राजधानी की अदालतों में फिलहाल करीब 15.6 लाख मुकदमे लंबित हैं, जबकि इन्हें सुनने के लिए सिर्फ 700 जज उपलब्ध हैं. इनमें 13.5 लाख आपराधिक और 2.18 लाख सिविल केस शामिल हैं. इसका मतलब है कि हर जज के पास औसतन 2,200 मामलों का बोझ है. बढ़ती जनसंख्या, लगातार दर्ज हो रहे नए केस और सीमित न्यायिक संसाधनों के कारण यह संकट और गहराता जा रहा है.
नए केसों की रफ्तार, निपटान की रफ्तार से कहीं तेज
दिल्ली की अदालतों में हर साल जितने केस निपटाए जा रहे हैं, उससे कहीं तेजी से नए केस दाखिल हो रहे हैं. वर्ष 2018 में जहां 3.78 लाख केस निपटाए गए, वहीं 2024 में यह आंकड़ा 7.96 लाख तक पहुंच गया. लेकिन इसी अवधि में नए केसों की संख्या दोगुनी होकर 4.84 लाख से बढ़कर 10.2 लाख हो गई.
2018 से 2025 के बीच हर साल औसतन 1.3 लाख मामलों का अंतर दर्ज हुआ है यानी जितने केस खत्म हुए, उससे कहीं अधिक नए दाखिल हो गए. इसका असर यह हुआ कि अदालतों पर बोझ लगातार बढ़ता गया. हर दिन करीब 28,000 मामलों की सुनवाई 700 जजों द्वारा की जाती है, यानी प्रत्येक जज औसतन 40 केस प्रतिदिन सुन रहा है. कुछ जजों के पास 10,000 से अधिक लंबित मामले हैं और वे एक दिन में 150 से अधिक केस सुनते हैं, जबकि कुछ जज केवल चार से पांच केस ही निपटाते हैं- यह अंतर केस के प्रकार और अदालत के स्वरूप पर निर्भर करता है.
किस तरह के केस अटके हुए हैं
लंबित मामलों में सबसे बड़ा हिस्सा चेक बाउंस मामलों का है, जो 5.5 लाख से अधिक (37%) हैं. वहीं डिजिटल ट्रैफिक कोर्ट में लंबित चालान से जुड़े मामलों की संख्या 1.5 लाख (10%) है. बलात्कार, हत्या या गंभीर अपराधों से जुड़े केस कुल लंबित मामलों का 1% से भी कम हैं.
दिल्ली की अदालतों में लंबित मामलों में से दो-तिहाई 2023 से 2025 के बीच दाखिल हुए हैं, जबकि 94% केस 2018 के बाद के हैं. 2017 से पहले के केस केवल 6% हैं. दिलचस्प बात यह है कि राजधानी में दो सबसे पुराने केस वर्ष 1969 के हैं.
कुछ अदालतें पूरी तरह से चेक बाउंस मामलों पर केंद्रित हैं, जहां जज औसतन 120 केस रोज सुनते हैं. कानून के अनुसार ऐसे मामलों का निपटारा छह माह में होना चाहिए, लेकिन बढ़ते बोझ के कारण कई बार एक सुनवाई से दूसरी के बीच पूरा एक साल का अंतर पड़ जाता है. वहीं, एक अदालत सिर्फ DHFL बैंक धोखाधड़ी मामले (34,000 करोड़) की सुनवाई में लगी है.
क्यों हो रही है न्याय में देरी?
दिल्ली की अदालतों में देरी की प्रमुख वजहें भी आंकड़ों से स्पष्ट हैं. 3.26 लाख केस (20%) में वकील की अनुपलब्धता बताई गई है, जबकि 2.23 लाख (14%) मामलों पर स्टे ऑर्डर लगा हुआ है. लगभग 25,000 केस (1.5%) में आरोपी फरार हैं, वहीं 20,900 (1.3%) मामलों में दस्तावेजों का इंतजार है. इसके अलावा 13,600 (0.9%) केस गवाहों के इंतजार में अटके हैं.
इन सब कारणों से न्याय की प्रक्रिया लंबी होती जा रही है. इंडियन एक्सप्रेस के अनुसार, दिल्ली जैसे घनी आबादी वाले क्षेत्र में जहां आबादी लगभग तीन करोड़ के करीब है, वहां सिर्फ 700 जजों के भरोसे इतनी बड़ी संख्या में केसों का निपटान असंभव सा लगता है. अगर न्यायपालिका में जजों की संख्या नहीं बढ़ाई गई, तो न्याय के इंतजार में वर्षों की यह देरी और बढ़ सकती है- जिससे आम नागरिकों का भरोसा न्याय प्रणाली पर डगमगाने का खतरा बना रहेगा.
कुल मिलाकर, आंकड़े बताते हैं कि दिल्ली की निचली अदालतों में न केवल पुराने केस लंबित हैं बल्कि हर दिन हजारों नए केस इस बोझ को और बढ़ा रहे हैं. एक ओर जहां न्यायपालिका केस निपटाने की गति तेज करने की कोशिश कर रही है, वहीं सीमित संसाधन और बढ़ते मुकदमे न्याय तक पहुंचने के रास्ते को और कठिन बना रहे हैं. यह स्थिति बताती है कि देश की राजधानी में भी “समय पर न्याय” अभी भी एक दूर का सपना बना हुआ है.
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