
भ्रष्ट थाना
एक आम नागरिक किसी मंदिर के सामने सिर झुकाकर गुजरे या न गुजरे. मगर रास्ते में पड़ने वाले इन तीन स्थलों के बाहर से ही सिर झुकाकर गुजरता है. पहला थाना, दूसरा अस्पताल और तीसरा कोर्ट. इन स्थलों से गुजरते हुए उसके मन में बस एक ही प्रार्थना चलती है कि ‘हे ईश्वर कभी इन स्थलों का भीतर से दर्शन न कराइएगा’. एक बार यहां घुसने भर की देरी है, फिर जेब कटती चली जाती है. आज बात सिर्फ थाने की. एक बार आप थाने घुस बस जाइए. चक्कर खाकर गिर पड़ेंगे. न केवल शिकायत बल्कि, उस शिकायत पर खर्च होने वाली स्याही भी आपकी होगी और कागज भी आपका होगा. यकीनन उस थाने के लिए आपके मुंह से बोल फूट पड़ेंगे. ‘भ्रष्टाचार का अड्डा’, ‘घूस खोरी का केंद्र’, ‘पुलिस की दुकान’ वगैरह-वगैरह. पुलिस थाने के वर्दी धारियों को यह सब सुनकर दुख भी नहीं होगा. उन्हें यह सब सुनने की आदत हो गई है. वह जानते हैं कि गालियां उन्हें प्रत्यक्ष मिल रही हैं, लेकिन गालियों की इस हिस्सेदारी में वह अप्रत्यक्ष हिस्सेदार है. प्रत्यक्ष हिस्सेदार सूबे का गृह विभाग है, जो एक थाने में दस्तावेजी खर्च के लिए महज 5 हजार रुपए देता है. अमूमन एक-दो प्रकरण में ही यह रकम खर्च हो जाती है. फिर सवाल उठता है कि इसके बाद क्या? क्या पुलिस थाने का शटर गिरा दे और सो जाए. नहीं भाई, थाना चौबीस घंटे जागने वाली जगह है. नींद से थाने का कोई सरोकार नहीं. थाना बगैर ईंधन के उस इंजन की तरह है, जिसे चलना भी है और धुआँ भी नहीं छोड़ना है. अब सोचिए जरा किसी मामूली शिकायत के लिए जो थाना कागज और स्याही के खर्च के लिए भी प्रार्थी पर निर्भर रहता हो, उस पर नेताओं-अफसरों की चाकरी से लेकर कई बार जजों के घरों की सब्जी-भाजी तक के इंतज़ाम की अतिरिक्त जिम्मेदारी मढ़ दी जाती है. ज़ाहिर है, इस बोझ को कम करने थानों के थानेदार अपने इलाके में सट्टा-गांजा, अवैध शराब, स्पा, ग़ैर जरूरी चालान जैसे रास्तों का चयन करते हैं. यदा-कदा सोशल मीडिया पर अपराधियों के साथ उनकी गलबहियां करने की तस्वीर भी आ जाती है. एक ईमानदार थाने की बदनाम होने की इतनी सी कहानी है. यह बात और है कि इसके आगे किसी वर्दीधारी के लालच की भूख को नापने का कोई थर्मामीटर नहीं है. यह भूख अब असीमित हो चली है. बहरहाल, सरकार हुजूर जरा बताइए कि थाना को भ्रष्ट कहना ज्यादा मुनासिब है या फिर यह कहना कि सिस्टम के प्रति थाना ज्यादा व्यावहारिक हो गया है. कम से कम सरकार के हाथ में जो है, वह तो कर ही लेना चाहिए.
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जाँच की दर
थानों में दर्ज होने वाले प्रकरण की जाँच का खर्च भी कई-कई बार प्रार्थी से ही वसूल लिया जाता है. अपराध की प्रकृति अंतर्राज्यीय स्तर की हो, तब मानकर चलिए कि ट्रेन से लेकर फ्लाइट तक की टिकट का खर्च प्रार्थी के हिस्से तय है. सरकार को पड़ोसी राज्य ओडिशा की ओर झाँक आना चाहिए, जहां मर्डर की जाँच के लिए 25 हज़ार रुपए, बलात्कार की जाँच के लिए 37 हज़ार रुपए, अपहरण की जाँच के लिए 30 हज़ार रुपए और साइबर अपराध से जुड़ी जाँच के लिए 45 हज़ार रुपए तक का खर्च सरकार उठा रही है. छत्तीसगढ़ पुलिस को फ़िलहाल यह सुविधा नहीं है. सरकार चाहे तो ओडिशा से इस मामले में ट्यूशन ले सकती है. सरकार पुलिस रिफार्म के लिए इन छोटी-छोटी चीजों पर ध्यान दे दे, तो शायद पुलिस महकमे में फैले भ्रष्ट तंत्र को कुछ हद तक सुधारा जा सकता है. पुलिस जनता के बीच सुरक्षा की उम्मीद जगाती है, यह भरोसा बना रहना चाहिए. सूबे के डीजीपी और इंटेलिजेंस चीफ बेसिक पुलिसिंग पर ज़ोर भी दे रहे हैं. बुनियादी तौर पर छोटे-छोटे मसले दूर कर पुलिस की साख को मजबूती दी जा सकती है.
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घेरे में विधायक !
राजस्थान में सवाल न पूछने के एवज में रिश्वत मांगे जाने पर एक विधायक को रंगे हाथों दबोच लिया गया. इधर छत्तीसगढ़ में भी विधायकों का हाल बेहाल है. यह बात और है कि अब तक यहां कोई विधायक नपा नहीं है. खैर, पूर्ववर्ती सरकार में एक दफे कुछ सौ करोड़ रुपए के एक घोटाले से जुड़े एक मामले में एक विधायक ने सदन में सवाल लगाया. मामला गंभीर था. सदन में उठता, तो सरकार की किरकिरी तय थी. विधायक ने खूब मेहनत की थी. दस्तावेजों को बारीक से पढ़ा था. कई-कई घंटों तक विधायक को समझाया बुझाया गया था. विधायक भी प्रकरण की गहराई में बहुत नीचे तक उतर गए थे. उन्हें समझ आ गया था कि सवाल पूछने से उनका कुछ भला तो होगा नहीं, नहीं पूछने से भलाई ज़रूर होगी. सवाल पूछने के लिए जब सदन में उनका नाम पुकारा गया, विधायक अपनी सीट से ग़ायब मिले. ठीक उस वक्त ही उनका पेट खराब हो गया. वह बाथरूम में थे. जब वह लौटकर सदन में आए, तब तक उनका सवाल पीछे छूट चुका था. उनके चेहरे पर मुस्कान थी. बाद में मालूम चला कि जो फँस रहे थे, उन्होंने मुँह मांगी रकम देकर विधायक को अपने घेरे में फंसा लिया था. बहरहाल यह कोई नई बात नहीं है. विधायक भी जानते हैं कि विधानसभा ही वह जगह है जहां वह फ्रंट फुट बैटिंग कर सकते हैं. कई बार विधायक अपने ख़ुद के लिए चौका-छक्का लगाने की ज़हमत उठा लेते हैं. विधानसभा में लगने वाले विधायकों के सवाल और उस पर उनकी ग़ैर मौजूदगी का विश्लेषण सब कुछ बता जाता है.
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छुट्टी पर ब्रेक !
सरकारी अधिकारी-कर्मचारियों की सरकारी छुट्टी पर क्या ब्रेक लग जाएगा! इसे लेकर सवाल उठ रहा है. सुनते हैं कि सरकार ने एक-दो मर्तबा इस मसले पर रायशुमारी की है. फ़िलहाल यह तय नहीं है कि इस मसले पर किसी तरह का ठोस फैसला लिया जाएगा या नहीं? पर चर्चा तो उठी है. खैर, इन सबके बीच जरूरी बात यह है कि राज्य में सरकारी कर्मचारियों के काम करने का औसत 7 घंटे का है. इसमें लंच के लिए मिलने वाला आधा घंटा भी शामिल है. फिर चाय-पानी, गुटखा गोष्ठी, गप्पे बाजी सब कुछ इन 7 घंटों में ही शामिल है. ऐसे में एक कर्मचारी के काम करने का औसत और कम हो जाता है. कहते हैं कि सरकार ने अपनी समीक्षा में पाया है कि दो दिनों का साप्ताहिक अवकाश प्रशासनिक कामकाज को बुरी तरह से प्रभावित कर रहा है. ज़्यादातर कर्मचारी शुक्रवार से ही छुट्टी के मूड में चले जाते हैं और सोमवार की दोपहर तक यह मूड वैसा ही बना होता है. दो दिनों के साप्ताहिक अवकाश शुरू होने के साथ ही यह नियम बनाया गया था कि कामकाज के दिनों में अतिरिक्त घंटे देने होंगे, मगर हाल ढाक के तीन पात जैसे ही है. फ़िलहाल तो ख़बर यह है कि छुट्टी की इस मौजूदा व्यवस्था को रिव्यू में ले लिया गया है.
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ग्रहण
मंत्रिमंडल विस्तार पर ग्रहण लग गया है. जब-जब विस्तार की आहट होती है, तब-तब कुछ अप्रत्याशित घटना घट जाती है. कौन जानता था कि पहलगाम की घटना घट जाएगी? भारत-पाकिस्तान की बीच टकराव बढ़ जाएगा? हालात युद्ध की तरह बन जाएंगे. मंत्रिमंडल की कुर्सी जिन-जिन नेताओं को तरसा रही है, अब हर दिन वे दीवार पर अपना सिर मार बैठते हैं. एक नेताजी के बाल पहले से कम हैं, पिछले दिनों उनके माथे पर कुछ लोगों ने सूजन देखी और पूछा कि यह कैसे हो गया? नेताजी बेबाक़ है. दो टूक कह बैठे, सूर्यग्रहण और चंद्रग्रहण का प्रभाव भी इतना लंबा नहीं होता. न जाने यह कौन सा ‘ग्रहण’ है. अब दिल्ली वाले युद्ध की बैठकों में दिमाग़ खपाए या राज्य में मंत्री बनाने में. उन्होंने कहा कि शादी ब्याह के संदर्भ में ही कहावत बनी है कि चट मंगनी पट ब्याह. सरकार को भी इसी कहावत पर चलनी चाहिए. चट सरकार पट मंत्रिमंडल….