जैन धर्म का सबसे बड़ा पर्व पर्युषण इस वर्ष श्रावण-भाद्रपद मास में श्रद्धा और संयम के साथ मनाया जा रहा है. यह पर्व आत्मशुद्धि, तप, क्षमा और संयम की साधना का काल माना जाता है. जैन समाज इसे वर्ष का सबसे पावन अवसर मानता है, जब परिवार और समाज मिलकर भक्ति, उपवास और स्वाध्याय में लीन हो जाते हैं.

इतिहासकारों और जैन ग्रंथों के अनुसार, पर्युषण की परंपरा का सूत्रपात भगवान महावीर स्वामी के समय से हुआ. हालांकि इसकी जड़ें उनसे पहले के तीर्थंकरों की शिक्षाओं तक जाती हैं, लेकिन महावीर ने इसे संयम और तप की प्रमुख साधना के रूप में स्थापित किया. यही कारण है कि श्वेतांबर परंपरा में पर्युषण आठ दिनों तक और दिगंबर परंपरा में दस दिनों तक दशलक्षण पर्व के रूप में मनाया जाता है.

पर्युषण का अर्थ है अपने भीतर ठहरना यानी बाहरी मोह-माया और भौतिक इच्छाओं से दूर रहकर आत्मा की ओर लौटना. इन दिनों में जैन अनुयायी उपवास, सामायिक, स्वाध्याय, प्रतिक्रमण और दान-पुण्य जैसे विशेष अनुष्ठानों का पालन करते हैं. अंतिम दिन क्षमावाणी का आयोजन होता है, जब समाज का हर व्यक्ति एक-दूसरे से क्षमा याचना कर मिच्छामि दुक्कडम् कहता है.

यह भावना इस पर्व की आत्मा मानी जाती है. जैन आचार्यों का मानना है कि पर्युषण केवल उपवास का पर्व नहीं, बल्कि आत्मा की शुद्धि का उत्सव है. महावीर स्वामी के संदेशों को याद करते हुए समाज संयम, सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चलने का संकल्प लेता है.