छत्तीसगढ़ सरकार ने किसानों और गौपालकों से गोबर खरीदने का फैसला किया है. इसका इस्तेमाल गौठानों में वर्मी कंपोस्ट बनाने में होगा. ये फैसला देश में अपनी तरह का पहला फैसला है. जिससे किसानों और पशुपालकों से गोबर खरीदकर उनके लिए अतरिक्त आय की व्यवस्था सुनिश्चित की गई है. सरकार ने इस फैसले के साथ अपनी किसानोन्मुखी सरकार की इमेज को और पुख्ता किया है. पूरे देश में गाय बड़ा राजनीतिक विषय है. सरकार ने इस फैसले से ये संदेश भी दिया है कि ये गायों को लेकर गंभीर प्रयास कर रही है. सरकार का कहना है कि इस फैसले से सबसे अच्छा असर ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा. ग्रामीण अर्थव्यवस्था का कमज़ोर होना परे देश में कृषि विशेषज्ञों और अर्थशास्त्रियों के लिए चिंता का सबब है. दरअसल, इस फैसले को एक साल से चल रही छत्तीसगढ़ के फ्लैगशिप कार्यक्रम- ‘नरवा,गरुवा,घुरवा अऊ बारी’ का विस्तार है.
सरकार गौठानों को ग्रामीण औद्योगिक केंद्र की तरह विकसित करने की बात करती आई है. जहां से गांव के युवाओं को रोज़गार मिले और महिलाएं स्वावलंबी भी बनें. कई गौठानों को संचालित करने वाली महिलाओं के स्वयं सहायता समूह ने इस दिशा में बेहतर काम किया. उनकी गौउत्पादों की जमकर तारीफ हुई.
दरअसल,गौठान उस ‘नरवा,गरुआ,घुरवा और बारी’ के तहत चल रहे ग्राम सुराजी योजना का एक प्रमुख अंग है. जिसे भूपेश बघेल की सरकार ने सत्ता में आते ही शुरु किया. योजना के चार अंग हैं. नालों का संरक्षण एवं संवर्धन, सामुदायिक गौठानों का निर्माण, गौठानों में कंपोस्ट का निर्माण करके जैविक खेती की तरफ राज्य को मोड़ना और वर्मी कंपोस्ट के इस्तेमाल से सामुदायिक बाड़ी का निर्माण करना. जिसमें जैविक सब्जियों और मवेशियों के लिए हरा चारा उत्पन्न करना शामिल है.कुल मिलाकर ये ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मज़बूत करने के उद्देश्य से बनाया गया कार्यक्रम है. सरकार को उम्मीद है कि इस योजना से बेरोज़गारी और बेहिसाब शहरों के फैलाव पर रोक लगेगी.
ग्रामीण अर्थव्यस्था को समझने वाले विशेषज्ञ भी मानते हैं कि इस तरह की योजना की दरकार इस वक्त बेहद ज़रुरी है. जिसकी शुरुआत छत्तीसगढ़ सरकार ने की है. योजना को लागू हुए एक साल से ज़्यादा का वक्त बीत चुका है. सरकार ने इसकी समीक्षा की है. उसके बाद योजना को मदद करने के लिए दो अन्य योजनाएं शुरु की हैं. ग्रामीण अंचलों में चलने वाले ‘रोका-छेका’ अभियान को सरकार ने मान्यता देते हुए हर जगह इसे अनिवार्य रुप से लागू करने को कहा है. माना जा रहा है कि ‘रोका-छेका’ के जरिए जो लोग मवेशियों को गौठान में न भेजकर आवारा छोड़ देते थे. वो अब गौठान में अपने मवेशी भेजने को मजबूर होंगे. इसी तरह ‘गोधन न्याय योजना’ से पशुपालकों को उन मवेशियों से भी आय होगी. जो दूध नहीं दे रही हैं. गोबर सरकार खरीदेगी तो मवेशियों को घरों में रखने की आदत बनेगी.
प्रदेश में करीब 2 हज़ार गौठानों को बने एक साल हो चुका है. लिहाज़ा वो कितने अपने उद्देश्यों को हासिल करने में कामयाब हुए और कहां चूक हो रही है, इस पर सरकार को फीडबैक,सुझावों और समीक्षा की ज़रुरत है.
बीते साल राज्य में बने गौठानों को सत्ता पक्ष उपलब्धि के तौर पर प्रचारित करता रहा है जबकि विपक्ष इसे फेल बताता है. विपक्ष का कहना है कि गौठानों में मवेशियों को रखने में सरकार असफल हुई है. जबकि सरकार का कहना है कि इन गौठानों के माध्यम से महिलाएं जगह-जगह सफलता की कहानी गढ़ रही हैं. ये गौठान कितने सफल हुए हैं. कितने नहीं, ये बहस का मुद्दा है. लेकिन कुछ ज़मीनी बातों को समझना ज़रुरी है.
दरअसल, गांवों में गौठान पहले से रहे हैं. जहां गाय और मवेशी रहते आए हैं. गांवों में इसका रकबा बाकी सामुदायिक ज़मीनों की तरह कम हो रहा है. सरकार अपने अधिकारों का इस्तेमाल करके सामुदायिक इस्तेमाल की जगह का रकबा बढ़ा सकती है. इससे सामुदायिकता की भावना भी बढ़ेगी. जो इस योजना की कामयाबी के लिए बेहद ज़रुरी है.
सरकार गौठान के ज़रिए फसलों को मवेशियों से बचाना चाहती है और प्रदेश के ज़्यादातर खेतों को बहुफसली बनाकर किसानों को समृद्ध बनाना चाहती है. अगर बारहों महीने मवेशियों का खतरा खेतों पर न हो तो सुक्ष्म सिंचाई की परियोजना के ज़रिए खेतों से ज़्यादा से ज़्यादा फसलें ली जा सकेंगी.
सरकार की मंशा है कि गौठानों में मवेशी दिन भर रहें. लेकिन प्रदेश में कई ऐसे गौठान हैं,जहां पशु दिन भर नहीं रह रहे हैं. इसकी वजह गौठान में चारे की उपलब्धता का न होना है. दरअसल, पुआल की शुरुआती व्यवस्था पैरादान पर निर्भर थी. कई जगह लोग पैरादान करना चाहते थे लेकिन दिक्कत ये है कि उनके पैरावट से गौठान तक पैरा कैसे लाया जाए. इसी तरह मुख्यमंत्री ने बार-बार खेतों में कटाई के बाद बचे हुए धान और गेंहू के स्ट्रा के इस्तेमाल पर ज़ोर दिया लेकिन उनकी इच्छा के अनुरुप कृषि विभाग ने उन गावों में इसे निकालने वाली मशीन स्ट्रॉ रिपर की व्यवस्था सुनिश्चित नहीं की. विभाग के पास एक विकल्प स्ट्रॉ रीपर पर अनुदान की राशि बढ़ाकर इसे प्रोत्साहित करने का विकल्प भी था.
मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने इन गौठानों में नस्ल सुधार कार्यक्रम चलाने की बात कही थी. लेकिन एक साल बाद इस पर कितना अमल हो पाया. ये बड़ा सवाल है. सीएम का ये आईडिया बेहद शानदार था. अगर गौठान को मवेशियों के टीकाकरण, स्वास्थ्य परीक्षण केंद्र, कृत्रिम गर्भाधान केंद्र के रुप में विकसित किया जाए तो ये हर पशुपालक अपने हर गाय को गौठान पहुंचाता क्योंकि मवेशियों को गांवों में इलाज मिलना बेहद मुश्किल है. कई पशुपालकों के लिए वरदान साबित हो सकते हैं जो हर साल अपने कई मवेशी सिर्फ समय पर इलाज न मिल पाने की वजह से गंवा देते हैं. इसी तरह सरकार गर्भाधान, टीकाकरण के कार्यक्रम चलाती है. अगर ये कार्य गौठानों में अक्सर संपादित किए जाएं तो इसका फायदा हर किसी को होगा और योजना अपने लक्ष्यों की ओर बढ़ेगी.
सरकार योजना के तीसरे घटक ‘घुरवा’ के तहत जैविक खेती को बढ़ावा देने के उद्देश्य से बड़ी तादाद में वर्मी कंपोस्ट तैयार करवा रही है. इससे ग्रामीण क्षेत्र में रोज़गार के अवसर पैदा होंगे. सरकार का एक लक्ष्य रासायनिक खेती को हतोत्साहित करके जैविक खेती की ओर राज्य को बढ़ाना है. ये बात महत्वपूर्ण है कि अगर सिर्फ वर्मी कंपोस्ट से खाद की ज़रुरत को पूरा किया जाए तो राज्य को करीब 2.5 करोड़ टन वर्मी कंपोस्ट की ज़रुरत होगी. इसे इस समझा जा सकता है कि राज्य में खरीफ के मौसम में कुल रासायनिक खाद की ज़रुरत करीब 12 लाख टन की है. यूरिया में 46 फीसदी नाइट्रोजन होता है जबकि वर्मी कंपोस्ट में 2 फीसदी तक नाइट्रोजन होता है. इस लिहाज़ से पौधों के नाइट्रोजन की ज़रुरत पूरी करने के लिए एक किलो यूरिया के अनुपात में करीब 25 किलो वर्मी कंपोस्ट की ज़रुरत होगी.
वर्मी कंपोस्ट की मौजूदा दरों पर किसानों के लिए ये बड़ा खर्च है. लेकिन सरकार के लिए बहुत बड़ा खर्च नहीं है. मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने 2019 में इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय के एक कार्यक्रम में कहा था कि वर्मी कंपोस्ट की कीमत 3 रुपये किलो के आसपास होनी चाहिए जिससे किसान इसे खरीद सकें. गोबर खऱीदी में इस बात को भी दृष्टिगत रखना जरुरी होगा.
वर्मी कंपोस्ट में पौधों के लिए ज़रुरी हर तरह के प्रमुख पोषक तत्व मौजूद रहते है. इस्लिए वो पौधों की ज़रुरत पूरी कर सकता है. हालांकि ये बात भी महत्वपूर्ण है कि जैविक खाद का बड़ा साधन होने के बाद भी वर्मी कंपोस्ट अकेला जैविक खाद नहीं है. वर्मी कंपोस्ट फसलों की ज़रुरतों को पूरा कर सकती है लेकिन उद्यानिकी की फसलों के लिए किसान को ज़्यादा शक्तिशाली उर्वरक चाहिए. उनकी जरुरतों को पूरा करने के लिए वर्मीफास्ट, मिनरल एडेड वर्मी कंपोस्ट और वर्मी वॉश गौठानों में तैयार कराया जा सकता है. इसके अलावा प्रदेश में कई फर्म दूसरे जैविक खाद जैवामृत, घनामृत, बैक्टिरिया कल्चर और अन्य जैविक कीटनाशकों के उत्पादन को बढ़ावा देने में लगी हुई है. सरकार चाहे तो इन जैविक उत्पादों को किसान की जरुरत के हिसाब से खरीदकर किसानों तक पहुंचा सकती है. सरकार को इस क्षेत्र में पहले से मौजूद करके जैविक कृषि के लिए उत्पाद बनाने वाले पशुपालकों और व्यावसायियों का ख्याल भी रखना होगा. इन लोगों ने बिना सरकारी मदद के संघर्ष के साथ पृथ्वी को रसायन मुक्त रखने में अपना योगदान दिया है.
आज नहीं तो कल कैंसर और दूसरी गंभीर बीमारियों के बढ़ते खतरे को दखते हुए दुनिया को जैविक खेती की तरफ लौटना ही होगा. जो पहले शुरुआत करेगा वो फायदे में रहेगा. आज दुनिया में रसायन मुक्त कृषि उत्पादों की मांग और कीमत ज़्यादा है. यहां किसानों की आर्थिक समृद्धि को इस रास्ते हासिल किया जा सकता है. दुनिया में ऑर्गेनिक खेती की दो नायाब मिसालें हैं. क्यूबा और इज़राइल. इज़राइल ने ये तकनीक बड़ी पूंजी के ज़रिए हासिल की है.जबकि क्यूबा ने पारंपरिक तरीके से. जब क्यूबा पर 1991 में अमेरिका पर प्रतिबंध लगा दिए. तब क्यूबा पारंपरिक खेती की ओर लौटा और उसने उत्पादन के सारे रिकार्ड तोड़ दिए. छत्तीसगढ़ की आर्थिक स्थिति बड़े पैमाने पर क्यूबा के रास्ते और कुछ बड़े किसानों के साथ इज़राइज के रास्ते ये कामयाबी हासिल कर सकता है. लेकिन इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए फिदेल कास्त्रो जैसी दृढ़ इच्छाशक्ति की जरुरत है और भूपेश बघेल में ये माद्दा दिखता है.
(लेखक पत्रकार हैं और डेयरी के जानकार हैं. आलेख में उनके विचार निजी हैं)