
Don’t miss the fund
छत्तीसगढ़ में एक जादुई खजाना है, नाम है- डीएमएफ. दस्तावेजों में इसे जिला खनिज निधि कहते हैं, लेकिन अफसरों की डायरी में इसका दूसरा नाम भी है, ‘डेली मनी फंड’. खनन प्रभावित इलाकों में विकास के लिए बनी ये निधि, समय के साथ कलेक्टरों की विकास विरोधी वासना का साधन बन गई. हर नए कलेक्टर की ख्वाहिश होती है, ‘मुझे कोई ऐसा जिला दे दो प्रभु, जहां बस डीएमएफ हो’. जैसे ही कोई नया कलेक्टर जिले में उतरता है, उसका पहला वाक्य होता है ‘नमस्ते’ और दूसरा होता है- ‘डीएमएफ का बैलेंस कितना है?’ डीएमएफ नाम की इस दुधारू गाय का जन्म तो गरीबों के कल्याण के लिए है, मगर इसके दूध पर पहला हक अफसरशाही का रहा है. कोई सड़क बने न बने, अफसर के बंगले में स्विमिंग पूल जरूर बनता रहा है. स्कूलों में छत कितना ही टपकते रहे, मगर अफसर अपनी सुविधा के लिए लिफ्ट लगाते रहे हैं. कलेक्टरों की डीएमएफ में चल रही इन कारगुजारियों को देखकर एक दफे एक सीनियर आईएएस ने कहा था कि, ‘कभी-कभी लगता है कि डीएमएफ का मतलब district mineral fund नहीं, बल्कि don’t miss the fund है’. खैर, जब जनता के लिए आया धन, फाइलों में थम जाए या अफसरों की खिदमत में खर्च होने लगे, तब विकास नहीं, व्यवस्था बीमार होती है. बहरहाल इस निधि के खर्च के लिए नियत चाहिए. दंतेवाड़ा कलेक्टर मयंक चतुर्वेदी साफ नियत लेकर आते दिखते हैं. दंतेवाड़ा जिले से कलेक्टर के रूप में विदाई से पहले उन्होंने मेडिकल कॉलेज के लिए 300 करोड़ रुपए की स्वीकृति दे दी. दंतेवाड़ा में मेडिकल कॉलेज बनने का मतलब है कि सुदूर इलाकों में इलाज के अभाव में जिंदगी की खत्म होती सांसों को थाम लेना. कलेक्टरों के डीएमएफ प्रेम ने ईमानदारी को असाध्य बीमारी घोषित कर दिया था. दंतेवाड़ा ने कुछ बेहतर करने का रास्ता दिखाया है. डीएमएफ जिले में बहुत कुछ करने की गुंजाइश है. सरकार को चाहिए कि इन जिलों में ढूंढ-ढूंढ कर विकासवादी अफसर बिठाए जाएं. सुशासन सरकार का इकबाल ही बुलंद होगा.
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…और चढ़ गई बलि
उच्च शिक्षा विभाग में एक आईएएस अफसर की विदाई और एक अफसर के स्वागत के उत्सव पर सरकार ने अपनी आंंखें तरेर दी. सरकारी नौकरी में तबादला एक शाश्वत सत्य की तरह है. मगर इस मामले में विदाई-स्वागत का यह उत्सव ‘शुभ अवसर’ बनकर आया था. बाकायदा कार्ड छपवाए गए थे. न जाने कितनी तैयारियां चल रही थी. गिफ्ट देने के लिए रकम जुटाने की मुहिम तक चलाई गई. मगर होनी को कुछ और ही मंजूर था. सितारा होटल में होने वाले इस आयोजन पर सरकार ग्रहण बनकर आ खड़ी हो गई. आखिरकार आयोजन रद्द कर दिया गया. इस आयोजन को सफल बनाने में पूरी शिद्दत से जुटे अफसरों के चेहरे मायूसी से भर उठे. सहसा उनके दिल में उस शेर की पंक्तियां हिलोरे मार उठी होंगी, जिसमें शायर कहता है, ‘आंख से दूर सही, दिल से कहाँ जाएगा, जाने वाले तू हमें याद बहुत आएगा’. खैर, इस उत्सव से भला किसी को क्या दिक्कत थी? दरअसल, दिक्कत इस उत्सव पर होने वाले सरकारी खर्च को लेकर थी. सोशल मीडिया पर रायता न बिखरा होता, तो सरकार तक बात यूं न पहुंचती. दरअसल सरकारी व्यवस्था में तबादले की प्रक्रिया अब ‘सोशल इवेंट’ बन गई है. बस सरकार को छोड़कर सबको यह ‘उत्सव’ बहुत पसंद आता है. खामखां एक आयोजन ने एक अफसर की बलि चढ़ा दी. हालिया तबादले में बदल दिए गए.
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वजन तौल कर पोस्टिंग
सूबे की साय सरकार ने प्रशासनिक सर्जरी की है. 41 आईएएस अफसरों के तबादले कर दिए. इस तबादले में 11 जिलों के कलेक्टर बदले गए हैं. कुछ कलेक्टरों को इधर से उधर किया गया है और ज्यादातर नए लाए गए हैं. कुछ कलेक्टर हैं, जिन्हें अब बाबूगिरी के काम में लगा दिया गया है. तबादले के पहले सरकार अफसरों के कामकाज का परफार्मेंस आडिट कर रही थी. एक-एक कलेक्टर की रिपोर्ट बनाई जा रही थी. सुशासन के नारे पर मुहर लगाने की चुनौती भी सरकार के सामने थी. इसलिए फैसला ठहर कर लिया गया. कलेक्टरों के अलावा मंत्रालय स्तर पर भी बड़ा फेरबदल हुआ है. कुछ बेहतर मिलने की आस लगाए बैठे थे. नाउम्मीदी उनके हिस्से आई है. बहरहाल सरकार अब वजन तौलकर जिम्मेदारी बांट रही है. वजन तौलने का सरकार का अपना फार्मूला है. फार्मूला अप्लाई किया गया है. सरकार के मन मुताबिक रिजल्ट आया तो ठीक, नहीं आया तो दूसरा फार्मूला अप्लाई किया जाएगा. वैसे यह बात और है कि सरकार अब चाह रही है कि बार-बार फेरबदल के आदेश में खर्च होने वाली स्याही बचाई जाए. इसलिए यह चर्चा है कि डेढ़ दो साल इस सूची में किसी तरह का बदलाव नहीं किया जाएगा. यह बात और है कि अगर कोई अफसर नैतिक गिरावट के सूचकांक पर लगातार हाशिए पर जाता दिखेगा, तब सरकार सुशासन का हंटर चलाएगी. आखिरकार यह ‘सुशासन’ की सरकार है, जो शायद यह मानती है कि कायदे के अफसर अगर ठीक-ठाक जगह बैठते हैं, तो सरकार की मंशा भी पूरी होती है. कायदे का अफसर ही सरकार की साख बचाकर चलता है.
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डाका
क्या सिपाही के हक पर भी भला कोई रौबदार आईपीएस डाका डाल सकता है? चंद रुपयों की खातिर कोई अपनी नैतिकता का पतन कैसे कर सकता है? सूबे के एक बटालियन के कमांडेंट हैं, जो कभी सिपाहियों की छुट्टी पर उगाही कर बैठते हैं, तो कभी देर से आमद दर्ज करने वाले सिपाही की जेब से डकैती. आखिर बटालियन के कमांडेंट साहब कोई मामूली इंसान थोड़े ही हैं, वो तो नैतिकता के बाजार में ‘रियायती दाम’ पर ईमान बेचने वाले अफसर हैं. शायद आईपीएस महोदय को यह भनक लग गई है कि एसपी गिरी का कोई मौका फिलहाल तो उन्हें मिलने से रहा. तो उन्होंने सोचा होगा कि जहां हैं, वहीं अपना मंगल कर लिया जाए. वैसे भी कमांडेंट वह शौक से बने नहीं हैं. कोई आला अफसर इससे ज्यादा उनका क्या ही बिगाड़ लेगा. खैर, बरखुरदार आईपीएस को कम से कम यह सोच लेना चाहिए कि उनकी हरकत पर शीर्ष नजर है और उनका सब किया धरा दर्ज किया जा रहा है. पिछले दिनों की बात है कि आला अफसरों ने कमांडेंट की करतूतों पर सख्ती बरती है. तैनाती की जगह छोड़ राजधानी में डेरा डालने वाले अफसरों को नियम कानून की घुट्टी पिलाई गई है. जब तक जरूरत न हो उनके मुख्यालय छोड़ने पर पाबंदी लगा दी गई है. मगर इस बीच मुद्दे की बात यह है कि ऐसे अफसरों को घुट्टी पिलाने भर से नैतिकता आती होती, तो राज्य में सुशासन लाने सरकार को इतने पापड़ नहीं बेलने पड़ते.
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प्रतिस्पर्धा
बीते दिनों अखबार में दो तरह की सुर्खियां दिखाई पड़ी. एक खबर थी कि राज्य के सबसे बड़े अस्पताल में दिल की बीमारी के मरीज एक-एक साल से आपरेशन के इंतजार में भर्ती है. आपरेशन के लिए जरूरी सामान अस्पताल में नहीं है, दूसरी तरफ की एक तस्वीर दिखाई पड़ी जिसमें निगम, मंडल और आयोगों में हुई हालिया नियुक्ति के बाद शपथ ग्रहण समारोह का आयोजन किसी प्रतिस्पर्धा से कम न था. हर आयोजन की तस्वीर चीख-चीख कर बताती रही कि खर्च बेतरतीब हुआ है. सरकार जैसे-तैसे खजाने में पाई-पाई जोड़कर अपनी जरूरतों की पूर्ति कर रही है और यहां आयोजनों की प्रतिस्पर्धा कुछ और कहानी बयां करती दिखती है. यह मानकर चलना चाहिए कि सरकार को भी यह सब देखकर अच्छा नहीं लगा होगा.
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