Column By- Ashish Tiwari, Resident Editor

‘कलेक्टर का दुख’

एक जिले के कलेक्टर हैं. उन्हें इस बात का दुख है कि उन्हें बड़ा जिला नहीं मिला. लंबे इंतजार के बाद सरकार ने उन्हें कलेक्टरी दी है, फिर भी दुखी हैं. जरा एक बार उन अफसरों का चेहरा देख लेते तो अच्छा होता, जो दिन रात उस वक्त की बांट जोहते बैठे हैं कि कम से कम एक जिले की उन्हें कलेक्टरी मिल जाए. खैर, कलेक्टर साहब को गीता सार पढ़ना चाहिए. दुख से कुछ राहत मिल जाएगी. वैसे कलेक्टर मूर्धन्य हैं. संघर्ष कर उन्होंने अपना मुकाम हासिल किया है. इस लिहाज से उनके संघर्षों को सलामी दी जानी चाहिए. फिलहाल बड़ा जिला पाने की उनकी लालसा ने सीधे उनकी चेतना पर हमला कर दिया है. छोटे जिले का कलेक्टर बनने का कसूरवार उन्होंने ‘पावर सेंटर’ के स्तंभकार को माना है. वह यह कहते सुने गए हैं कि स्तंभकार के पूर्व में लिखे एक लेख की वजह से सरकार ने उनकी काबिलियत को कम आंका. कलेक्टर साहब स्तंभकार पर सवाल उठा रहे हैं, मानो जैसे उनके खुद के किरदार में खुदा समाया हो. इस पर किसी शायर ने खूब लिखा है, ”औरों में कमियां बहुत आंकते हैं लोग, अपने गिरेबां में कम झांकते हैं लोग”…बहरहाल कलेक्टर साहब जब कलेक्टर न थे, तब जमीन के आदमी थे. संघर्ष करना जानते थे. कुर्सी पर बैठते ही आसमानी हो गए. इस छत्तीसगढ़िया कलेक्टर के सपने बड़े हैं. होने भी चाहिए. बस उनके लिए एक ही सुझाव है, ‘बड़ी मंजिल के मुसाफिर, दिल छोटा नहीं करते’.

‘टू परसेंट’

एक विभाग में एक नया खिलाड़ी अफसर आ गया है. प्रशासनिक गलियारे में इस अधिकारी की पहचान ‘टू परसेंट’ के नाम पर होने लगी है. सरकारी सिस्टम में ‘परसेंट प्रणाली’ कोई नई खड़ी हुई व्यवस्था नहीं है. चपरासी से लेकर विभाग प्रमुख तक परसेंट नाम की इस व्यवस्था के वाहक रहे हैं. प्राचीन काल से बनी इस व्यवस्था का यही पालन पोषण करते हैं. असल बात यह है कि जिस कुर्सी पर अफसर काबिज हैं, उस कुर्सी का काम सिर्फ फाइलों पर चिड़िया बिठाने भर का है. इस साहब से पहले तक इस कुर्सी पर काबिज रहे साहबों के नसीब में फूटी कौड़ी भी नहीं आती थी. कभी कभार कोई स्वेच्छा से छोटा-मोटा तोहफा दे जाता, तो दिन बन जाता था .चूंकि अफसर माहिर खिलाड़ी है, सो उन्हें चिड़िया बिठाने के सारे तौर तरीके मालूम है. जिलों में भेजे गए बजट से होने वाली हर खरीदी का ‘टू परसेंट’ तय कर दिया गया है. जिला चलाने वाले अब हैरान भी हैं और इस बात से परेशान भी कि उनकी कमाई में एक और हिस्सेदार जुड़ गया है. जाहिर है, जिले के अफसरों का जी जल उठता होगा. बहरहाल एक पुराना गाना है, जाना था जापान, पहुंच गए चीन समझ गए ना.. इस अफसर के साथ कुछ ऐसा ही हुआ. सरकार बदली तो उम्मीद थी कि बढ़िया पोस्टिंग मिलेगी. मगर तकदीर में बाबूगिरी लिखी थी. अब जहां है, वहां जुगाड़ ढूंढ निकाला है.

‘किस्सा ए सूट’

सूबे में जब नई सरकार आई, तब एक नेताजी इस बात को लेकर आश्वस्त थे कि वह मंत्री बनेंगे. बाकायदा उन्होंने सूट भी सिला लिया था, पर जब मंत्रिमंडल की सूची आई तो उनकी उम्मीदों पर पानी फिर गया. भरे मन से उन्होंने सूट अलमारी में रख दिया. शायद इस उम्मीद से कि कभी तो उनका नंबर आएगा! खैर, सूट अलमारी से तब बाहर निकल आया, जब 26 जनवरी को एक जिले में उन्हें झंडा फहराने का मौका मिला. कम से कम कुछ घंटों के लिए मंत्री वाला रुतबा महसूस कर लें, यह सोचकर उन्होंने सूट अलमारी से निकाला और पहन लिया. नेताजी जिस इलाके से विधायक थे, उससे सटे दूसरे जिले में उन्हें झंडा फहराने का मौका मिला था. यह बात उस जिले के सीनियर विधायक को रास नहीं आई थी, सो उन्होंने मुंह फुला लिया. समारोह में उनकी कुर्सी खाली पड़ी रह गई. बात ऊपर तक जा पहुंची. इस दफे जब 15 अगस्त आया, तब ऊपर वालों को इस बात इल्म था कि पुरानी गलती ना दोहराई जाए. मंत्री बनने के फिराक में बैठे नेताजी को भी संतुष्ट करना था, सो संतुष्ट करने के लिए उन्हें दूसरे जिले में झंडा फहराने भेज दिया. एक बार फिर नेताजी ने वही सूट निकालकर पहन लिया. बहरहाल सियासत इकलौती ऐसी जगह है, जहां पद के बगैर भी पद का रुआब पूरा-पूरा महसूस करने का मौका मिल जाता है. भले ही यह मौका कुछ घंटे का ही क्यों ना हो. उनके करीबी कहते हैं कि वक्त कब किस करवट बैठ जाए, यह कोई नहीं जानता. नेताजी कल मंत्री बन जाए, तो कोई बड़ी बात नहीं. उम्मीद पर दुनिया कायम है.

‘उबाल’

जमीनों की रजिस्ट्री की आड़ में चल रहे खेल पर शिकंजा कसने के इरादे से पिछले दिनों पंजीयन के तीन अफसरों पर गाज गिर गई. मंत्री ओ पी चौधरी के निर्देश पर पंजीयन आईजी पुष्पेंद्र मीणा की कलम चली और निलंबन का आदेश जारी हो गया. खासतौर पर पंजीयन के इन तीन अफसरों में से एक अफसर के निलंबन पर जमीन कारोबारियों के आंसू छलक पड़े. वजह भी साफ थी. पंजीयन अफसर जमीन कारोबारियों की चिंता कर लिया करती थी. सरकारी खजाने में चोट भले हो जाए पर मजाल है कि जमीन कारोबारियों के माथे पर वह जरा सा भी बल पड़ने देती. खैर, इधर निलंबन की कार्रवाई के संदेश से पंजीयन अफसरों के संघ में आक्रोश फूट गया. बैठकों पर बैठकें हुई. हड़ताल का ब्लूप्रिंट बन गया. हड़ताल होती इससे पहले मंत्री ओ पी चौधरी से मुलाकात हो गई. इस मुलाकात के बाद अफसरों के गुस्से में जितनी तेजी से उबाल आया था, उससे दोगुनी तेजी से बुलबुले सामान्य तापमान में आ गए. मंत्री ने दो टूक कह दिया कि करप्शन पर जीरो टॉलरेंस. बहरहाल रजिस्ट्री दफ्तर में हर काम का दाम तय है. सरकार की साख यही आकर गिर जाती है. मंत्री कलेक्टर रह चुके हैं. कुछ छिपा नहीं. सो उनके निर्देश पर हुए तीन अफसरों के निलंबन भर से पूरे राज्य के पंजीयन अफसर सतर्क हो गए हैं.

‘आप निगरानी में हैं’

एक जीएसटी कमिश्नर के जमाने में कारोबारियों को क्रेडिट इनपुट जारी करने के नाम पर जमकर खेल खेला गया. बरसो पुराना इनपुट क्रेडिट कारोबारियों को जारी किया जाता रहा. इसके एवज में मोटा कमीशन तय था. दूसरे तरह के कई और काम भी होते रहे. ये सारा काम कमिश्नर का पीए करता. कारोबारियों को जीएसटी कमिश्नर का असल चेहरा इस पीए में ही दिख जाता था. सरकार बदली, हालात बदल गए. आज जीएसटी दफ्तर में घूम आइए पीए के दफ्तर की दीवारों पर लिखा है, ‘आप सीसीटीवी कैमरे की निगरानी में हैं. इस कैमरे पर आवाज भी रिकॉर्ड होती है’. पिछले दिनों जीएसटी दफ्तर में एक कारोबारी ने पीए से बात करनी चाही. पीए ने दीवारों पर चस्पा की गई सूचना की ओर इशारा कर दिया. कारोबारी अपना हाथ मलते हुए चुपचाप बैठ गया. नए जीएसटी कमिश्नर भी भीड़ में लोगों से मिल रहे हैं. अफसरों की एक साथ बैठक हो रही हैं. सब काम में सब शामिल हैं. हर कोई हर किसी की नजर में है. विभाग के कामकाज में ट्रांसपेरेंसी लाने की जद्दोजहद दिखाई पड़ती है. जीएसटी के विभागीय मंत्री ओ पी चौधरी हैं. जाहिर है उनकी उम्मीद बेहतरी की होगी. इसलिए नया सिस्टम डेवलप किया जा रहा है. करप्शन पर जीरो टॉलरेंस की पहल दिख रही है. बस यह कवायद उम्मीद से शुरू होकर अफसोस पर खत्म ना हो.

‘करिश्माई व्यक्तित्व’

पिछले दिनों पूर्व मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के एक करीबी के खिलाफ 15 करोड़ रुपए की ठगी के एक मामले में एफआईआर दर्ज हुई. एफआईआर के बाद अब कई तरह की कलई खुल रही है. पूर्व मुख्यमंत्री के करीबी करिश्माई व्यक्तित्व के धनी निकले. कहते हैं कि सरकार में कुछ नहीं होते हुए भी, वही सब कुछ थे. मुख्यमंत्री के नाम पर उन्होंने जमकर धौंस जमाई. मुख्यमंत्री के साथ घूमते फिरते थे, तो रसूख तो था ही पर किसे पता था कि रसूखदार की हैसियत की भी एक सीमा होती है. कहा जा रहा है कि देश के एक बड़े कांग्रेसी नेता तक को उन्होंने नहीं बख्शा. राज्य में काम दिलाने के नाम पर मोटी रकम वसूल ली. नेता बड़े थे. प्रभाव भी बड़ा था. अपने आदमियों को भेजकर कुछ हिस्से की वसूली कर ली. कुछ हिस्सा अब भी बाकी है. कुछ कारोबारी थे, जिन्होंने डरा धमकाकर दी गई मोटी रकम के बदले जमीन ले ली. सुनते हैं कि पूजा पाठ में गहरी रुचि रखने वाले उस शख्स ने यहां-वहां खूब अनुष्ठान करा रखे थे. इस भरोसे से की सरकार में कांग्रेस की वापसी होगी. जब सरकार आई नहीं, तो कई दिनों तक घर में दुबके बैठे रहे. उनके करीबी बताते हैं कि वह कहते थे, तुम मुझे 30 करोड़ दो, मैं तुम्हें 60 करोड़ दूंगा. न जाने उनके इस मायाजाल में और कितने बकरे फंसे होंगे.