Column By- Ashish Tiwari, Resident Editor Contact no : 9425525128

पत्रकार की मौत

बस्तर में घटिया सड़क निर्माण उजागर करने की कीमत एक पत्रकार ने अपनी मौत से चुकाई है. जिस ठेकेदार के काले कारनामों को पत्रकार मुकेश चंद्राकर ने उजागर किया, उसी ठेकेदार ने उसकी हत्या कर सीवरेज टैंक में उसे चुनवा दिया. आखिर ठेकेदार को इतनी हिम्मत कौन दे गया? कौन थे वो अफसर, जिनसे ठेकेदार की गलबहियां थी? कौन थे वो नेता, जिनके हाथ उस ठेकेदार के कंधों पर थे. जांच की आंच उन अफसरों और उन नेताओं तक भी पहुंचनी ही चाहिए. मुकेश चंद्राकर देश भर से बस्तर आने वाले पत्रकारों की आंख भी थे. बीहड़ों में उन्हें ले जाते. स्टोरी लाइन बताते. कभी नक्सलियों की मांद में घुसकर सुरक्षा बलों के जवानों को छुड़ा लाते. संभावना से भरे एक पत्रकार की यह मौत हर किसी को कचोटनी चाहिए. बस्तर का पत्रकार सिर्फ नौकरी नहीं करता. पत्रकारिता का सर्वाधिक जोखिम भी उसके हिस्से होता है. मुकेश चंद्राकर जैसे दुस्साहसी पत्रकार ने इस जोखिम की कीमत चुकाई है.

कब्रगाह

सरकारी व्यवस्था पर चोट करने वाले कवि अदम गोंडवी ने कभी लिखा था, ”तुम्हारी फाइलों में गांव का मौसम गुलाबी है, मगर ये आंकड़े झूठे हैं, ये दावा किताबी है”. बीते ढाई दशकों से बस्तर इन पंक्तियों की तरह रहा. अथाह पैसा बस्तर पहुंचा. एक मामूली हिस्सा जमीन पर और एक बड़ा हिस्सा कागजों पर खर्च हुआ. एक अफसर ने कहा कि जिस बीजापुर के पत्रकार मुकेश चंद्राकर की एक ठेकेदार ने हत्या कर दी, उसी बीजापुर में पूर्ववर्ती सरकार में जंगलों के भीतर हुए एक निर्माण कार्य के एवज में एक ठेकेदार को 18 करोड़ रुपए का भुगतान कर दिया गया. जमीन पर एक ढेला भी नहीं रखा गया था. मगर कागजों पर काम पूरा था. कागजों पर खर्च हुई रकम का एक बड़ा हिस्सा राजधानी के बंगले तक पहुंचाया गया. यह उदाहरण सिर्फ एक बानगी है. दरअसल बस्तर सरकारी नौकरों के लिए कालापानी कभी नहीं रहा. हव्वा जरूर बनाया गया. बस्तर से ही अफसरों-नेताओं की कोठियां सजी हैं. अच्छा होता कि सरकार बीते ढाई दशक में बस्तर में खर्च हुई रकम का आडिट करा लें. शायद तब मालूम चल जाएगा कि बस्तर घोटाले की एक बड़ी कब्रगाह है.

चक्रव्यूह

सरकार चक्रव्यूह रचती है और कुछ अफसर हैं, जो अभिमन्यु बनकर उसे भेदने में सिद्धहस्त होते हैं. अब इस मामले को ही देखिए. सरकार ने अवैध धान की खेप रोकने सीमावर्ती जिलों में पहरेदारी बिठाई. कलेक्टरों को पहरेदारी दल का कप्तान बनाया. मगर एक जिले में पहरेदार ही ‘चोर’ निकल गया. फिलहाल यह खबर सतह पर नहीं है, इसलिए ज्यादा शोर नहीं मच रहा. खबर है कि कलेक्टर की कुंडली आलाकमान तक पहुंच गई है. नजर के चश्मे से बार-बार कुंडली का ग्रह योग देख लिया गया है. कलेक्टर के कारनामों पर आलाकमान की भौंहे तन गई है. अगली बार जब कलेक्टरों के तबादले की सूची जारी होगी तब पहरेदार बने कलेक्टर का हिट विकेट हो जाए तो ताज्जुब नहीं होगा..वैसे भी अभिमन्यु चक्रव्यूह में घुसना जानता था, निकलना नहीं. वजनदार कलेक्टर साहब को समय रहते चेत जाना चाहिए.

फिल्ममेकर

पूर्ववर्ती सरकार जांच की आंच में गर्म होती रही. एजेंसियों के दफ्तर भट्टी बन गए थे. हर रोज किस्म-किस्म के घोटालेबाज गर्म सवालों की भट्टी में लाए जाते. भट्टी में घोटालेबाज तपते थे, मगर सोने की भांति तेज चमक कभी-कभी एजेंसी के कुछ अफसरों के चेहरे पर आ जाती थी. एक जांच एजेंसी से जुड़े एक ऐसे ही चमकीले अफसर की चर्चा सुर्खियों में आ गई है. कहते हैं कि अफसर के पास कोल घोटाले की जांच का जिम्मा था. कालिख से सने हाथों से रोजाना कागजों पर दस्तखत लेते-लेते शायद कुछ कालिख उनके हाथों में आ गई होगी. तभी उन्होंने नौकरी छोड़ने का दुस्साहस किया है. एजेंसी के इस पूर्व अफसर की नई पहचान फिल्ममेकर की बन गई है. अब फिल्में बना रहे हैं. फिल्म बनाने के लिए खूब पैसा चाहिए होता है. चर्चा है कि उनके पास अब पैसा भी हैं और कहानियां भी…..

शैडो कलेक्टर

एक जिले में शिक्षा महकमे से जुड़ा एक अधिकारी शैडो कलेक्टर बनकर काम कर रहा है. इस खटराल अधिकारी ने पूरे जिले में ये प्रचारित कर रखा है कि कलेक्टर तो सिर्फ नाम भर के हैं, जिले का कंट्रोल उसके हाथों में है. खटराल अधिकारी का भय सिर चढ़कर बोल रहा है. शैडो कलेक्टर की बनाई गई उसकी झांकी से पर्याप्त सम्मान भी उसके हिस्से है. कलेक्टर सुलझे किस्म के हैं. इसके बावजूद शैडो कलेक्टर बनकर घूम रहा अधिकारी उनके इर्द गिर्द कैसे मंडरा रहा हैं, यह उन्हें देखना चाहिए, जिससे बेपटरी हुई व्यवस्था बहाल हो सके.

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