Column By- Ashish Tiwari , Resident Editor

गाड़ी की सवारी… (1)

सरकारी महकमे में काम करने वाले अधिकारियों पर शोध होना चाहिए. जिस जगह पर होते हैं, ये मानकर चलते हैं कि वहां की हर एक चीज पर पहला हक उनका है. बहरहाल आपने कई जगहों पर टंगी तख्तियां पढ़ी होंगी कि ”सरकारी संपत्ति, आपकी अपनी संपत्ति है”, लेकिन सरकारी महकमे के अधिकारी जहां होते हैं, उनके लिए यह संदेश थोड़ा मोडिफाई हो जाता है, जैसे: ”सरकारी दफ्तर की संपत्ति पर पहला हक हमारा है”. इस सूत्रवाक्य को एक महिला अधिकारी ने बखूबी अमल में लाया. एक अकादमी में जब उन्हें संचालक का अतिरिक्त प्रभार सौंपा गया, तब उन्होंने अपनी जरूरत की चीजें ढूंढनी शुरू कर दी. अकादमी फटेहाल हालत में थी, ले दे के एक गाड़ी ही थी, जो महिला अधिकारी के काम आ सकती थी, सुना है, महिला अधिकारी, अकादमी एक दिन भी नहीं गई, लेकिन सुविधाओं पर तो पहला हक उनका था, सो उन्होंने अकादमी की गाड़ी बुलाकर बंगले में रख ली. गाड़ी के ड्राइवर को एक विभाग में अटैच करा दिया था. महिला अधिकारी गाड़ी की सवारी की शौकीन थी, शायद तभी जिन-जिन विभागों में जिन-जिन दायित्वों पर थी, उन-उन जगहों से एक-एक गाड़ी पर अपना हक जमा लिया. सुनते हैं कि बंगले में पांच गाड़ियां एक वक्त पर खड़ी होती. महिला अधिकारी के पति वन महकमे से हैं, एक बड़े वनमंडल में डीएफओ के ओहदे पर तैनात, जाहिर है, उनके हक की गाड़ियां अलग. जब अकादमी से विदाई हुई, तो प्रभार दूसरी महिला अधिकारी के हिस्से ही आया. उम्मीद थी, बेजा हक नहीं जमाएंगी, लेकिन ये दो कदम आगे निकलीं. दफ्तरी काम धाम के लिए दूसरी सरकारी गाड़ी तो थी ही, अकादमी की गाड़ी महिला अधिकारी की कुक को लाने ले जाने में लगा दी गई. सुनाई पड़ा है कि अब इन बेजा हक को लेकर एक गोपनीय शिकायत ऊपर भेजी गई है.
.
.
.

एक किस्सा ये भी…(2)

पॉवर सेंटर के कालम में ही हमने एक वाक्या साझा करते हुए एक दफे बताया था कि बस्तर की सुदूर हरी-भरी वादियों से हरी-हरी करोड़ों की पत्तियां लेकर राजधानी आ रहे एक एसडीओ साहब की गाड़ी पुलिस बेरिकेटिंग में पकड़ा गई थी. सरकारी गाड़ी छोड़ साहब निजी गाड़ी से राजधानी आ रहे थे. जांच पड़ताल हुई तो पीछे लगी स्टेपनी को खोला गया, ट्यूब की जगह नोटों की गड्डियां पाई गई थी. खैर उस चर्चित एसडीओ साहब भी सरकारी गाड़ी के प्रेम से उबर नहीं पाए, सीजी 02 सीरिज के मायाजाल और प्रभाव में इतने डूबे कि बफर रेंज के लिए अलाटेड गाड़ी सीधे राजधानी के अपने घर पर खड़ी करवा दी. उधर साहब ड्यूटी बजाते रहे, इधर सरकारी गाड़ी में परिवार तफरी कर सरकारी गाड़ी पर हक जताता रहा.
.
.
.

सफारी  टू फार्च्युनर… (3)

सूबे के मुखिया की जिम्मेदारी संभालते ही मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने फिजूलखर्ची रोकने एक निर्देश जारी किया था कि कोई भी मंत्री नई गाड़ियां नहीं खरीदेंगे. सत्ता से 15 सालों का वनवास था. जाहिर है कईयों ने ख्वाहिशों की इमारत खड़ी कर रखी थी, उन्हें बेहद मायूसी लगी. सफारी कार से संतोष करना पड़ा था, खुद मुख्यमंत्री पिछली सरकार में खरीदी गई गाड़ियों में घूमते रहे. वक्त के साथ निर्देश कूड़ेदान में गया और मंत्रियों ने धीरे-धीरे अपनी मुरादें पूरी कर ली. सफारी से फार्च्युनर पर आ गए. सफेद चमचमाती फार्च्युनर अब मंत्रियों की पहचान है. वैसे गाड़ी के मामले में मंत्री और अधिकारियों में कोई खास अंतर नहीं. जितने मंत्रालय हैं, उतनी गाड़ियां. कुछेक मंत्री जो निगम, मंडल और आयोग में लंबे समय तक काबिज थे, वहां की गाड़ियों को भी खूब घसीटते रहे. वैसे आर्थिक चुनौतियों से जूझ रही सरकार को ईँधन खर्च कम करने के उपायों पर विचार करना चाहिए. एक अधिकारी, एक गाड़ी…..
.
.
.

पॉवर बरकरार

पिछले दिनों एक मंत्री की जानकारी के बगैर पीए को हटा दिया गया. मूल विभाग की जगह दूसरे विभाग में अटैच किया गया. शिकायतों की फेहरिस्त लंबी थी. मुख्यमंत्री तक कई दौर की शिकायतें हुई थी. कई विधायक पीछे लगे थे, हटाना ही एक विकल्प था. कहा जा रहा था कि पीए के पद से हटाने के बाद वर्चस्व घटेगा, लेकिन हुआ ठीक उलट. अब सुनते हैं कि पीए पद से हटने के बाद ये शख्स मंत्रालय में सचिव दफ्तर में अपनी आमद मजबूती से दे रहे हैं. कहने को सचिव दफ्तर संभालते हैं, लेकिन विभाग में क्या होगा और क्या नहीं, इस पर निर्णय लेने में मजबूत दखल बरकरार है.
.
.
.

बृहस्पत सिंह की मुराद पूरी

ढाई-ढाई साल के कथिल फार्मूले के बीच विधायकों की दिल्ली परेड भी जो काम ना कर सकी, राहुल गांधी के दौरे ने कर दिया. विधायकों की दूसरी दफे हुई दिल्ली परे़ड की अगुवाई बृहस्पत सिंह ने की थी, लेकिन तमाम जद्दोजहद के बाद भी राहुल गांधी मिले नहीं. अबकी बार जब राहुल रायपुर में थे, बृहस्पत सिंह ने अपनी मुराद पूरी कर ली. मंचीय कार्यक्रम से भोजन के लिए जाते वक्त राहुल को बीच गलिराये में बृहस्पत सिंह ने रोक लिया और दो टूक कहा, मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के नेतृत्व में सरकार अच्छा काम कर रही है, पिछले चुनाव में हमने 90 में से 70 जीता था, अब यही नेतृत्व रहेगा तो जीत का आंकड़ा बरकरार रखेंगे. बृहस्पत की बात खत्म होते तक राहुल इत्मीनान से सुनते रहे और बगैर कुछ टिप्पणी आगे बढ गए….
.
.
.

बस्तर काॅफी

राहुल गांधी इस दफे आए, तो भरपूर वक्त के साथ. साइंस काॅलेज में मंचीय कार्यक्रम के पहले प्रदर्शनी का मौका मुआयना करते रहे. इस बीच जब उन्हें बस्तर की काॅफी पिलाई गई, तो राहुल इसके मुरीद हो गए. उन्होंने इसे इंटरनेशन ब्रांड बनाने का सुझाव दिया. ये कहते हुए कि स्टारबक्स जैसे काॅफी के इंटरनेशनल ब्रांड चेन को एप्रोच किया जाए. वैसे प्रदर्शनी तो तमाम विभागों की लगी थी, लेकिन सबसे ज्यादा दिलचस्पी राहुल गांधी की बस्तर को लेकर दिखी. सरकार ने भी बस्तर को लेकर खास जोर दिया था. तभी कार्यक्रम के पहले ही एक आदेश जारी कर बस्तर के तमाम जिलों के कलेक्टरों को बुला लिया गया था. राहुल के समक्ष बस्तर की छाप छोड़ने में भी कलेक्टर पीछे नहीं रहे. चाहे फिर रजत बंसल हो या फिर दीपक सोनी. वैसे बस्तर को वेटेज देने के अपने राजनीतिक मायने भी ढूंढे जा रहे हैं. कहा जा रहा है कि चुनाव में महज 18 महीने बाकी रह गए हैं. पिछले दिनों दिल्ली दौरे के दौरान पीसीसी चीफ मोहन मरकाम ने आदिवासी सीटों को लेकर राहुल गांधी को दी गई अपनी रिपोर्ट में निगेटिव रिमार्क दिया था.
.
.
.

सिलेंडर गायब

ये किस्सा दिलचस्प है. दरअसल बीजेपी ने राहुल गांधी के दौरे में काले गुब्बारे छोड़कर विरोध करने का ऐलान किया था. जाहिर है धड़पकड़ होनी ही थी, लेकिन कौन सा कार्यकर्ता किस गली-नुक्कड़ पर गुब्बारे लेकर खड़ा हो जाए ये कौन जानता था? सो पुलिस ने पूरे शहर से गुब्बारों में गैस भरने वाले सिलेंडर ही गायब करा दिए. ना रहेगी बांस और ना बजेगी बांसूरी वाली कहावत को चरितार्थ कर दिया. इधर बीजेपी कार्यकर्ताओं को काले कपड़ों से ही संतोष करना पड़ा.