लेखक- कनक तिवारी, वरिष्ठ अधिवक्ता

28 सितंबर , 1991 को आखिरकार शंकर गुहा नियोगी की हत्या कर ही दी गई। जिंदगी और मौत के बीच एक जोखिम भरे व्यक्तित्व ने अपनी आखिरी साँस उन मजदूर साथियों के लिए तोड़ दी , जिनके लिए नियोगी का नाम अमर रहेगा। रात के घने अंधकार में छत्तीसगढ़ के ट्रेड यूनियन का एक रोशन सितारा बंदूक की गोलियों ने ओझल कर दिया। नियोगी धूमकेतु की तरह ट्रेड यूनियन के आकाश में अचानक उभरे थे। काॅलेज की अपनी पढ़ाई छोड़कर साधारण मजदूर की तरह जिंदगी के शुरुआती दौर में जबर्दस्त विद्रोह , अड़ियलपन और संघर्षधर्मी तेवर लिए शंकर गुहा नियोगी ने राजहरा की चट्टानी जमीन पर तेजी से जगह बनानी शुरू कर दी। बमुश्किल पांच बरस के ट्रेड यूनियन जीवन में ही नियोगी में शीर्ष नेता की शक्ल उभरने लगी थी। फिर दो दशक शंकर गुहा नियोगी व्यवस्था की आँख की किरकिरी , मजदूरों के रहनुमा और बुद्धिजीवियों की जिज्ञासा के आकर्षण केन्द्र बने रहे।

उनके रहस्यमय विद्रोही और विरोधाभासी व्यक्तित्व में अनेक विसंगतियाँ भी ढूंढ़ी जाती थीं। उनके इर्द-गिर्द आलोचकों के तिलिस्मी मकड़जाल चटखारे लेकर बुने जाते। उन्हें नक्सलवादी , आतंकवादी , हिंसक , षड़यंत्रकारी , सी.आई.ए. का एजेंट और न जाने कितने विशेषणों से विभूषित किया गया। नियोगी का व्यक्तित्व धीरे-धीरे विराटतर होता जा रहा था। ट्रेड यूनियन आंदोलन से ऊपर उठकर वे समाज सेवा , पर्यावरण , राजनीतिक चिंतन और सामाजिक आंदोलनों के पर्याय भी बन गए थे। अपने युवा जीवन में ही नियोगी ने इतनी उपलब्धियाँ हासिल कर ली थीं , जो आम तौर पर एक व्यक्ति को बहुआयामी बनकर हासिल करना संभव नहीं है।

शंकर गुहा नियोगी राजहरा के भयंकर गोलीकांड के हीरो के रूप में उभरे थे। लोग तो अब भी कहते हैं कि व्यवस्था की साजिश उस समय भी यही थी कि गोलीकांड में नियोगी को खत्म कर दिया जाए ताकि प्रशासन की नाक में दम करने वाला दुर्धर्ष व्यक्ति व्यवस्था के रास्ते से सदैव के लिए हटा दिया जाए। यह नियोगी सहित मजदूरों और अन्य जीवंत सामाजिक कार्यकर्ताओं का सौभाग्य था कि नियोगी गोली के शिकार नहीं हुए। पुलिस द्वारा अचानक गिरफ्तारी के बाद मैंने नियोगी की रिहाई के लिए कानूनी लड़ाई लड़ी और बाद में उन्हें जब राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम के अंतर्गत निरोधित किया गया , तब भी एक जागरूक नागरिक के नाते नियोगी की मदद करना मैंने अपना कर्तव्य समझा। ऐसा नहीं है कि उनसे वैचारिक मतभेद नहीं थे। दलीय धरातल पर हमने चुनाव के मैदान तथा अन्य मुद्दों पर एक-दूसरे का विरोध और समर्थन भी किया लेकिन इस जाँबाज नेता में वैयक्तिक समीकरण के रिश्तों को गरमा देने की अद्भुत क्षमता थी। नियोगी को राजनीति की अधुनातन घटनाओं की गंभीर से गंभीर और बारीक से बारीक जानकारियाँ रहती थीं। उनके चिंतन में बेरुखी, फक्कड़पन और बेतरतीबी थी। एक लड़ाकू श्रमिक नेता होने के नाते उनसे व्यवस्थित चिंतन की बौद्धिक कवायद की उम्मीद नहीं की जा सकती थी लेकिन नियोगी और उनके समर्थकों ने राजनीतिक मतभेद के बावजूद हममें से कई ऐसे लोगों के साथ व्यक्तिगत समझदारी के संबंध बना रखे थे जिससे हम दोनों के समर्थकों को कई बार कोफ्त भी होती थी।

राजहरा शंकर गुहा नियोगी की बुनियादी कर्मभूमि रही है। यहीं उन्होंने पुलिस की गोली से अपने साथियों को जिंदा आदमी से लाश में तब्दील होते देखा और शहीदों का कीर्ति स्तम्भ बनवाया। उन्होंने मद्य निषेध का ढिंढोरा पीटे बिना शराबखोरी की सामाजिक व्याधि के खिलाफ एकाएक जेहाद बोला। मजदूरों की सेवा शर्तों में सुधार के मामलों को लेकर वे अव्वल दर्जे के जिद्दी और सनकी राजनेता से लेकर एक व्यावहारिक , समझदार आदमी तक की भूमिका निभाते रहे लेकिन मजदूरों और समर्थकों के लिए हर समय निष्ठावान रहे। उनमें प्रकृति , परिवेश , पर्यावरण और परम्परागत भारतीय मूल्यों के प्रति गहरी आस्था थी। नियोगी में दक्षिण पंथी प्रतिक्रियावाद और किताबी साम्यवाद दोनों के प्रति एक जैसी अनास्था थी। वे कांग्रेस की मिश्रित अर्थ व्यवस्था अथवा मध्यमवर्गीय राजनीति विचारधारा को भी नापसंद करते थे। इस युवा बंगाली नेता में मुझे नौजवान बंगाल के बहादुर नेताओं की झलक दिखाई देती थी। वे विवेकानंद , सुभाषचंद्र बोस और भारत के असंख्य क्रांतिकारियों के प्रति अभिभूत होकर बात करते थे।

छत्तीसगढ़ के आदिवासी शहीद वीर नारायण सिंह की चर्चा होने पर उन्होंने बहुत गंभीरता के साथ इस व्यक्तित्व को अपने स्थानीय मिशन को अंजाम देने में आत्मसात किया। नारायण सिंह को आदिवासियों की अस्मिता , स्वाभिमान और अस्तित्व का प्रतीक बनाकर नियोगी ने एक स्थानीय आंदोलन चलाया। उनकी लोकप्रियता का मुकाबला करने के लिए कुछ नेताओं को सरकार के स्तर पर नारायण सिंह की याद में स्मारकों की घोषणा करनी पड़ी परंतु तब तक नियोगी लोकप्रियता की पायदान चढ़ते, आगे बढ़ते चले जा रहे थे। लगता था शंकर गुहा नियोगी को अपनी हत्या का पूर्वाभास तो था लेकिन वे इसे बातों में हँस कर उड़ा देते थे। उन्हें अपने साथियों की निष्ठा पर अटूट विश्वास था। नियोगी अपने साथियों के लिए पूर्ण समर्पण की भावनाओं से ट्रेड यूनियन के आंदोलन को हथियार की तरह उठाए यहाँ से वहाँ घूमते रहते थे। नई दिल्ली में एक बार सर्दी की सुबह छः बजे जब वे किसी काम से मेरे पास आए तो मैंने इस बात को खुद अपनी आंखों से देखा था कि वे काफी दूर से टैक्सी या आटो रिक्षा किए बिना पैदल ही चले आ रहे थे। उनके आलोचक उनके पास लाखों रुपये का जखीरा होने का ऐलान करते थे। उनकी यूनियन के पास जनशक्ति के अतिरिक्त धनशक्ति यदि हो तो इसमें कोई ऐतराज की बात नहीं थी लेकिन नियोगी ने मजदूरों के समवेत स्त्रोत से एकत्रित धनशक्ति की अपने तईं बरबादी नहीं की। यह बात नियोगी के नजदीक रहने वाले बहुत अच्छी तरह जानते हैं। शंकर गुहा नियोगी के व्यक्तित्व में एक साथ गांधी , माक्र्स और सुभाष के विचारों का मिश्रण था। वे कठमुल्ला माक्र्सवादी भी नहीं थे , जिस व्यवस्था में मानवीयता के गुणों को कोई जगह नहीं है। इसी तरह वे प्रजातंत्र की आड़ में अमरीका के नेतृत्व में पश्चिमी देशों के साम्राज्यवादी हथकंडों के भी सख्त खिलाफ थे।