Column By- Ashish Tiwari , Resident Editor

एक रुका हुआ फैसला…

सरकारी सिस्टम को असल मायने में सिस्टेमेटिक होने की जरूरत है. अब दस साल पुराने इस मामले को ही देखिए. आर्थिक गड़बड़ी से जुड़े एक मामले में जब विभाग ने डिपार्टमेंटल इंक्वायरी बिठाई और जांच के बाद संबंधित अधिकारी को दोषी मानते हुए सात लाख रुपए की रिकवरी निकाल दी. तब गड़बड़ी करने वाले ने भी सिर पकड़ लिया, जितने की गड़बड़ी हुई नहीं, उससे ज्यादा रिकवरी कैसे? सो अधिकारी ने अभ्यावेदन दिया. विभाग ने रिकवरी संशोधित करने की बजाए नए सिरे से डीई बिठा दी. अबकी बार रिकवरी 2.5 लाख की निकली थी. आमतौर पर ऐसा होता नहीं, लेकिन सिस्टम सिस्टेमेटिक नहीं था. बहरहाल दस साल बाद भी यह मसला ठंडा नहीं हुआ, बल्कि कोर्ट कचहरी की दहलीज पर जा पहुंचा. अब दो विभाग इस छोटे से मामले को लेकर आमने-सामने आ गए हैं. दिलचस्प ये है कि बीते दिनों एक विभाग के आला अफसर ने कोर्ट में ये एफिडेटिव दे दिया कि फलाने विभाग से सहयोग नहीं मिल रहा. इस अफसर ने फलाने विभाग के शीर्षस्थ अधिकारी को चिट्ठी पत्री लिखकर अभिलेख भी मांगा, जबकि यह चिट्ठी शासन स्तर पर जानी चाहिए थी. माने विभाग के प्रमुख सचिव-सचिव को लिखी जानी थी. इस मामले ने कोर्ट का दिमाग भी घूमा दिया. सो कोर्ट ने शासन के सर्वोच्च पदों में काबिज जिम्मेदारों से जवाब तलब किया है. एक छोटा सा मामला सिस्टम को कैसे उलझा कर रखता है, ये उसकी एक बानगी है. सुनने में आया है कि आला अधिकारी दसेक दिन तक इस मसले का हल ढूंढने में डूबे रहे. 

आईएएस साहब की सरकारी गाड़ी !

कई सार्वजनिक जगहों पर पान की सख्त हो चुकी पीक के उस पार उधड़े रंग के बीच ये लिखा नजर आ जाता है, ‘ये सरकारी संपत्ति आपकी अपनी संपत्ति है’. यकीन मानिए इस वाक्य को लगभग पूरा किसी ने समझा है, तो ये आईएएस साहब होंगे ! प्रमोटी हैं, लेकिन अनुभवी भी. कई जिलों की कलेक्टरी के बाद दो विभागों की जिम्मेदारी संभाल रहे हैं. विभाग दो हैं, तो गाड़ियां भी दो मिली है. सिस्टम ने ये व्यवस्था कर रखी थी. मगर इन्हें जरूरत सिर्फ एक गाड़ी की थी. दूसरी गाड़ी का इस्तेमाल कम था. खड़ी रहती तो खामखां उस पर जंग लग जाता, सो उन्होंने एक गैर सरकारी परिचित व्यक्ति को इस्तेमाल के लिए दे दी. अब यह सड़कों पर बेधड़क दौड़ रही है. व्यवस्था विरोधी तत्वों ने बकायदा इसकी तस्वीरें भी खींच रखी हैं. आईएएस साहब सरकारी संपत्ति को अपनी संपत्ति मानते हैं. सो पूरे अधिकार से दोहन कर रहे हैं. 

आईएएस कॉन्क्लेव

लंबे इंतजार के बाद इस महीने आईएएस कॉन्क्लेव होने जा रहा है. आईएएस एसोसिएशन नवा रायपुर के मेफेयर गोल्फ रिसॉर्ट में 13-15 अप्रैल तक इस कॉन्क्लेव का आयोजन कर रही है. सीनियर-जूनियर अधिकारियों के बीच बेहतर कोआर्डिेशन ऐसे कॉन्क्लेव के अहम एजेंडे होते हैं. जाहिर है आईएएस एसोसिएशन इसकी मेजबानी करेगा, तो छत्तीसगढ़ कैडर के लगभग सभी सीनियर-जूनियर आईएएस अधिकारियों का जमावड़ा तीन दिनों तक राजधानी में होगा. अनिल स्वरूप, एन बैजेंद्र कुमार सरीखे बेहद अनुभवी रिटायर्ड ब्यूरोक्रेट्स की जरूरी टिप्स भी लोगों को सुनने को मिलेंगे. वैसे जूनियर आईएएस जो पेशे में आते ही सिस्टम का हिस्सा बनने में संकोच नहीं करते, उनके लिए सीनियर ब्यूरोक्रेट की टिप्पणी बेहद अहम होगी. बशर्ते उनकी दिलचस्पी कॉन्क्लेव में होने वाले कलरफुल कल्चरल इवेंट तक ना हो. हालांकि सुनने में आया है कि छत्तीसगढ़ आईएएस एसोसिएशन की वर्किंग बॉडी आईएएस लॉबी पर सवाल उठाने का मौका देने वाले अफसरों पर कसावट भी कर रही है. एक-दो मामले की जानकारी मिली है, जिसमें अफसरों के बीच के फूट पर और मीडिया में बनी सुर्खियों पर एसोसिएशन ने अपनी आंखें तरेरी हैं. 

आईएएस जैसी एकता कब आएगी….

आल इंडिया सर्विसेज में सबसे ज्यादा सिर फुटौव्वल किसी सर्विसेस में है, तो वह है इंडियन पुलिस सर्विस यानी आईपीएस. जितनी एकता आईएएस लॉबी में दिखती है, उतना ही परस्पर विरोध आईपीएस लॉबी में देखा जाता है. सीनियर-जूनियर के बीच बेहतर तालमेल तो छोड़िए अधिकारी एक-दूसरे की लेग पुलिंग में खूब लगे दिखते हैं. कुछ किरदार तो ऐसे हैं, जो अपना मूल काम छोड़कर इस फिराक में लगे होते हैं कि कैसे सामने वाले का पत्ता काट दिया जाए? एक बार एक सीनियर आईपीएस ने कहा था कि इसकी वजह मनोवैज्ञानिक है. दरअसल सही मायने में पुलिस में प्रशासन कम पुलिसिंग ज्यादा है. सिस्टम भी पुलिस का ढाल बनाकर अपने बड़े-बड़े काम आसानी से करवा जाता है. कानून व्यवस्था बहाली का बड़ा दबाव सीधे पुलिस पर है, सो वास्ता अपराधियों से ज्यादा पड़ता है, जाहिर है दिमागी वर्जिश कुछ ऐसी होती है कि उसका असर कई मर्तबा खुद के महकमे में एक-दूसरे की लेग पुलिंग के जरिए दिखाई देती है. 

कलेक्टर साहब का एनजीओ प्रेम !

ब्यूरोक्रेसी में असल राजा तो कलेक्टर ही है. मंत्रालय में बैठ कर कलम घसीटने वाले अफसरान महज बाबूगिरी ही करते हैं, कलेक्टर का अपना रूतबा है. ठाठ बाठ और इज्जत ऐसी कि अच्छे-अच्छे अधिकारी कलेक्टर के आगे फीके नजर आए. एक अहम जिले के कलेक्टर ने अपनी कलेक्टरी में खूब नाम कमाया है. कई इनोवेटिव आइडिया से वाहवाही बटोरी. व्यवहार कुशलता में भी अव्वल पायदान पर हैं. मगर उनके एनजीओ प्रेम ने ऐसी चर्चा छेड़ी कि सब गुड़ गोबर होता दिख रहा है. सुनते हैं कि उन्होंने कुछ लोगों को जोड़कर एक एनजीओ बना डाला है. ऐसा नहीं है कि एनजीओ काम नहीं कर रहा. सामाजिक तौर पर बेहद सक्रिय भी है. मगर सिस्टम में अब सवाल नियत को लेकर उठाए जा रहे हैं. सुनने में आया है कि एनजीओ को अच्छा खासा फंड मिल रहा है. जिला प्रशासन में कलेक्टर साहब की इस एनजीओ के प्रति दिलचस्पी पर भी चर्चा छिड़ी हुई है., तो इधर मंत्रालय में भी खुसर फुसर सुनी गई है. वैसे कहीं कुछ अच्छा काम हो तो सवाल नहीं उठाना चाहिए. 

खैरागढ़ उप चुनाव

आज शाम खैरागढ़ उप चुनाव का प्रचार अभियान थम जाएगा. सत्ता में कांग्रेस के काबिज होने के बाद दंतेवाड़ा और मरवाही में भी उप चुनाव हुए, लेकिन इस दफे मुख्यमंत्री की मैराथन चुनावी रैलियां बहुत कुछ कह रही है. खुद मुख्यमंत्री इसे सत्ता का सेमीफाइनल कह चुके हैं, सो कैप्टन पारी खेलते दिखाई दिए. चुनाव जीतने के 24 घंटे के भीतर जिला बनाने का बड़ा वादा उन्होंने किया है. इस वादे से यकीनन सियासी जमीन मजबूत हुई होगी. वैेसे तो खैरागढ़ उप चुनाव के लिए कांग्रेस ने अपने सभी दिग्गजों को मैदान में उतार दिया हो, लेकिन पर्दे के पीछे की अहम जिम्मेदारी मुख्यमंत्री के भरोसेमंद मंत्री मो.अकबर के हाथों आई. सुनाई पड़ा है कि पहले ये जिम्मेदारी दूसरे मंत्री को दी गई थी. शुरूआती पेस बन नहीं पाया. तबियत नासाज थी, तो प्रचार अभियान में गए मंत्री सर्किट हाउस में आराम करने चले गए. सूचना ऊपर तक पहुंची, तो आनन-फानन में मो.अकबर को चुनावी कमान सौंप दी गई. वैसे भी मो. अकबर की पुराने विधानसभा वीरेंद्रनगर के पचास से अधिक गांव खैरागढ़ में आते थे, सो सियासत की जमीन को उपजाऊ बनाने का फार्मूला मो.अकबर ढूंढ लाए. बताते हैं कि जिम्मेदारी मिलने के चंद घंटों के भीतर लंबी चौड़ी एक टीम बना दी गई. सबसे दिलचस्प ये कि जब जिम्मेदारी सौंपी गई और बूथ प्रभारियों की सूची की पड़ताल हुई, तब पता चला कि करीब 46 ऐसे लोग थे, जिन्हें ये मालूम तक नहीं था कि उन्हें प्रभारी बनाया गया है. वहीं जेल में बंद एक व्यक्ति को भी बूथ का प्रभार सौंप दिया गया था. बाकायदा खर्च की रकम भी भेज दी गई थी. बाद में ये सब गड़बड़ियां ठीक हुई.