
बाबा का शोर
देश में इस वक्त एक ही बाबा का शोर है। बाबा चार्टर प्लेन में घूम-घूम कर खूब सत्संग करते हैं। दरबार लगाते हैं। बाबा पर्ची वाले हैं। आस्था के सैलाब में बहकर दरबार में आने वाला भक्त बाबा की पर्ची में अपना समाधान ढूंढ रहा है। अब यह मालूम नहीं कि बाबा के बताए समाधान से उनके भक्तों की जिंदगी में क्या कुछ बदल गया? वैसे यह कितना अच्छा होता अगर यह मालूम पड़ जाता कि गंभीर बीमारी से जूझकर बाबा के बताए नुस्खों पर अमल करने वाले कितने मरीज अब तक ठीक हो गए हैं? कितना अच्छा होता जब यह मालूम चल जाता कि आर्थिक संकट से जूझते गरीब परिवारों में बाबा के आशीर्वाद से समृद्धि आ गई हो? कितना अच्छा होता जब यह पता चल जाता कि बाबा के तिलिस्म से कितने गरीब परिवार के बच्चे इंजीनियर, डाक्टर, आईएएस या आईपीएस जैसी नौकरी के लिए चुन लिए गए हैं? बाबा का दावा है कि हर संकट का समाधान उनके पास है। ऐसे में समाधान पाने वाले भक्तों की एक सूची जारी हो जाए, तो बाबा पर सवाल उठाने वाला हर शख्स ऊलांग बाटी खाकर उनके सामने दंडवत हो जाएगा। यह कहते हुए कि माई-बाप आप पहले क्यों नहीं मिले? खैर, बाबा की पर्ची और उनके नुस्खों पर बात फिर कभी। मूल बात यह है कि सूबे के एक कुख्यात भू माफिया ने बाबा की फ्रेंचाइजी ले रखी है। महीने, दो महीने में राज्य के किसी न किसी हिस्से में बाबा का दरबार सज रहा है। आयोजक कोई भी क्यों न हो? मंच पर भू माफिया के साथ बाबा की संगति देखते बनती है। सूबे के कई थानों में भू माफिया के खिलाफ शिकायतों की लंबी चौड़ी फेहरिस्त है, मगर मजाल है कि कोई उसका बाल भी बांका कर दे। बाबा का हाथ, भू माफिया के साथ है। बाबा का दरबार भू माफिया के अपराध को वैधता देने का औज़ार है। नेता, मंत्री, अफसर सब बाबा के चरणों में झुक रहे हैं। पुलिस सलामी ठोक रही है। प्रशासन बाबा की तीमारदारी में जुटा है। बाबा में सब अपने-अपने हिस्से का लाभ ढूंढ रहे हैं। बाबा की पहुंच बहुत ऊपर तक है। सत्ता प्रतिष्ठान से जुड़े आला नेताओं से लेकर देश के बड़े कार्पोरेट्स तक बाबा के भक्त हैं। बाबा में आस्था का निवेश करना वक्त की जरूरत बनती दिखती है। सूबे में सबसे पहले भू माफिया ने ही बाबा की जमकर मार्केटिंग की थी और अब नेताओं में बाबा की बुकिंग की होड़ है। बाबा सिर्फ आस्था का विषय नहीं रह गए हैं। इससे आगे भी बहुत कुछ है। आम आदमी इस तरह के बाबाओं के पास इसलिए जाता है क्योंकि उसे उसकी परेशानियों का समाधान चाहिए और बाबा आम आदमी के पास इसलिए आते हैं क्योंकि उन्हें संसाधन चाहिए। आम आदमी का दुख घट नहीं रहा है और बाबा हैं कि लगातार बढ़ते जा रहे हैं।
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जेल डायरी
पूर्ववर्ती सरकार में भी एक नए बाबा प्रकट हो गए थे। बाबा ने दावा किया था कि सरकार उनकी कृपा से बनी है। बाबा के दरबार में माथा टेकने वालों की भीड़ अचानक बढ़ गई। बाबा बेहद लोकप्रिय हो गए। बाबा के भक्तों में हर राजनीतिक दल का नेता शामिल था। हर कोई बाबा के चरणों में सिर टिकाए दिखने लगा। बाबा ने इससे पहले इतनी लोकप्रियता देखी नहीं थी। बाबाओं के बाजार में अपने पांव जमा रहे नए बाबा को अब भक्तों की दरकार नहीं रह गई थी। भक्तों को अपाइंटमेंट दिया जाने लगा था। बाबा कहीं आते-जाते तो मर्सिडीज, बीएमडब्ल्यू, आडी जैसी गाड़ियों की फरमाइश होती। तब पूरी की पूरी सरकार, पूरा का पूरा विपक्ष और बाबा के रास्ते लाभ ढूंढने की जुगत में बैठा प्रशासनिक महकमा आस्था के सागर में डूब गया था। राज्य में बाबा का आना-जाना लगा रहा। कुछ वक्त बीत गया। एक रोज एक सज्जन टकरा गए। उस सज्जन ने बाबा की जेल डायरी खोलकर रख दी। उस सज्जन के मित्र यूपी की एक जेल में बाबा के रूम मेट हुआ करते थे। दोनों में खूब छनती थी। बाबा के रग-रग से वाकिफ थे। बाबा का धार्मिक मनोविज्ञान खुलकर बाहर आ गया था। बाबा अब राज्य में अपनी मौजूदगी से ज्यादा टीवी डिबेट में दिखते हैं। अब वह टीवी के रास्ते सोशल मीडिया पर अपने फालोवर बढ़ा रहे हैं।
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जनाब
सूबे के डीजीपी ने राजधानी से दूर एक जिले में रेंज की बैठक बुलाई थी। रेंज के सभी एसपी वहां मौजूद थे। डीजीपी ने जैसे ही बेहतर पुलिसिंग पर सुझाव मांगे, वैसे ही एक जिले के वजनदार (शरीर से) एसपी सक्रिय हो गए। आला अफसरों की मौजूदगी ही एसपी साहब के शरीर में 440 वोल्ट का करंट दौड़ा देती है। उन्होंने कहा- जनाब, हम एक ऐसा साफ्टवेयर बनाएंगे, जो सोशल मीडिया को हमारी निगरानी में ले आएगा। इससे हम पूरे राज्य की गतिविधियां खंगाल पाएंगे। डीजीपी ने गंभीरता से कहा- इसका विस्तृत मसौदा बनाकर पुलिस मुख्यालय भेज दीजिए। बजट के लिए हम विभाग से संपर्क करेंगे। लेकिन उत्साही एसपी ने झट से कहा- नहीं जनाब, हम अपने ही बजट से यह काम करेंगे। डीजीपी ने ठंडी मगर कड़वी मुस्कान के साथ कहा – मुझे लगता है कि मैदानी तैनाती से हटाकर आपकी सेवाएं पुलिस मुख्यालय में लगा देना बेहतर होगा। वहां काम कैसे होता है, यह आपको समझ आ जाएगा। डीजीपी की बात समझते एसपी साहब को देर नहीं लगी। उन्होंने अपने दांत निपोरते हुए कहा, नहीं-नहीं जनाब। मैं यही ठीक हूं। डीजीपी ने अपने मिज़ाज के मुताबिक़ संकेतों में हिदायत दे दी कि उत्साह से केवल दावे बड़े दिखते हैं, काम नहीं।
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मेरी तो चल ही नहीं रही
ख़ून-पसीना बहाकर अपनी पार्टी की सरकार बनाने वाले कार्यकर्ता अपने मंत्रियों से परेशान हैं। कार्यकर्ता जब कभी किसी काम के लिए मंत्री के पास जाते हैं। मंत्री दो टूक जवाब देते हुए कहते हैं कि- ”सरकार में मेरी तो चल ही नहीं रही”। यह सब सुनकर कार्यकर्ता अपना ही सिर खुजाकर यह सवाल पूछता है कि मंत्री की नहीं चल रही है तो आख़िर किसकी चल रही है? खैर, पिछले दिनों भाजपा दफ़्तर में कुछ कार्यकर्ताओं का जमावड़ा था। कार्यकर्ता आपस में मिल बैठकर एक-दूसरे का दुख साझा कर रहे थे। एक कार्यकर्ता ने रूंधे गले से कहा, चुनाव के वक्त हम कार्यकर्ता नेताओं के लिए सब कुछ थे, मगर आज वही नेता हमे देखते ही हमसे मुंह चुराते हैं। एक ने बताया कि पिछले दिनों एक छोटे से काम के लिए उसने मंत्री से मदद मांगी। मंत्री कार्यकर्ता की बातें सुन बेहद दुखी हुए। कंधे पर हाथ रखा। पूरी सांत्वना दी और कहा कि यह काम तो मैं नहीं कर पाऊंगा। कार्यकर्ता ने कहा, विभाग आपका। मंत्री आप। फिर यह काम कैसे नहीं हो सकता? मंत्री ने कहा- यह सच है कि विभाग मेरा। विभाग का मंत्री भी मैं, लेकिन चलती मेरे सेक्रेटरी की है। मेरी हालत यह है कि सेक्रेटरी मेरा फोन तक नहीं उठातीं। मंत्री मन मसोस कर रह गए। अब कार्यकर्ता का हाथ मंत्री के कंधे पर था और बोल सांत्वना के थे।
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जब उठ खड़े हुए मंत्री
पिछले दिनों मंत्रालय में एक विभाग की बैठक चल रही थी। विभागीय मंत्री मंचासीन थे। विभाग का पूरा अमला मौजूद था। सब आ चुके थे, सिवाय विभाग के सेक्रेटरी के। सेक्रेटरी हार्ड वर्कर हैं। रिजल्ट ओरिएंटेड भी। कई दूसरी जरूरी बैठकें खत्म कर जब वह विभागीय बैठक में पहुंचे, तब उनके मातहत अधिकारी उन्हें देखते ही उठ खड़े हुए। अधिकारी तो उठे ही, मंत्री ने भी अपनी कुर्सी छोड़ दी। यह देख सब झिझक गए। बैठक के बाद मंत्री को यह समझाया गया कि वह विभाग के मुखिया हैं। उन्हें यह सब शोभा नहीं देता। खामखा विभाग में इसे लेकर बतकही शुरू हो जाएगी। इससे बचना चाहिए। मंत्री ने कुछ टिप्पणी नहीं की, केवल सिर हिला दिया। बहरहाल ज़्यादातर मंत्री अपनी कुर्सी से चिपककर बैठे हैं। उनकी अपनी जमी जमाई व्यवस्था है। उन्हें यह लगता है कि विभागीय कामकाज के लिए सेक्रेटरी तो है ही। फिर रुल आफ बिज़नेस की किताब में दिए गए मंत्रियों के अधिकारों को पढ़ने और समझने में भला कौन वक्त जाया करे? ऐसे में सेक्रेटरी के सम्मान में मंत्री उठते रहेंगे।
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दरार
एक एफआईआर ने सत्ता के गलियारों में हड़कंप मचा दिया है। एफआईआर के बाद जितनी बातें बाहर आ रही हैं, उससे कहीं ज्यादा पर्दे के उस पार हैं। जांच की आंच कई प्रभावशाली चेहरों तक पहुंच चुकी है। खबर है कि आकाश में जोश के साथ कई नाम गूंज रहे हैं। सरकार का एक धड़ा बचाव में है और एक धड़ा कार्रवाई के पक्ष में। कई नेताओं के माथे पर चिंता की लकीरें उभरी दिख रही हैं। सत्ता-संगठन के भीतर मंथन का दौर चल रहा है और इसके असर से कई किलों की दीवारों पर दरारें खिंच गई हैं। फ़िलहाल सतह पर बहुत कुछ आना अभी बाकी है।


