विक्रम मिश्र, लखनऊ। उत्तर प्रदेश की सियासत में आने वाला साल राजनीति की धुरी और ध्रुव तय करने का साल होगा। जिसमें मुख्य भूमिका में होंगे दलित वोटर्स। इन वोटर्स को रिझाने में गैर भाजपाई दल अपनी अलग-अलग रणनीति तय कर रहे है। लिहाजा बसपा के साथ कांग्रेस और भाजपा की मुश्किलें बढ़ने वाली है।

लल्लूराम बताएगा किस ओर बैठेगा राजनीतिक ऊंट

समाजवादी पार्टी पीडीए और संविधान बचाओ यात्रा के जरिये दलितों के करीब पहुचने की कोशिश में है। ऐसे में संसद में दिया गया गृह मंत्री अमित शाह का बयान उसके लिए उत्प्रेरक का कार्य कर रहा है। इसके अलावा कांग्रेस संविधान बचाओ न्याय यात्रा की तैयारियों को फिर से धार देने की फिराक में है। इसके साथ ही चंद्रशेखर की आजाद समाज पार्टी भी मुस्लिम और दलितों के कॉकटेल को अपनी ग्लास में उतारने की कोशिश में है।

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बसपा के लिए खतरा और चुनौती दोनों

कांशीराम ने अपने मूवमेंट को राजनीतिक चोला पहनने के साथ ही पहली बार 1984 मे बामसेफ से इतर बहुजन समाज पार्टी का निर्माण किया था। जो चुनावी मैदान में अपनी स्थिति का आंकलन करने के लिए उस समय 1989 में चुनावी चौसर पर सियासी लड़ाई में उतरी भी और 372 सीट के मुकाबिल 13 सीटों पर जीत हासिल कर अपने वजूद का एहसास करवा दिया था। इसके बाद मध्यावधि चुनाव में भी बसपा का वोट प्रतिशत तो बढ़ा लेकिन एक सीट के नुकसान के साथ 12 सीट पर जीत हासिल हुई। ये साल या दौर वो था जिसमें की कांग्रेस पूर्ण बहुमत में सरकार ने थी और दलित मुस्लिम का समीकरण पंजे के साथ खड़ा था।

बाबरी कांड का हुआ था फायदा

बाबरी कांड 1992 के बाद तत्कालीन सरकार ने इस्तीफा दे दिया था। जिसके बाद चुनाव मैदान में गई बसपा को इसका सियासी फायदा मिला और बहुजनों के दम पर 67 सीट हासिल हुई और मुलायम के नेतृत्व वाली सपा को 107 सीट, लिहाज गठबन्धन धर्म के आधार पर मुलायम सिंह यादव को सूबे की कमान मिली।

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गेस्ट हाउस कांड माया बनी आयरन लेडी

1995 में गेस्ट हाउस कांड के बाद मायावती ने सपा से समर्थन ले लिया और प्रदेश मध्यवधि चुनाव में झोंक दिया गया। इसके बाद लालजी टण्डन और कलराज मिश्र ने बसपा की हैसियत को देखते हुए भाजपा के साथ गठबंधन करवाया और पहली बार मायावती ने सत्ता का सिंघासन पाया था। कहते है न , बेमेल का बियाह कनपटी पर सेनुर वाला हाल हुआ और सरकार कुछ ही दिनों में गिर गई। लेकिन इस गठबन्धन का फायदा मायावती को स्थापित करने में मिला और बसपा प्रदेश की राजनीति में हाशिये से केंद्र में स्थापित हो गई।

मायावती का समाज ही उनसे हो गया दूर

मायावती जाटव समाज से आती है लेकिन चुनावी शीर्ष पर पहुचने के बाद मायावती ने इन पर ध्यान नहीं दिया। आपको बता दें कि 2002 तक बसपा के खाते में दलितों के 70 फीसदी तक वोट मिलते थे। यूपी में एक ऐसी कहावत भी थी कि बसपा से टिकट पाने का मतलब की विधानसभा चुनाव में 20 हजार प्लस से आपकी गिनती शुरू होगी लेकिन समय के साथ स्थिति बदली और आयरन लेडी के रूप में स्थापित मायावती कब दौलत की देवी के रूप में जाने जानी लगी।

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संघर्ष तय करेगा बसपा-सपा और कांग्रेस का वजूद

कांग्रेस की न्याय यात्रा और सपा का अंबेडकर पर चर्चा के साथ अन्य सियासी मुद्दे जिसमे दलित समिलित है उनको लेकर कौन सी पार्टी कितना मेहनत करती है उसपर निर्भर करेगा। इसके अलावा भाजपा से मुकाबला करने के लिए नया गठबन्धन अगर बनता है तो उसमें शोषित वंचितों और दलितों के साथ अन्य पिछड़ी जाति ओबीसी का क्या रोल रहेगा ये भी देखना दिलचस्प होगा।