Column By- Ashish Tiwari, Resident Editor

‘बाबू’ मोशाय

हरिशंकर परसाई ने लिखा था ‘जिनकी हैसियत है, वे एक से भी ज्यादा बाप रखते हैं. एक घर में, एक दफ्तर में, एक-दो बाजार में और एक-एक हर राजनीतिक दल में. मौसम बदलने पर भी इस तबके के लोगों की नाक नहीं बहती. हर सरकार में इनका एक बाप तय है. सरकार का एक विभाग है. इस विभाग के एक ‘बाबू’ मोशाय हैं, जिनकी चर्चा इन दिनों विभाग के संतरी से लेकर मंत्री तक है. ‘बाबू’ मोशाय ने खूब नाम कमाया है. सरकारी ‘बाबू’ के पद को असल मायने में उन्होंने ही परिभाषित किया है. वैसे भी वो बाबू ही क्या जिसकी तूती ना बोले. कोई भी सरकारी फाइल उनकी टेबल से तब तक गुजरने का नाम नहीं लेती, जब तक ‘बाबू’ मोशाय को मिठाई डिब्बे की भेंट नहीं चढ़ाई जाती. फाइलें उन पर जान छिड़कती हैं. सरकारी फाइलों का कद ‘बाबू’ मोशाय ने ही बढ़ाया है. बिरादरी में चर्चा है कि विभाग के डायरेक्टर वायरेक्टर भी उनके सामने कहीं नहीं टिकते. कई बार तो ‘बाबू’ मोशाय अपनी उंगलियों पर डायरेक्टर को ही नचा बैठते हैं. अब डायरेक्टर को कोई यूं ही कैसे नचा दे. इतना साहस को सरकारी बाप से ही मिलता होगा. इस विभाग से जुड़े एक आला अधिकारी ने बातों ही बातों में बताया कि ‘बाबू’ मोशाय की इनवेस्टमेंट की सोच अंतरराज्यीय है. राज्य में जमीनों और मकानों में इनवेस्टमेंट के बाद ‘बाबू’ मोशाय ने गोवा में एक रिसार्ट बना रखा है. इस इनवेस्टमेंट के साथ-साथ उनकी रिटायरमेंट प्लानिंग दिखती है. खैर, अगली दफे जब कभी ‘बाबू’ मोशाय गोवा जाएं, तो समंदर किनारे बैठकर आती-जाती लहरों को देख ले, शायद सोच पाएं कि जिंदगी भी लहरों की तरह है. आती हुई लहरें कुछ न कुछ देकर जाती है और जाती हुई लहरे सब कुछ अपने साथ बहा ले जाती हैं. लहरे ठहरती नहीं. राज्य के भीतर किसी नदी-नाले के किनारे रिसॉर्ट बनाया होता, तब बात कुछ और होती. नदी एक धारा में बहती है. ठहराव तो नदी की धारा की भी नहीं, मगर निरंतर एक दिशा में बहती चलती है. अपने किनारों को कुछ ना कुछ देते हुए. ये बात और है कि समंदर में मिलकर नदी, नदी नहीं रह जाती. ‘बाबू’ मोशाय समझ बैठे कि उनका दिमाग किसी ब्यूरोक्रेट की तरह हो गया है. मगर वह भूल गए कि ब्यूरोक्रेट दो कदम आगे होते हैं. समंदर की लौटती लहरों में भी तैरने की तरकीब उनके पास होती है.

पहना गए ‘टोपी’

वैसे तो जाते-जाते पूर्ववर्ती सरकार ने कईयों को टोपी पहनाया, मगर यह कल्पना किसी ने भी न की होगी कि लाखों लोगों को टोपी पहनाने वाले को भी सरकार टोपी पहना देगी. हुआ कुछ यूं कि तत्कालीन सरकार ने नवा रायपुर के मेला ग्राउंड में युवा मितान सम्मेलन का आयोजन किया था. राहुल गांधी इस सम्मेलन में शरीक हुए थे, जाहिर है टोपी वाले की एक टोपी उन्होंने भी पहनी होगी. भला तब यह बात राहुल गांधी को कौन बताता कि जिसकी टोपी उन्होंने सिर पर पहनी है, उसे उनकी ही सरकार टोपी पहनाने वाली है. दरअसल युवा मितान सम्मेलन के लिए पूर्ववर्ती सरकार ने लाखों टोपी और टी-शर्ट के आर्डर दिए थे. सरकार का आर्डर मिला, सप्लायर ने सप्लाई कर दी. मगर उसका भुगतान उसे मिल पाता इससे पहले राज्य में चुनाव आचार संहिता लागू हो गई. सरकार के हाथ-पैर बंध गए. सूबे में नई सरकार काबिज हो गई. भुगतान लटक गया. नई सरकार, पुरानी सरकार के नेता के सिर पर बंधी टोपी का भुगतान क्यों करती? टोपी पहनाने वाले को राजनीतिक खींचतान की टोपी पहना दी गई. भुगतान तो अब तक हुआ नहीं, लेकिन वह भुगत जरूर रहा है, शायद यह सोचकर कि न जाने कौन सा ग्रहण लगा था कि वह कांग्रेस नेताओं के चक्कर में फंस गया. बेचारा अब दर-दर भटक रहा है कि कोई तो उसका भुगतान करा दे. पिछले दिनों पूर्व मुख्यमंत्री के बंगले में दरख्वास्त लिए पहुंचा. मगर वह करते भी तो क्या करते. पहले जैसी बात रही नहीं कि नजर तिरछी करने भर से काम हो जाए. मायूस चेहरा लिए बेचारा सप्लायर लौट आया. वहां मौजूद लोगों ने बताया कि बंगले से निकलते वक्त सप्लायर किशोर कुमार के एक गीत के बोल गुनगुनाता हुआ सुनाई पड़ा. बोल थे, ‘जाते थे जापान,पहुंच गए चीन,समझ गए ना..’. एक स्वास्थ्य विभाग का सप्लायर है, जिसके चार करोड़ नहीं पूरे चार सौ करोड़ अटके पड़े हैं. एड़ी चोटी एक कर दी है उसने, कुछ मिला है, कुछ मिलने के रास्ते पर है. टोपी पहनाते-पहनाते खुद पहन लेने वाले सप्लायर को उसे अपना गुरु बना लेना चाहिए.

झूठों का झुंड

चुनाव में मिली हार की समीक्षा करने और सुझाव लेने पहुंचे एक आला नेता की बैठक में पूर्व मुख्यमंत्री के सलाहकार रहे एक नेताजी दिल की बात बोल बैठे. कहा- पूरे पांच साल कार्यकर्ताओं की उपेक्षा हुई. नेताजी हार की वजह गिना रहे थे. एक बड़ी वजह ये भी थी. नेताजी ने जब यह कहा, तब पूर्व मुख्यमंत्री मंच पर ही विराजे थे. यह सुनते ही उनकी नजर नेताजी पर ठहर गई. इस वाकये पर पार्टी के एक आला नेता की करारी टिप्पणी सामने आई. उन्होंने कहा, सरकार जब हाथ में हो, तब गुरुर साथ चलता है. गुरुर विवेक छीन लेता है. सच बात झूठ लगती है, और हर झूठ, सच दिखता है. झूठों का झुंड बढ़ता जाता है. झूठ की ऊंची खड़ी इमारत के खाली कमरों में भी तब सच के गूंजने की आवाज नहीं होती. उन कमरों में अगर कुछ होता है, तो विदूषकों का अट्टाहास और उस पर खुश होता राजा. पिछली सरकार कुछ ऐसी ही थी. खैर, जाते-जाते आला नेता एक शायरी फरमा गए, ”झूठ पर उसने भरोसा कर लिया, धूप इतनी थी कि साया कर लिया”. थोड़ा रुके और पलटकर कहा, ”झूठा है झूठ बात बोलेगा ये आइना, आओ हमारे सामने हम सच बताएंगे”. कांग्रेस में कई हैं, जो अब खुलकर बोल रहे हैं. पहले खुद से उन लोगों ने अपने होंठ सील रखे थे या सील दिए गए थे.

कायदे के नेता!

मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय का दिल्ली दौरा सूबे में दो तरह के लोगों के दिलों की धड़कने बढ़ा रहा है. एक वो जो मंत्री बनने की दौड़ में कूद फाद कर रहे हैं और दूसरे वो जिन्हें लेकर यह माहौल गर्म किया जा रहा है कि मंत्रिमंडल से उनका पत्ता कट सकता है. इस दो तरह के लोगों के बीच कोने में दुबके बैठे तीसरे तरह के लोग भी है, जो इस उम्मीद में हैं कि कहीं उनकी लाटरी ना निकल जाए. मोदी-शाह ना जाने कब और कैसे फैसले ले लें, कोई नहीं जानता. मुद्दे की बात यह है कि विधानसभा का बजट सत्र करीब है. सरकार में ज्यादातर चेहरे नए हैं. सदन के भीतर फ्लोर मैनेजमेंट का अनुभव नहीं है. सदन में संसदीय कार्य मंत्री की भूमिका महत्वपूर्ण होती है. ट्रेजरी बेंच के बीच अनुशासन बनाए रखने, सदस्यों की उपस्थिति, विपक्ष के हमलों के बीच सत्तापक्ष की किलेबंदी करने के साथ-साथ नोक झोक के हालातों में विपक्ष को साधने की कलाबाजी में निपुणता इसकी जरूरी अर्हता है. बृजमोहन अग्रवाल इस भूमिका में थे. इस्तीफे के बाद संसदीय कार्य मंत्री कौन होगा? ये सवाल बना हुआ है. राज्य में अब तब भाजपा की सरकार के दिनों में इस भूमिका में या तो बृजमोहन अग्रवाल रहे हैं या अजय चंद्राकर. चंद्राकर फिलहाल मंत्री नहीं है. जातिगत समीकरण उनके आड़े आ रहा है. ओबीसी मंत्रियों का प्रतिनिधित्व सरकार में पर्याप्त है. यही वजह है कि इस बात की चर्चा तेज है कि किसी ओबीसी मंत्री को ड्राप कर अजय चंद्राकर मंत्रिमंडल में फिट किए जा सकते हैं. चर्चा की कोई आचार संहिता तो है नहीं कि कितनी करनी है और कितनी नहीं. तमाम चर्चाओं में एक चर्चा अजय चंद्राकर के नाम पर तो है. बात-बात पर गुस्से में सुर्ख लाल होती उनकी नाक और मुंह में घुली काफी की कड़वाहट वाली जुबान को छोड़ दी जाए, तो अजय चंद्राकर एक कायदे के नेता तो हैं ही.

लोटा

तो अब बात मुर्क्षित भाव की. विचित्र किस्म की कहानियां सामने आ रही हैं. सरकार में फंसे अरबों रुपए निकालने की हाड़ तोड़ मेहनत के बीच एक नई चर्चा फूट पड़ी है कि विधानसभा चुनाव के पहले फंसी हुई रकम निकालने की मशक्कत के बीच पूर्ववर्ती सरकार के एक नेता की आड़ में बड़ी डील की गई थी. तब पार्टी के खजांची फरार थे. इतनी जल्दी नया और विश्वसनीय खजांची ढूंढकर लाना मुश्किल था, सो एक भरोसेमंद नेता को कोष संभालने का जिम्मा दे दिया गया. कहा जा रहा है कि उस नेता से करीब 50 करोड़ रुपए में समझौता किया गया था. समझौते में यह बात कही गई थी कि आचार संहिता के पहले भुगतान होने की स्थिति में यह रकम दी जाएगी. कई तरह के घोटालों में ईडी-आईटी की दौड़भाग चल ही रही थी. कुछ रास्ता बनता इससे पहले चुनाव तारीख का ऐलान हो गया. चुनाव बाद नई सरकार आ गई. जिस पार्टी में खैरख्वाह थे, वह सब हाशिए पर चले गए. सरकार नई थी, कुछ पुराने घाघ नेता यहां भी साथ खड़े मिले, जिनकी मदद से बंजर जमीन पर कुआं खोद लिया गया. कुआं खुद गया है, पानी भी दिख रहा है, लेकिन उसे निकालने के लिए हाथ में बाल्टी की जगह लोटा है. कुआं खोदने में ही जान निकल गई. ताकत बची नहीं. लोटे से अब धीरे-धीरे पानी निकाल रहे हैं.

डीजीपी

डीजी पद के लिए हुई डीपीसी की बैठक में तीन पदों के विरुद्ध दो नामों को हरी झंडी दे दी गई है. कहा जा रहा है कि 1992 बैच के आईपीएस अरुण देव गौतम और 1994 बैच के आईपीएस हिमांशु गुप्ता के डीजी बनने का रास्ता साफ हो गया है. मुख्यमंत्री की मंजूरी के लिए फाइल भेजी गई है. मंजूरी मिलते ही आदेश जारी हो जाएगा. 1992 बैच के आईपीएस पवन देव को लेकर खबर है कि एक विभागीय जांच उनके प्रमोशन के आड़े आ गया. बताते हैं कि पवन देव के लिए यह पद रिजर्व रखा गया है. विभागीय जांच खत्म होने की स्थिति में उन्हें प्रमोट कर दिया जाएगा. राज्य में डीजी के चार पद हैं. दो कैडर और दो एक्स कैडर. फिलहाल डीजी पद पर इकलौते अफसर अशोक जुनेजा है. अगस्त के पहले हफ्ते में जुनेजा रिटायर हो रहे हैं. ऐसे में सरकार यदि सीनियरिटी को वेटेज देती है, तो अरुणदेव गौतम राज्य के नए डीजीपी हो सकते हैं. हालांकि डीजी बनने की दौड़ में अरुण देव गौतम इकलौते अफसर हैं, ऐसा नहीं है. हिमांशु गुप्ता, एसआरपी कल्लूरी भी इस दौड़ में शामिल हैं. कैट से सर्विस बहाल कर लौटे जीपी सिंह कड़ी प्रतिस्पर्धा दे सकते हैं. फिलहाल जी पी सिंह की बहाली की फाइल मंजूरी के लिए केंद्र के पास अटकी हुई है.