गौतम बुद्ध ने आज ही के दिन (गुरु पूर्णिमा / आषाढ़ पूर्णिमा) सारनाथ में पांचों लोगों को सद्धर्म के मार्ग पर चलने का रास्ता दिखाया, उन्होंने बुद्ध को अपना गुरु मान लिया एवं वो उनके शिष्य बन गए. इसे धर्म चक्र प्रवर्तन कहा गया है.

आज के ही दिन दो ऐतिहासिक घटनाएं घटित हुई थी. आज ही के दिन सिद्धार्थ (गौतम बुद्ध) ने समस्त मानव जाति के कल्याण एवं दुख का निवारण के लिए सद्धर्म का मार्ग खोजने कपिलवस्तु के साम्राज्य को त्यागकर “कन्थक” अश्व पर सवार होकर अपने सेवक “चन्ना” के साथ इस प्रण के साथ निकले कि यदि मैं सद्धर्म का मार्ग खोजने में विफल रहा तो कपिलवस्तु वापस लौट कर नहीं आऊँगा. इसे “महाभिनिष्क्रमण” कहा जाता है.

लगभग छह वर्षों तक कठिन साधना करके बैशाख सुदी पूर्णिमा को बोध गया (बिहार) में बोधि वृक्ष के नीचे संबोधी की प्राप्ति की. सुजाता एवं अन्य बच्चों ने उनको पहली बार “बुद्ध” कह कर पुकारा था.

इसके बाद बुद्ध नैरंजना नदी के किनारे होते हुए पाटलिपुत्र से गंगा नदी के किनारे होते हुए काशी राज्य की राजधानी वाराणसी (ऋषिपट्टनम), जिसे अब सारनाथ कहा जाता है, के मृगदाय वन में पहुंचे, जहां अस्सजि, कौडिन्य, महानाम, भद्दिय एवं वप्प, जो पहले बुद्ध के साथ ही तपस्या कर रहे थे, जो बाद में उनको छोड़कर यहाँ चले आए थे. जब बुद्ध ने उनको बताया कि उसे सद्धर्म मार्ग मिल गया है, यह सुनकर उन सभी ने बुद्ध से निवेदन किया कि उनको भी वो मार्ग दिखाए.

बुद्ध ने उन पांचों शिष्यों को आज ही के दिन सद्धर्म के मार्ग पर चलने का रास्ता दिखाया. उन्होंने बुद्ध को अपना गुरु मान लिया और वो उनके शिष्य बन गए. इसे धम्मचक्कपवत्तन दिवस (धर्म चक्र प्रवर्तन) कहा गया है. पावनता के साथ बुद्ध ने अपनी देशना आरंभ की- मित्रों, धर्म-पथ के अनुगामी को ‘अतियों’ से बचना चाहिए. एक छोर तो विषय वासना में आकंठ डूबने का है, और दूसरा छोर घोर तपश्चर्या के द्वारा शरीर को कष्ट देने या मूलभूत आवश्यकताओं से भी वंचित करने का है.

इन दोनों प्रकार की ‘अतियों’ से अंत में विफलता ही हाथ लगती है. जो मार्ग मैंने खोजा है, वह मध्य मार्ग (मज्झ मार्ग) है, जिसमें दोनों प्रकार की ‘अतियों’ के लिए कोई स्थान नहीं और यह मार्ग ज्ञान, मुक्ति और शांति के पथ पर अग्रसर करने की क्षमता रखता है. यह पवित्र अष्टांगिक मार्ग है, जिसके माध्यम से सम्यक् ज्ञान, सम्यक् विचार, सम्यक् वाणी, सम्यक् कर्म, सम्यक् जीवन-यापन, सम्यक् प्रयास, सम्यक् चेतना और सम्यक् एकाग्रता संभव होती है. मैंने इस पावन अष्टांगिक मार्ग को अपनाया है, और ज्ञान, मुक्ति एवं शांति की अनुभूति की है.

भाइयों, इस मार्ग को मैं इसलिए सम्यक् मार्ग कहता हूँ कि इसमें न तो कष्टों से बचा जाता है, और न उसका अस्वीकार किया जाता है, बल्कि उनको सीधे सामना किया जाता है, ताकि उनसे उबरा जा सके. पवित्र अष्टांगिक मार्ग सचेतनावस्था में जीने का मार्ग सतत् सचेतनावस्था इसकी आधारशिला है. सचेतनावस्था का अभ्यास करने से चित्त में इतनी एकाग्रता आ जाती है कि इससे ज्ञान (प्रज्ञा) की प्राप्ति की जा सकती है. सम्यक् एकाग्रता से चेतना, विचारों, वाणी, कर्म, जीवन-यापन और प्रयास की सम्यकता प्राप्त हो पाती है. इस प्रकार जो ज्ञान प्राप्त होता है, उससे कष्टों के हर बंधन से मुक्ति मिलती है. और सम्यक् शांति और आनंद का उदय होता है.

सभी को धम्मचक्कपवत्तन दिवस (आषाढ़ी पूर्णिमा/गुरू पूर्णिमा) की मंगल कामनाएं.