रायपुर और धमतरी के बीच एक प्रमुख स्टेशन अभनपुर।

अब इस सफर में छोटी लाईन ट्रेन पर शोध कर चुके और कई आर्टिकल्स लिख चुके ललित शर्मा साथ हो लिए थे। साथ ही अभनपुर नगर पंचायत उपाध्यक्ष किसन सिंह भी हमारे साथ आ गए थे।

लेकिन इससे पहले कि हम अभनपुर से धमतरी की ओर आगे बढ़ते स्टेशन पर ही हमे बड़ी संख्या में दैनिक यात्री मिल गए। दैनिक यात्रियों में ज्यादातर रायपुर में मजदूरी करने जाने वाले थे। इन यात्रियों को नेरोगैज की रायपुर तक परिचालन नहीं होने का सबसे ज्यादा दुख था।

क्योंकि वे 10 रूपये में अभी तक रायपुर पहुँच जाते थे। लेकिन अब उन्हें इसके लिए 30 रूपये खर्च करने पड़ेंगे। वास्तव में रूपये की कीमत शहर में रहकर नौकरी करने वाले हम जैसे लोगों भले अच्छे से ना समझे। लेकिन जिनकी रोज की कमाई 200-250 दिहाड़ी है। वे जानते है कि 10-20 की बचत भी उनके लिए कितना जरूरी है।

हालांकि एक सच यह भी है कि इनमें से बहुत से बिना टिकट यात्रा भी करते हैं। बिना टिकट यात्रा करने की पीछे एक वजह रेल्वे प्रशासन से मिली छूट भी है। छूट ये कि ट्रेन में कोई टीटी होता नहीं और ना ही कभी कोई चेकिंग होती है। लिहाजा इस छूट में बहुत से यात्री जैसे लूट की यात्रा भी कर लेते हैं।

खैर अब अभनपुर से ट्रेन धमतरी के रास्ते आग बढ़ चुकी थी। लतित शर्मा नेरोगैज से जुड़ी कई दिलचस्प कहानियां सुनाते हैं। लेकिन कहानियों से पहले नेरोगैज के इतिहास को जान लीजिए।

छोटी रेललाइन के लिए वर्ष 1871 में नागपुर के साथ कृषि समृद्घ छत्तीसगढ़ को रेल सेवाओं से जोड़ने के लिए सर्वे किया गया। इस दौरान नागपुर से रायपुर तक रेललाइन बिछाने के लिए नागपुर- छत्तीसगढ़ रेल कंपनी का गठन किया गया।

1891 में रायपुर से धमतरी के लिए 44 मील सर्वेक्षण का काम शुरू हुआ। वहीं 17 अप्रैल 1896 को रायपुर- अभनपुर -राजिम के ट्राम वे की अनुमति मिली। वर्ष 1900 में सितंबर से दिसंबर के मध्य 45.74 मील लंबी एवं 10.54 मीटर लंबी राजिम रेल लाइन को यातायात के लिए खोला गया।

छोटी रेललाइन के इंजन को ऑस्ट्रेलिया की मेंिनंग वार्डले कंपनी ने बनाया था। कंपनी ने कुल चार इंजन तैयार किए। रेलवे की तकनीकी भाषा में इन इंजनों को आरडी इंजन के नाम से जाना गया।
सन् 1980 में डीजल इंजन के साथ इसका परिचालन शुरू हुआ। इससे पहले तक यह भाप इंजन से ही ट्रेन चलती रही।

छोटी लाईन पर 22 किलोमीटर तक हो रहा एक्सप्रेस वे का निर्माण

 

लतित शर्मा कहते हैं कि छोटी लाईन किनारे ही उनका निवास है। उनके घर के पीछे से ही नेरोगैज गुजरती है। वे बचपन से ही छुक-छुक गाड़ी की आवाज सुन रहे हैं। वे इस ट्रेन से सैकड़ों बार यात्रा बचपन से लेकर अब तक कर चुके हैं।

अपनी इन्ही यात्राओं की बदौलत उन्होंने इस पर शोध आलेख भी लिखें है। कॉलेज के दिनों में वे इस ट्रेन से ही रायपुर जाया करते थे। तब वे 5 रुपये मासिक पास पर यात्रा करते थे। फिर इसके बाद 10, 20 और 35 रुपये में मासिक पास इसके रायपुर तक बने।

अभनपुर में उच्च शिक्षा की कोई व्यवस्था थी नहीं। यहां के लोगों के लिए उच्च शिक्षा के लिए रायपुर ही जाना पड़ता था। लिहाजा बहुत से कॉलेज के साथी इसी ट्रेन से ही यात्रा करते थे। यहां तक वे जब पत्रकार बने तो तब भी वे इस ट्रेन से ही सफर करते थे।

अंग्रेजों ने इस ट्रेन की शुरुआत गुड्स ट्रेन के रूप में की थी। धमतरी के नगरी में साल वृक्ष का जंगल है। यहां के साल वृक्ष बहुत मजबूत होते हैं। अंग्रेजों ने इस साल वृक्ष का इस्तेमाल स्लीपर के लिए किया।
घमतरी में बड़ी संख्या में आरा मिलें थी। इन मिलों में साल वृक्ष की तख्तियां तैयार होती थी। फिर उन्हें मालवाहक गाड़ी से रायपुर और उसके बाद अन्य जगहों पर भेजा जाता था। रायपुर से धमतरी तक घना जंगल था। रेल्वे लाईन के दोनों किनारे बड़े-बड़े वृक्ष थे। लेकिन समय के साथ खेती का प्रचलन बढ़ा और जंगल कटते चले गए।

यात्रा के इस कड़ी में ललित शर्मा के मित्र और अभनपुर नगर पंचायत के उपाध्यक्ष कृष्ण कुमार भी अपनी यादों को साझा करते हैं। वे कहते हैं कि बीते 40 साल से अपने घर के सामने से गुजरने वाली इस छुक-छुक गाड़ी को देख रहे हैं। बचपन अभनपुर के स्टेशन और छुक-छुक गाड़ी में खेलकर बीता है। वे इस ट्रेन रायपुर भी गए और राजिम-धमतरी भी। राजिम मेला बचपन के दिनों में इस ट्रेन से जाते रहे हैं। इस ट्रेन को 2 डिब्बिया ट्रेन भी कहते हैं। क्योंकि शुरुआती दिनों इसमें सिर्फ दो डिब्बे थे। हां पहले फर्स्ट क्लास डिब्बा होता। वह काफी साल पहले ही हट गया है।

अब धीरे-धीरे ट्रेन आगे बढ़ते-बढ़ते धमतरी तक पहुँचते जा रही थी। सुबह के तकरीबन अब 9.30 बजे चुके थे। सुबह के नास्ते के साथ भूख सता रही थी। लेकिन ललित शर्मा जी पहले से ही इसका इंतजाम कर रखें थे। वे घर से नास्ता लेकर हमारे साथ सफर पर चले थे। ललित जी के साथ उनका बेटा उदय भी था। ललित जी ने सोमशा और जलेबी के साथ हमे जलपान कराया। छुक-छुक ट्रेन में इस स्वादिष्ट आहार का अपना एक अलग ही आनंद था।

इस आनंद के बीच ललित जी हमे फिर से बीते दौर में ले जाते हैं। वे बताते हैं कि यह ट्रेन 100 साल पुराना है। और इसके साथ कई सांस्कृतिक रिश्तें जुड़े हैं। मैंने कई बरातें इस ट्रेन में आते-जाते देखीं है।

मुझें भाईदूज का एक वो दिन याद आ रहा है। जब कुरूद से दो बहने इस ट्रेन से अभनपुर स्टेशन पर उतरी। तब हम अपने मित्रों के साथ स्टेशन में ही थे। उन दोनों बहनों के भाई भी स्टेशन पर था। बहनों ने अपने भाई का स्टेशन में ही पूजा की। और फिर वहीं से छुक-छुक ट्रेन पकड़ वापस अपने गाँव चली गई।

इस ट्रेन से जुड़े कई किस्से है। ग्रमीणों के अर्थव्यवस्था में सहायक ये ट्रेन रही है। भले ही हम जैसे शहरी यात्रियों के लिए यह ट्रेन सुविधाजनक नहीं हो। लेकिन ग्रमीणों के लिए ये ट्रेन कितना सुविधाजनक रही है। इसका एक किस्सा जरा सुनिए।

ऐसे ही एक किस्सा का जिक्र ललित शर्मा करते हैं। वे बताते हैं कि 1980 के दशक में इंडिया टुडे में एक स्टोरी छपी थी। स्टोरी ये थी कि राजिम से नेरोगैज से रायपुर के लिए निकली। तब बड़ी संख्या में सब्जी लेकर महिलाएं रायपुर जाती थी। इस बीच रास्ते में एक महिला की सब्जी से भरी टोकरी ट्रेन से नीचे गिर गई। ट्रेन ड्राइवर को जब पता चला तो 7 किलोमीटर तक रिवर्स कर ट्रेन टोकरी उठाने के लिए ले गए।

छुक-छुक गाड़ी से दिलचस्प कहानियों के बीच अब हम धतमरी पहुँच चुके थे। नेरोगैज में रायपुर से धमतरी तक की यह मेरी पहली और आखिरी यात्रा थी। क्योंकि इसके बाद अब कभी रायपुर से ट्रेन धमतरी तक नहीं चलेगी।

यात्रा के समाप्त होते ही मुझे ललित शर्मा की बातें याद आ रही थी। अंग्रेजों ने भले ही साल(सरई) लकड़ी के लिए गुड्स ट्रेन की शुरुआत की रही हो। लेकिन 117 साल पहले रायपुर से धमतरी तक 70 किलोमीटर तक की रेल लाईन वो बिछा गए थे।  दूसरी ओर हम 117 साल में इस लाईन को बड़ा कर बस्तर तक भी नहीं ले जाए पाए। बल्कि हुआ ये कि छोटी लाईन को सरकार ने और छोटी कर दी।

अब इस छोटी लाईन पर छुक-छुक गाड़ी नहीं दौड़ेगी। रायपुर से केन्द्री तक 22 किलोमीटर की बिछी पटरियों को अब उखाड़ी जा रही है। क्योंकि अब इस लाईन पर एक्सप्रेस वे बनना है। अब शहर के बीच से गुजरने वाली नेरोगैज को लोग कभी नहीं देखेंगे। ना कभी ट्रेन की आवाज सुनेंगे। नैरोगेज लाइन की 76.96 हेक्टेयर जमीन पर एक्सप्रेस-वे का निर्माण किया जाएगा। इस सड़क के बन जाने से रेलवे स्टेशन से एयरपोर्ट तक सीधी सड़क मिल जाएगी।

नेरोगैज के इतिहास में हो सकता है बहुत कुछ छूट गया हो। क्योंकि इस ट्रेन से जुड़ी कहानियां अनगिनत है। दिल करे कभी इस ट्रेन में यात्रा करने की तो केन्द्री आइएगा। काश ! ये नेरोगैज शिमला या दार्जलिंग में चलने वाली पर्यटक ट्रेन की तरह चल पाती।

इस ऐतिहासिक और खुबसूरत यात्रा में जिक्र अब उस कैमरामेन मित्र प्रकाश यादव का जिसे याद किए बिना ये यात्रा पूरी नहीं होती। क्योंकि इस यात्रा के दौरान की तस्वीर जो भी साझा किए गए सब मित्र प्रकाश के लिए हुए हैं।