वरिष्ठ आलोचक डॉ. राजेंद्र मिश्र नहीं रहे। उनके निधन की खबर मिलते ही बहुत सी स्मृतियां ताजा हो गईं। देशबंधु में उनका आना जाना लगा रहता था। देशबंधु ने जब साहित्य वार्षिकी शुरू करने का फैसला किया था, तब ललित सुरजन जी ने उन्हें अतिथि संपादक बनाया था। अक्षर पर्व के नाम से निकली इस वार्षिकी के संपादक थे विनोद वर्मा। देश के साहित्य जगत में यह एक बड़े धमाके की तरह था। उस समय तक दिल्ली से निकलने वाली प्रतिष्ठित पत्रिका इंडिया टुडे कई साहित्यिक वार्षिकी निकाल चुकी थी। मगर रायपुर जैसे शहर, वह भी तब जब छत्तीसगढ़ मध्य प्रदेश का हिस्सा था, अक्षर पर्व की कल्पना किसी साहस से कम नहीं थी। वार्षिकी पूरी धमक के साथ निकली और रायपुर को एक नया मुकाम मिला। राजेंद्र मिश्र जी, ललित सुरजन जी और विनोद वर्मा ने देशभर से साहित्यकारों, बुद्धिजीवियों को इससे जोड़ा। बौद्धिक जगत में अक्षर पर्व वार्षिकी हलचल की तरह थी।
अक्षर पर्व की सफलता के बाद जब यह विचार आया कि इस पत्रिका को मासिक के रूप में निकाला जाए तो इन पंक्तियों के लेखक को उसका संपादक बनने का अवसर दिया गया। यह वह दौर था, जब विनोद वर्मा देशबंधु के दिल्ली ब्यूरो प्रमुख बन चुके थे। ललित जी शुरू में त्रैमासिक के रूप में पत्रिका निकालना चाहते थे अंततः यह मासिक के रूप में शुरू हुई। इसकी रूपरेखा पर काफी मंथन हुआ। इसमें राजेंद्र मिश्र, प्रभाकर चौबे के साथ ही विनोद कुमार शुक्ल जी की भी अहम भूमिका थी। अंततः 1998 की शुरुआत में अक्षर पर्व मासिक शुरू हुई। उसके बाद इसकी वार्षिकी का क्रम भी जारी रहा। वार्षिकी का अतिथि संपादन राजेंद्र मिश्र जी ने ही किया। उस दौरान उनके साथ नजदीक से काम करने का अवसर मिला। पता चला कि वह देश के तमाम शीर्ष साहित्यकारों से उनके आत्मीय संबंध हैं। रचनाएं आमंत्रित करने के लिए वह जिस तरह से पत्र लिखते थे, वह साहित्य और पत्रकारिता के छात्रों के लिए सबक की तरह कहा जा सकता है। शब्दों को लेकर वह बहुत किफायती थे। मजाल है उनकी चिट्ठी पर पर कोई बड़ा साहित्यकार जवाब न दे। मैंने देखा है कि डेडलाइन नजदीक आने पर उन्होंने सिर्फ एक प्रश्चचिन्ह (‘?’) लिखकर कई बड़े साहित्यकारों को फैक्स कर दिया। अगले चौबीस घंटे में रचनाएं उनके नाम आ चुकी थीं।
आज विचारधारा को लेकर जिस संकट से हम गुजर रहे हैं, उसमें यह पहचानना मुश्किल नहीं है कि कौन किस पाले में है। राजेंद्र मिश्र ऐसे अनोखे साहित्यकार और बुद्धिजीवी थे जो वैचारिक रूप से प्रगतिशील होते हुए भी पार्टी के खांचे से नहीं बंधे थे। बल्कि मुझे तो याद है कि राजनांदगांव के दिग्विजय कॉलेज में मुक्तिबोध पर हुए एक कार्यक्रम में राजेंद्र मिश्र भी वक्ता थे और उन्होंने अपनी बात यह कहते हुए शुरू की थी कि, मैं कम्युनिस्ट नहीं हूं। दिलचस्प यह है कि उस कार्यक्रम में वरिष्ठ साहित्यकार रमेश याग्निक भी थे, जिनकी पहचान ही यही थी कि वह जब किसी सार्वजनिक मंच पर बोलने के लिए खड़े होते थे तो कहते थे, मैं यहां एक कम्युनिस्ट के रूप में अपनी बात कहने के लिए खड़ा हूं।
राजेंद्र मिश्र जी बाद में पदुमलाल पुन्ना लाल बख्शी पीठ के अध्यक्ष हो गए थे। वहां उन्होंने ब व कारंत से लेकर निर्मल वर्मा जैसी विभूतियों के व्याख्यान करवाए थे।
हैरत होती है कि अच्छे किस्सा गो राजेंद्र जी ने आलोचना जैसी कुछ जटिल और बोझिल माने जाने वाली विधा क्यों चुनी। वह कथाएं लिखते थे तो निश्चचय ही वह रोचक होती। उनके कहे का अंदाज भी बहुत निराला था। अक्सर यह कहा जाता है कि फलां जी यदि दिल्ली मेंं होते तो कुछ और होते। राजेंद्र जी रायपुर में ही रहे और वहां से दिल्ली उनके सम में रही। वह अक्सर मजाक में कहते थे, दिल्ली का कुत्ता भी अखिल भारतीय स्तर पर भौंकता है!
बहुत संकोच और उससे भी कहीं अधिक सम्मान के साथ मैं यह लिखने से खुद को रोक नहीं पा रहा हूं कि बाइस साल पहले जब मैंने रायपुर छोड़कर बाहर जाने का फैसला किया तो यह राजेंद्र मिश्र जी ही थे, जिन्होंने मुझे बकायदा विदाई पार्टी दी थी। रायपुर के फाफाडीह चौक के रेस्तरां में यह पार्टी हुई। इसमें तीन लोग थे, राजेंद्र जी, मैं और आलोक पुतुल। मैं और आलोक मेरी स्कूटर से जब रेस्तरां पहुंचे तो वहां राजेंद्र जी दरवाजे पर मिले। हमने संकोच किया तो वह बोले मेजबान को पहले आना चाहिए। जाते जाते राजेंद्र जी ने मुझसे यह भी पूछा बाहर जा रहे हो, धन की जरूरत तो नहीं है!
सर प्रणाम।