‘लोमड़ी’
”लोमड़ी तेज दिमाग वाला एक अवसरवादी शिकारी है. लोमड़ी के कान सीधे त्रिकोणीय होते हैं. इससे उसकी सुनने की क्षमता बढ़ जाती है. लोमड़ी की बुद्धिमानी इतनी है कि शेर जैसे खूंखार जानवर के शिकार से वह अपने लिए भोजन चुरा लेता है. लोमड़ी काफी फुर्तीला जानवर है. इसकी दौड़ने की रफ्तार 50 किलोमीटर प्रति घंटा तक है”…..जंगल विभाग के एक बड़े अधिकारी, जंगल सफारी में तैनात अपने एक मातहत अधिकारी की तुलना लोमड़ी से करते हुए उसके गुण साझा कर रहे थे. उन्होंने बताया कि पशुपालन विभाग में जानवरों का इलाज करते-करते एक अधिकारी ने लोमड़ी की तरह एक बेहतर अवसर की तलाश की. उस अधिकारी ने पहले पंचायत विभाग में अपना संविलियन कराया. वहां सहायक परियोजना अधिकारी बन बैठा. उसने 8 करोड़ रुपए से ज्यादा का घोटाला किया. एफआईआर दर्ज हुई. निलंबित हो गया. गिरफ्तारी की तलवार लटकी, तब आनन-फानन में उसने जमानत ले ली. पंचायत में विवादित चेहरा लेकर काम करना आसान नहीं था. तब उसने शेर के शिकार से भोजन चुराने के लोमड़ी के पैतरे का इस्तेमाल किया. राज्य सरकार ने जंगल विभाग में तीन डाॅक्टरों की संविलियन की फाइल चलाई थी. इस अधिकारी ने मौके को भुनाया. फाइल में उसका नाम नहीं था, मगर चालाकी से जोड़ दिया गया. अबकी बार वह जंगल महकमे का अधिकारी बन बैठा. उधर मुकदमा चलता रहा. इधर लोमड़ी की रफ्तार की तरह जंगल विभाग में उस अधिकारी की रफ्तार हर दिन बढ़ती रही. अधिकारी की रफ्तार इतनी तेज थी कि जब आईएफएस प्रमोशन की बारी आई, तब संभावित नामों में एक नाम उसका भी शामिल हो गया. आईएफएस प्रमोशन की प्रक्रिया आगे बढ़ने ही वाली थी कि उसे एक झटका लग गया. सारी चालाकी धरी की धरी रह गई. पुरानी कारगुजारियों के दस्तावेज बाहर आ गए. जंगल महकमे ने जांच बिठा दी. पूछा गया कि संविलियन के वक्त मुकदमों की जानकारी क्यों छिपाई गई? सरपरस्ती देने वाले अधिकारियों का साथ मिला. जांच थम गई. बहरहाल जंगल सफारी में बेजुबान जानवरों की मौत का सौदागर बने उस अधिकारी के विरुद्ध विभाग ने एक बार फिर फाइल चलाई है. यह फाइल उस अधिकारी के जंगल विभाग में हुए संविलियन पर सवाल उठाने वाली है. इस फाइल में लिखे गए शब्द तलवार की धार की तरह चुभने वाले हैं. अधिकारी के संविलियन को अवैध माना गया है. लोमड़ी के गुणों की व्याख्या करने वाले जंगल विभाग के बड़े अधिकारी कह रहे थे कि हर लोमड़ी का दिन लदता है. उस अधिकारी के दिन अब लदते दिख रहे हैं, लेकिन लोमड़ी की व्याख्या करते हुए वह यह भूल गए हैं कि लोमड़ी शेर का शिकार चुरा कर उसका कुछ हिस्सा गुप्त स्थान पर रख देता है, जिससे वह अगली बार अपनी भूख मिटा सके. सख्त लहजे वाली फाइल के बाद भी यदि उस अधिकारी का बाल भी बांका न हो, तो समझिएगा कि इंसान की शक्ल में एक चालाक लोमड़ी जंगल विभाग में काम कर रहा है.
‘दूध’
ब्यूरोक्रेसी में एक बड़े साहब थे. अब नहीं है. उनके रिटायरमेंट की दहलीज पर पहुंचने के दिनों की बात है. रायपुर के सरहदी इलाके में उनके फार्म हाउस की देसी गाय ने दूध देना बंद कर दिया था. तब उन्होंने पशुपालन विभाग के एक अधिकारी को फोन किया. कहा, दूध देने वाली एक अच्छी गाय छोड़कर यह गाय ले जाए. साहब का फरमान था, सो अधिकारी ने ज्यादा दूध देने वाली गाय छोड़ दी थी. रिप्लेसमेंट में दूध नहीं देने वाली गाय विभाग के रिकार्ड में आ गई. किसी को कानों कान खबर तक नहीं हुई थी. सरकारी साहबों के गाय प्रेम के किस्से पर पशुपालन विभाग के अफसर-कर्मचारियों से दो-चार बात करेंगे तब मालूम चलेगा कि जिलों का हाल और भी ज्यादा बेहाल है. जिलों में कलेक्टर साहब गाय की तरह गुर्राते हुए पशुपालन विभाग की ओर देखते हैं. विभाग समझ जाता है. ऊंची किस्म की गाय बंगले पहुंचा दी जाती है. सुबह-शाम गाय का ताजा दूध साहबों की हलक से नीचे उतरता है. हलक से नीचे उतरते दूध के हर घूट पर ‘कलेक्टर साहब’ काश यह सोच पाते हों कि सुदूर सरकारी स्कूलों में बंटने वाले मीड डे मिल में दाल की शक्ल में हल्दी पानी और कंकड़ वाला चावल मासूम बच्चों को आखिर कैसे सुपोषित करता होगा? खैर, गाय और अफसरों के दूध प्रेम का यह किस्सा जिलों में ही खत्म नहीं हो जाता. कुछ साहबों का दूध प्रेम का लेवल हाई होता है. जिलों से राजधानी तक के सफर में सिर्फ साहब और सामान नहीं आते. ट्रक में भरकर गाय भी लाई जाती है. अब राजधानी के बंगलों में गाय की जगह तो है नहीं. रिटायर हो चुके बड़े साहब की तरह हर किसी के पास राजधानी में फार्म हाउस भी नहीं है, सो गाय गौशाला में रखी जाती है. गौशाला में दूध का बंटवारा होता है. मसलन कोई गाय 20 लीटर दूध देती है. तो उस दूध से दस लीटर साहब के कोटे में और दस लीटर गौशाला के कोटे में चला जाता है. अब जब कोई कलेक्टर जिले की पोस्टिंग से राजधानी लौटे, तो यह समझते देर नहीं लगाइएगा कि उनके चेहरे पर आई कांति में एक हिस्सेदारी पशुपालन विभाग की गाय के दूध की है.
’65 इंच की टीवी’
स्थान- मंत्री बंगले का गलियारा. चर्चा का विषय- 65 इंच की टीवी. चौकिएगा नहीं. बात नई जरूर है, लेकिन ऐसा पहली बार हुआ हो, ऐसा नहीं है. यदि आप ठीक ठाक ‘कुर्सी’ पर जम गए हैं, तो आपकी निजी जिंदगी की छोटी सी छोटी जरूरत ‘कुर्सी’ पूरा कर देगी. भले ही आपकी ख्वाहिश नए घर की दीवार पर सोनी कंपनी की X75L माॅडल की 65 इंच की एक टीवी लगाने की ही क्यों न हो? अब भला कुर्सी कैसे जरूरत पूरी कर सकती है. बिल्कुल कर सकती है. यह कुर्सी उस पर बैठने वाले शख्स को फाइल पर दस्तखत करने की ताकत देती है. सरकारी व्यवस्था में एक ऐसा मैकेनिज्म बनाया गया है कि दस्तखत के बगैर फाइल आगे नहीं बढ़ सकती. दस्तखत हुआ तो ठीक, नहीं हुआ तो फाइल पर धूल जमना तय. सिंपल सा फार्मूला है. फिलहाल चर्चा पर लौटते हैं. मंत्री बंगले में चर्चा चल रही थी. एक ने कहा कि दफ्तर की साज-सज्जा करने वाले ठेकेदार को बकाया भुगतान करने के संदर्भ में मंत्री जी ने एक अफसर को फोन किया. भुगतान जल्द करने के निर्देश दिए. बावजूद इसके अफसर ने भुगतान नहीं किया. साज-सज्जा करने वाले ठेकेदार ने जब अफसर से बात की, तब उन्होंने उस ठेकेदार से एक बड़ी टीवी की डिमांड कर दी. साहब नया रायपुर के सरकारी बंगले में शिफ्ट हो रहे थे. नई टीवी की दरकार थी. जुगाड़ ढूंढा जा रहा था. साज-सज्जा करने वाला ठेकेदार बकरा बनकर सामने आ गया. उसके भाग्य में हलाल होना लिखा था. अफसर के नए घर की दीवार पर नई टीवी लटक गई, पर उसके भुगतान का मामला अटक गया. सुनते हैं कि अफसर ने ठेकेदार के नंबर को ब्लाक कर दिया है. ठेकेदार को मंत्री से फोन कराना भारी पड़ गया. ठेकेदार मूर्ख निकला. दीवार पर टीवी टांगने भर से अटका पैसा निकल रहा था. खामखा मंत्री तक बात चली गई.
‘नाराजगी’
हालिया तबादले में एक जिले में पहुंचे कलेक्टर सांसद की नाराजगी का शिकार हो गए. सांसद गली-गली घूम घूम कर कलेक्टर के खिलाफ जहर उगल रहे हैं. सांसद ने कलेक्टर के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है. सांसद का आरोप है कि कलेक्टर उनकी सुनते नहीं हैं. उनके बताये काम को नजरअंदाज किया जाता है. पिछले दिनों सांसद ने भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष से तल्ख लहजे में शिकायत की. सांसद के तेवर में इतनी गर्माहट थी कि प्रदेश अध्यक्ष भी सिहर उठे. मौके की नजाकत को देखते हुए स्थिति संभाली और कलेक्टर को हटाने खुद सिफारिश करने का आश्वासन दिया. सरकार बने 9-10 महीने ही बीते हैं कि सत्तापक्ष के सांसद-विधायकों की नाराजगी उफान पर आ रही है. सांसद-विधायक पिछली सरकार का उदाहरण दे रहे हैं. वह कह रहे हैं कि एक शिकायत पर कलेक्टर हो या एसपी सरकार बदल दिया करती थी. सांसद-विधायक के हितों का ध्यान रखा जाता था. अब कोई सुनवाई नहीं हो रही है. पहले इस तरह की शिकायतें बंद कमरे में की जाती थी. अब सांसद हो या विधायक उन्हें भीड़ में टिप्पणी करने से कोई गुरेज नहीं.
‘डीईओ पर गाज कब!’
स्कूलों में बंटने वाली किताब कारखाने में कट गई. मामला फूटा. सरकार सतर्क हो गई. पाठ्य पुस्तक निगम के जीएम को निलंबित कर दिया गया. जांच कमेटी बन गई. जांच जारी है. मगर अब कहा जा रहा है कि जीएम को हटाने में सरकार ने हड़बड़ी कर दी. किताबों के छापने से लेकर उसके वितरण तक की एक तय व्यवस्था है. सरकारी किताबों के कारखाने में काटे जाने की घटना के बाद किताबों की छपाई और उसके वितरण की व्यवस्था समझे जाने की जरूरत है. नए सत्र के लिए कितनी किताबें छापी जाएंगी? इसे लेकर पाठ्य पुस्तक निगम डीपीआई को पत्र जारी करता है. डीपीआई आंकड़ें जुटाकर पाठ्य पुस्तक निगम को भेजता है. पिछले साल के आंकड़ों में से पांच फीसदी आंकड़ें बढ़ाकर किताब छपाई जाती है, मगर इस सत्र के लिए कोई कोटा नहीं बढ़ाया गया था. मंत्री, बोर्ड, डीपीआई और निगम की संयुक्त कमेटी ने मिलकर यह तय किया था. किताब के छपने के बाद उसके वितरण का फार्मूला भी तय है. पहली से आठवीं तक की किताब संकुल समन्वय को भेजी जाती है. नवमीं और दसवीं की किताब स्कूलों में दी जाती है. आत्मानंद स्कूलों में पहली से दसवीं तक की किताब सीधे भेजी जाती है. प्राइवेट स्कूलों में किताबों के वितरण की जिम्मेदारी जिला शिक्षा अधिकारियों (डीईओ) को सौंपी जाती है. सरकारी स्कूलों में मई से जून तक किताबों का वितरण हो जाता है. 5 जुलाई तक प्राइवेट स्कूलों में किताबें वितरित कर दी जाती हैं.सरकारी स्कूल में बंटने वाली किताबों का जिक्र छोड़ दिया जाए, तब भी प्राइवेट स्कूलों में बंटने वाली किताबों की संख्या लाखों में है. ज्यादातर प्राइवेट स्कूल सरकारी किताबों को मान्यता नहीं देते. जाहिर है ऐसे अधिकांश स्कूलों में किताबें वितरित नहीं होती. प्राइवेट स्कूलों के हिस्से की यह किताबें कहां बांटी जाती है? कारखानों में कटने वाली किताबों की इस घटना की कलई खुलने के बाद से अब तक एक भी डीईओ पर गाज क्यों नहीं गिरी? यह सवाल बना हुआ है.